यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 60
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - रुद्रो देवता
छन्दः - विराट् ब्राह्मी अनुष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
1
त्र्य॑म्बकं यजामहे सुग॒न्धिं पु॑ष्टि॒वर्ध॑नम्। उ॒र्वा॒रु॒कमि॑व॒ बन्ध॑नान्मृ॒त्योर्मु॑क्षीय॒ माऽमृता॑त्। त्र्य॑म्बकं यजामहे सुग॒न्धिं प॑ति॒वेद॑नम्। उ॒र्वा॒रु॒कमि॑व॒ बन्ध॑नादि॒तो मु॑क्षीय॒ मामुतः॑॥६०॥
स्वर सहित पद पाठत्र्य॑म्बक॒मिति॒ त्रिऽअ॑म्बकम्। य॒जा॒म॒हे॒। सु॒ग॒न्धिमिति॑ सुऽग॒न्धिम्। पु॒ष्टि॒वर्ध॑न॒मिति॑ पुष्टि॒ऽवर्ध॑नम्। उ॒र्वा॒रु॒कमि॒वेत्यु॑र्वारु॒कम्ऽइ॑व। बन्ध॑नात्। मृ॒त्योः। मु॒क्षी॒य॒। मा। अ॒मृता॑त्। त्र्य॑म्बक॒मिति॒ त्रिऽअ॑म्बकम्। य॒जा॒म॒हे॒। सु॒ग॒न्धिमिति॑ सुऽग॒न्धिम्। प॒ति॒वेद॑न॒मिति॑ पति॒ऽवेद॑नम्। उ॒र्वा॒रु॒कमि॒वेत्यु॑र्वारु॒कम्ऽइ॑व। बन्ध॑नात्। इ॒तः। मु॒क्षी॒य॒। मा। अ॒मु॒तः॑ ॥६०॥
स्वर रहित मन्त्र
त्र्यम्बकँयजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् । उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुतः ॥
स्वर रहित पद पाठ
त्र्यम्बकमिति त्रिऽअम्बकम्। यजामहे। सुगन्धिमिति सुऽगन्धिम्। पुष्टिवर्धनमिति पुष्टिऽवर्धनम्। उर्वारुकमिवेत्युर्वारुकम्ऽइव। बन्धनात्। मृत्योः। मुक्षीय। मा। अमृतात्। त्र्यम्बकमिति त्रिऽअम्बकम्। यजामहे। सुगन्धिमिति सुऽगन्धिम्। पतिवेदनमिति पतिऽवेदनम्। उर्वारुकमिवेत्युर्वारुकम्ऽइव। बन्धनात्। इतः। मुक्षीय। मा। अमुतः॥६०॥
विषय - फिर वह रुद्र (जगदीश्वर) कैसा है, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ -
हम लोग (सुगन्धिम्) श्रेष्ठ एवं शुद्ध करने वाले (पुष्टिवर्धनम्) शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाने वाले (त्र्यम्बकम्) उक्त रुद्र जगदीश्वर देव का (यजेमहि) नित्य पूजन करें।
इसकी कृपा से मैं (बन्धनात्) लता के साथ जुड़ा हुआ (उर्वारुकमिव) जैसे ककड़ी-फल पक कर अमृत हो जाता है वैसे ही (मृत्योः) प्राण और शरीर का आत्मा से वियोग रूप मृत्यु से (मुक्षीय) छूट जाऊँ। और--
(अमृतात्) मोक्षसुख रूप अमृत से (मा मुक्षीमहि) हम कभी भी श्रद्धा एवं विश्वासशून्य न हों।
हम लोग (सुगन्धिम्) पवित्र करने वाले (पतिवेदनम्) पति (स्वामी) को प्राप्त कराने वाले वा जनाने वाले (त्र्यम्बकम्) सबके राजा उस रुद्र का (यजामहे) नित्य सत्कार करें ।
इसकी कृपा से मैं (बन्धनात्) लता के साथ जुड़ा हुआ (उर्वारुकमिव) जैसे ककड़ी-फल पककर अमृत हो जाता है वैसे (इतः) इस शरीर से वा इस मर्त्यलोक से (मुक्षीय) छूट जाऊँ।
भावार्थ -
इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है। मनुष्य ईश्वर को छोड़ कर किसी दूसरे का पूजन न करें, क्योंकि अन्य का पूजन वेदोक्त न होने से दुःखदायक है। जैसे ककड़ी फल जब लता में लगा हुआ ही स्वयं पककर, समय पाकर लता-बन्धन (डंठल ) से मुक्त होकर स्वादिष्ट हो जाता है, वैसे ही हम लोग पूर्ण आयु भोग कर, शरीर छोड़कर मुक्ति को प्राप्त करें।
हम कभी भी मोक्ष प्राप्ति के कर्मों से, परलोक से वा परजन्म से विरक्त ( उदास) न हों।
हम नास्तिक होकर कभी ईश्वर का अनादर न करें, जैसे लौकिक सुख के लिये अन्न, जल आदि को लोग प्राप्त करना चाहते हैं, वैसे ही ईश्वर, वेद, वेदोक्त धर्म और मुक्ति में नित्य श्रद्धा रखें। ।। ३ । ६० ।।
प्रमाणार्थ -
(सुगन्धिम्) 'सुगन्धि' शब्द 'गन्धस्येदुत्पूति सुसुरभिभ्यः' (अ० ५ । ४ । १३५) सूत्र से 'सुगन्ध' शब्द को समासान्त 'इकार' आदेश करने पर सिद्ध है। (पुष्टिवर्द्धनम्) यहाँ 'गन्धादिगण' से 'ल्यु' प्रत्यय है। इस मन्त्र की व्याख्या यास्कमुनि निरु० (१३ । ४८) में इस प्रकार करते हैं--"त्र्यम्बक=रुद्रदेव को हम पूजते हैं, वह देव हमें सुन्दर गन्धयुक्त और पुष्टिकारक वृन्त से स्वतः टूटे हुए 'उर्वारुक' फल की तरह मुझे मृत्यु से छुड़ाये परन्तु मोक्ष-धर्म से न छुड़ाये" । इस मन्त्र की व्याख्या शत० (२ । ६ । २ । १२-१४) में की गई है ।। ३ । ६० ।।
भाष्यसार -
रुद्र (ईश्वर) कैसा है--रुद्र अर्थात् जगदीश्वर शुद्ध सुगन्ध वाला, शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाने वाला, तीनों कालों का ज्ञाता है। अतः वह नित्य पूजन के योग्य है । जो वेदोक्त रुद्र को छोड़ कर अन्य विरुद्ध का पूजन करते हैं वे दुःख रूप फल को प्राप्त होते हैं। जैसे ककड़ी का फल लता में लगा हुआ है पर डंठल से अलग होकर अमृत रूप हो जाता है, स्वादिष्ट हो जाता है, इसी प्रकार रुद्र (ईश्वर) का पूतक भी पूर्ण आयु को भोग कर शरीर छोड़ कर अमृत हो जाता है, मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। रुद्र (ईश्वर) के पूजन से अमृत अर्थात् मुक्ति प्राप्ति में विरक्ति नहीं होती, श्रद्धा बनी रहती है। इसलिए ईश्वर का सदा सत्कार करें, नास्तिक होकर उसका अनादर कभी न करें । जैसे व्यावहारिक (लौकिक) सुख के लिये हमारी अन्न, जल ग्रादि पदार्थों में (लालसा) है, श्रद्धा है, इतनी ही श्रद्धा ईश्वर में, वेदों में, वेदोक्त धर्म में, मुक्ति में भी रखें ।। ६० ।।
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