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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 37
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - प्रजापतिर्ऋषिः छन्दः - ब्राह्मी उष्णिक्, स्वरः - ऋषभः
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    भूर्भुवः॒ स्वः सुप्र॒जाः प्र॒जाभिः॑ स्या सु॒वीरो॑ वी॒रैः सु॒पोषः॒ पोषैः॑। नर्य॑ प्र॒जां मे॑ पाहि॒ शꣳस्य॑ प॒शून् मे॑ पा॒ह्यथ॑र्य पि॒तुं मे॑ पाहि॥३७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भूः। भुवः॑। स्व॒रिति॒ स्वः᳖। सु॒प्र॒जा इति॑ सुऽप्र॒जाः। प्र॒जाभि॒रिति॑ प्र॒ऽजाभिः॑। स्या॒म्। सु॒वीर॒ इति॑ सु॒ऽवीरः॑। वी॒रैः। सु॒पोष॒ इति॑ सु॒पोषः॑। पोषैः॑। नर्य॑। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। मे॒। पा॒हि॒। शꣳस्य॑। प॒शून्। मे॒। पा॒हि॒। अथ॑र्य। पि॒तुम्। मे॒ पा॒हि॒ ॥३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भूर्भुवः स्वः सुप्रजाः प्रजाभि स्याँ सुवीरो वीरैः सुपोषः पोषैः । नर्य प्रजाम्मे पाहि शँस्य पशून्मे पाह्यथर्य पितुम्मे पाहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    भूः। भुवः। स्वरिति स्वः। सुप्रजा इति सुऽप्रजाः। प्रजाभिरिति प्रऽजाभिः। स्याम्। सुवीर इति सुऽवीरः। वीरैः। सुपोष इति सुपोषः। पोषैः। नर्य। प्रजामिति प्रऽजाम्। मे। पाहि। शꣳस्य। पशून्। मे। पाहि। अथर्य। पितुम्। मे पाहि॥३७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 37
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    भाषार्थ -

    हे (नर्य्य!) नीतिमान् नरों में श्रेष्ठ परमेश्वर ! आप कृपा करके (मे) मेरी (प्रजाम् ) सन्तान आदि की (पाहि) सदा रक्षा करो ।

    और (मे) मेरे (पशून्) गाय, घोड़े, हाथी आदि पशुओं की भी (पाहि) रक्षा करो ।

    हे (अथर्य) संशय रहित परमेश्वर ! आप (मे) मेरे (पितुम्) अन्न की (रक्ष) रक्षा करो।

     हे (शंस्य) सर्वथा स्तुति करने योग्य जगदीश्वर ! आपकी कृपा से मैं [भूः] प्रिय स्वरूप प्राण [भुवः] बल निमित्त उदान [स्वः] सब चेष्टाओं के निमित्त व्यान इन प्राण-अपान-व्यानों से युक्त होकर (प्रजाभिः) अनुकूल रहने वाले स्त्री, पुत्र, शिष्य, मित्र, सेवक, राज्य, पशु आदि से (सुप्रजा:) उत्तम शिक्षा तथा श्रेष्ठ विद्या से युक्त प्रजा वाला, (वीरै:) शौर्य, धैर्य तथा विद्या से विभूषित एवं शत्रु निवारण तथा प्रजापालन में कुशल (सुवीरः) शरीर और आत्मा के बलों से युक्त श्रेष्ठ वीरों वाला (पोषैः) पुष्टिकारक, प्राप्त विद्या से उत्पन्न ज्ञान युक्त व्यवहारों से (सुपोष:) श्रेष्ठ पुष्टियों वाला (स्याम्) सदा रहूँ ।। ३ । ३७ ।।

    भावार्थ -

    मनुष्य, ईश्वरोपासना तथा ईश्वर की आज्ञापालन के आश्रय से उत्तम नियमों एवं पुरुषार्थ के द्वारा श्रेष्ठ प्रजा, वीर पुरुष तथा पुष्टि आदि कारणों से प्रजा का पालन करके नित्य सुख को सिद्ध करें ॥ ३ । ३७ ।।

    भाष्यसार -

    १. ईश्वर-प्रार्थना किसलिये-- प्रार्थना करने से जगदीश्वर कृपा करके हमारी सन्तान प्रादि प्रजा की, गौ, घोड़ा, हाथी आदि पशुओं की और अन्न की रक्षा करता है। वह प्राण, अपान और उदान से युक्त करके अनुकूल स्त्री, औरस सन्तान, विद्या सन्तान, मित्र, भृत्य, राज्य, पशु आदि प्रजा से उत्तम विद्या, शिक्षा से युक्त प्रजावान् बनाता है। वह शौर्य, धैर्य, विद्या, शत्रुनिवारण और प्रजापालन में कुशल वीरों से हमें शारीरिक-आत्मिक बल से भरपूर वीरवान् बनाता है। वही आप्त विद्या से उत्पन्न होने वाले ज्ञानयुक्त पुष्टिकारक व्यवहारों से हमें अत्यन्त पुष्ट करता है ।

     यह सब सुख ईश्वर की प्रार्थना के साथ उपासना, आज्ञापालन, उत्तम नियमों का आचरण एवं पुरुषार्थ से ही सम्भव है।

    २. ईश्वर--जगदीश्वर नीतिमानों में श्रेष्ठ, संशयरहित और सर्वथा स्तुति के योग्य है ॥३ । ३७ ।।

    अन्यत्र व्याख्यात -

    महर्षि ने इस मन्त्र की व्याख्या संस्कारविधि (गृहाश्रम प्रकरण) में इस प्रकार की है--"हे स्त्री वा पुरुष मैं तेरा वा अपने के सम्बन्ध से (भूर्भुवः, स्वः) शारीरिक, वाचिक और मानस अर्थात् त्रिविध सुख से युक्त हो के (प्रजाभिः) मनुष्यादि उत्तम प्रजाओं के साथ (सुप्रजाः) उत्तम प्रजा युक्त (स्याम्) होऊँ (वीरैः) उत्तम पुत्र बन्धु सम्बन्धी और भृत्यों से सह वर्तमान (सुवीर:) उत्तम वीरों से सहित होऊँ (पोषैः) उत्तम पुष्टिकारक व्यवहारों से (सुपोषः) उत्तम पुष्टि युक्त होऊँ हे (नर्य) मनुष्यों में सज्जन वीर स्वामिन् (मे) मेरी (प्रजाम्) प्रजा की (पाहि) रक्षा कीजिये। हे (शंस्य) प्रशंसा करने योग्य स्वामिन् आप (मे) मेरे (पशून्) पशुओं की (पाहि) रक्षा कीजिये । वैसे हे नारि प्रशंसनीय गुणयुक्त ! तू मेरी प्रजा, मेरे पशु और मेरे अन्न की सदा रक्षा किया कर" ॥ २ ॥        

     महर्षि ने इस मन्त्र की व्याख्या आर्याभिविनय (२ । ३५) में इस प्रकार की है-- हे सर्वमङ्गलकारकेश्वर ! आप "भूः" सदा वर्तमान हो । “भुवः" वायु आदि पदार्थों के रचने वाले, "स्वः" सुख रूप हो, हम को सुख दीजिए। हे सर्वाध्यक्ष ! आप कृपा करो जिससे कि मैं पुत्र पौत्र आदि उत्तम गुण वाली प्रजा से श्रेष्ठ प्रजा वाला होऊँ, सर्वोत्कृष्ट वीर योद्धाओं से "सुवीरः" युद्ध में सदा विजयी होऊँ। हे महापुष्टि प्रद! आप के अनुग्रह से अत्यन्त विद्यादि तथा सोमलता आदि औषधि सुवर्णादि और नैरोग्यादि सर्वपुष्टियुक्त होऊँ । हे "नर्य" नरों के हितकारक मेरी प्रजा की रक्षा आप करो। हे "शंस्य" स्तुति करने योग्य ईश्वर ! हस्त्यश्वादि पशुओं का पालन करो। हे "अथर्य" व्यापक ईश्वर ! "पितुम्" धरे अन्न की रक्षा कर। हे दयानिधे ! हम लोगों को सब उत्तम पदार्थों से परिपूर्ण और सब दिन आप आनन्द में रखो" ।। २ । ३५ ॥

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