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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 7
    ऋषिः - सर्पराज्ञी कद्रूर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट् गायत्री, स्वरः - षड्जः
    3

    अ॒न्तश्च॑रति रोच॒नास्य प्रा॒णाद॑पान॒ती। व्य॑ख्यन् महि॒षो दिव॑म्॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्तरित्य॒न्तः। च॒र॒ति॒। रो॒च॒ना। अ॒स्य॒। प्रा॒णात्। अ॒पा॒न॒तीत्य॑पऽअ॒न॒ती। वि। अ॒ख्य॒न्। म॒हि॒षः। दिव॑म् ॥७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तश्चरति रोचनास्य प्राणादपानती व्यख्यन्महिषो दिवम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अन्तरित्यन्तः। चरति। रोचना। अस्य। प्राणात्। अपानतीत्यपऽअनती। वि। अख्यन्। महिषः। दिवम्॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 7
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    भाषार्थ -

    जो (अस्य) इस अग्नि की (प्राणात्) ब्रह्माण्ड और शरीर में ऊर्ध्व गमनशील प्राण से (पानी) नीचे गमन करने वाली वायु को उत्पन्न करती हुई (रोचना) दीप्तिमय विद्युत् है, वह शरीर और ब्रह्माण्ड के (अन्तः) मध्य में (चरति) गति करती है। और वह (महिषः) अपने गुणों से महान् अग्नि (दिवम्) सूर्य लोक को ( व्यख्यत् ) नाना प्रकार से प्रसिद्ध करती है ।। ३ । ७ ।।

    भावार्थ -

    जो अग्नि विद्युत् नाम से प्रसिद्ध सबके मध्य में कान्ति रूप में विद्यमान है वह प्राण और अपान के साथ संयुक्त होकर प्राण, अपान, अग्नि के प्रकाश की गति आदि चेष्टा एवं व्यवहारों को प्रकट करता है, ऐसा सब मनुष्यों को जानना योग्य है ।। ३ । ७ ।।

    भा० पदार्थ:--रोचना= कान्तिः । व्यख्यत्=चेष्टाव्यवहारन् प्रसिद्धीकरोति॥

    भाष्यसार -

    अग्नि (भौतिक) कैसा है--अग्नि विद्युत् रूप है । यह ब्रह्माण्ड और शरीर में भी प्राण अर्थात् ऊर्ध्वगमनशील वायु, अपान अर्थात् अधोगमनशील वायु का साधक है। विद्युत् रूप अग्नि जो सब पदार्थों के मध्य में विद्यमान कान्ति रूप है, वह प्राण और अपान की सहायता से ऊर्ध्वगति, अधोगति आदि चेष्टाओं को सिद्ध करता है। अग्नि के प्रकाश की गति का भी साधक है। अपने इन उक्त गुणों के कारण अग्नि महान् है। द्युलोक की व्याख्या अग्नि है         

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