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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 35
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - निचृत् गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    तत् स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि। धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत्। स॒वि॒तुः। वरे॑ण्यम्। भर्गः॑। दे॒वस्य॑। धी॒म॒हि॒। धि॒यः॑। यः। नः॒। प्र॒। चो॒द॒या॒त् ॥३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। सवितुः। वरेण्यम्। भर्गः। देवस्य। धीमहि। धियः। यः। नः। प्र। चोदयात्॥३५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 35
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    भाषार्थ -

    हम लोग ( सवितुः) सब जगत् के उत्पत्ति कर्त्ता ( देवस्य) प्रकाशमय, शुद्धस्वरूप, सब सुख दाता परमेश्वर का जो (वरेण्यम्) ति श्रेष्ठ (भर्गः) दुःखमूलक पापों को भस्म करने वाला स्वरूप है (तत्) उसे ( धीमहि ) धारण करें ।

     (यः) जो सविता देव अर्थात् अन्तर्यामी परमेश्वर है वह (नः) हमारी ( धियः) प्रज्ञा एवं बुद्धियों को (प्रचोदयात् ) शुभ कर्मों में प्रेरित करे ।। ३ । ३५ ।।

    भावार्थ -

    मनुष्य, सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, सबसे उत्तम, सब दोषों को नष्ट करने वाले, शुद्ध स्वरूप, परमेश्वर की उपासना नित्य करें । किस प्रयोजन के लिए ? इसके उत्तर में वेद कहता है:--

      स्तुति, धारणा, प्रार्थना और उपासना किया हुआ वह परमेश्वर हमें सब दुष्ट गुण, कर्म, स्वभावों से पृथक् करके सब श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभावों में सदा प्रवृत्त रखे, इसलिए परमेश्वर की स्तुति आदि करना योग्य है ।

      प्रार्थना का यही मुख्य सिद्धान्त है कि जैसी प्रार्थना करें वैसा ही कर्म (आचरण) भी करें । ।। ३ । ३५ ।।

    भाष्यसार -

    . ईश्वर की स्तुति--ईश्वर सब जगत् का उत्पादक, प्रकाशमय, शुद्धस्वरूप, सब सुखों का दाता, अतिश्रेष्ठ, और सब पापों को नष्ट करने वाला है।

    २. ईश्वर प्रार्थना--अन्तर्यामी परमेश्वर हमारी बुद्धियों को सब दुष्ट गुण, कर्म, स्वभावों से पृथक करके    सर्वश्रेष्ठ गुण, कर्म स्वभावों में प्रवृत्त करें ।

    ३. ईश्वर उपासना–-ईश्वर के सर्वोत्कृष्ट, सकल दोषनाशक, शुद्ध स्वरूप को हम धारण करें, उसकी नित्य उपासना करें ।। ३ । ३५ ।।

    अन्यत्र व्याख्यात -

    महर्षि ने इस मन्त्र का विनियोग संस्कारविधि (वेदारम्भ प्रकरण) में आचार्य के द्वारा भात की आहुति देने में किया है ।

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