यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 29
ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः
देवता - बृहस्पतिर्देवता
छन्दः - गायत्री,
स्वरः - षड्जः
2
यो रे॒वान् योऽअ॑मीव॒हा व॑सु॒वित् पु॑ष्टि॒वर्द्ध॑नः। स नः॑ सिषक्तु॒ यस्तु॒रः॥२९॥
स्वर सहित पद पाठयः। रे॒वान्। यः। अ॒मी॒व॒हेत्य॑मीऽव॒हा। व॒सु॒विदिति॑ वसु॒ऽवित्। पु॒ष्टि॒वर्द्ध॑न॒ इति॑ पुष्टि॒ऽवर्द्ध॑नः। सः। नः॒। सि॒ष॒क्त्विति सिषक्तुः। यः। तु॒रः ॥२९॥
स्वर रहित मन्त्र
यो रेवान्यो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्धनः । स नः सिषक्तु यस्तुरः ॥
स्वर रहित पद पाठ
यः। रेवान्। यः। अमीवहेत्यमीऽवहा। वसुविदिति वसुऽवित्। पुष्टिवर्द्धन इति पुष्टिऽवर्द्धनः। सः। नः। सिषक्त्विति सिषक्तुः। यः। तुरः॥२९॥
विषय - फिर वह ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ -
(यः) जो महान् (रेवान्) विद्या का धनी है एवं (अमीवहा) अविद्या आदि रोगों का नाशक है तथा (वसुवित्) जो सब वस्तुओं को यथावत् जानता एवं जनाता है और (पुष्टिवर्द्धन:) शारीरिक, आत्मिक बलों और धातुओं की साम्य अवस्था को बढ़ाने वाला और (तुरः) शीघ्रकारी है (यः) वह वेदपति जगदीश्वर है सो (नः) हमें शुभ गुणों से और शुभ कर्मों से (सिषक्तु) संयुक्त करे ।। ३ । २९ ।।
भावार्थ -
जो यह विश्व में धन है वह सब ईश्वर का ही है। मनुष्य जैसी ईश्वर से प्रार्थना करें, स्वयं भी वैसा ही पुरुषार्थ करें। जैसा 'रेवान्' इस ईश्वर के विशेषण को कह कर और सुन कर कोई भी कृतार्थ (फलवान्) नहीं होता किन्तु अपने परम पुरुषार्थ से भी धन की वृद्धि और रक्षा नित्य करनी योग्य है।
जैसे वह ईश्वर अमीवहा=रोगहन्ता है वैसे ही मनुष्य भी रोगों का नित्य हनन करें ।
जैसे वह ईश्वर वसुवित् वस्तुओं को जानने वाला है वैसे ही यथाशक्ति पदार्थ विद्या को जानें ।
जैसे वह ईश्वर सबका पुष्टि-वर्द्धक है, वैसे ही मनुष्यों को सबकी पुष्टि नित्य बढ़ानी चाहिये ।
जैसे वह ईश्वर तुर=शीघ्रकारी है वैसे ही सब मनुष्यों को अभीष्ट कार्य शीघ्र करने चाहिये।
जैसे हम उस ईश्वर से शुभ गुण, कर्म प्राप्ति के लिये प्रार्थना करें वैसे ही सब मनुष्यों को परम प्रयत्न से शुभ गुण कर्म आचरण से वह नित्य युक्त करे ।। ३ । २९ ।।
प्रमाणार्थ -
(रेवान्) यहाँ 'रवि' शब्द से मतुप् प्रत्यय है तथा 'छन्दसीर:' (अ० ८ । २।१५) सूत्र से मकार को वकार आदेश हो गया है। 'रयेर्मतौ सम्प्रसारणं बहुलं वक्तव्यम्' (अ० ६ । १ । ३७) वार्त्तिक से यकार को सम्प्रसारण हो गया है। (सिषक्तु) यहाँ समवाय अर्थ वाली 'षच्' धातु से परे 'शप्' के स्थान में 'बहुलं छन्दसि' [अ० २ । ४ । ७३] सूत्र से श्लु और 'बहुलं छन्दसि' [अ० ७ । ४ । ७८] सूत्र से अभ्यास का इकार आदेश है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (२ । ३ । ४ । ३५ ) में की गई है ।। ३ । २९ ।।
भाष्यसार -
१. ईश्वर कैसा है-- जगदीश्वर महान्, विद्या का धनी, अविद्यादि रोगों का हन्ता, पदार्थ विद्या का वेत्ता तथा ज्ञापक, शारीरिक, आात्मिक बल का तथा धातुसाम्य का वर्द्धक, शीघ्रकारी है।
२. ईश्वर-प्रार्थना--उक्त गुणों वाला ब्रह्मणस्पति=जगदीश्वर हमें शुभ गुण-कर्मों से युक्त करें ।। ३ । २९।।
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