यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 48
ऋषिः - और्णवाभ ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - ब्राह्मी अनुष्टुप्,
स्वरः - गान्धारः
1
अव॑भृथ निचुम्पुण निचे॒रुर॑सि निचुम्पु॒णः। अव॑ दे॒वैर्दे॒वकृ॑तमेनो॑ऽयासिष॒मव॒ मर्त्यै॒र्मर्त्य॑कृतं पुरु॒राव्णो॑ देव रि॒षस्पा॑हि॥४८॥
स्वर सहित पद पाठअव॑भृ॒थेत्यव॑ऽभृथ। नि॒चु॒म्पु॒णेति॑ निऽचुम्पुण। नि॒चे॒रुरिति॑ निचे॒रुः। अ॒सि॒। नि॒चु॒म्पु॒ण इति॑ निऽचुम्पु॒णः। अव॑। दे॒वैः। दे॒वकृ॑त॒मिति॑ दे॒वऽकृ॑तम्। एनः॑। अ॒या॒सि॒ष॒म्। अव॑। मर्त्यैः॑। मर्त्य॑कृत॒मिति॒ मर्त्य॑ऽकृतम्। पु॒रु॒ऽराव्ण॒ इति पुरु॒ऽराव्णः॑। दे॒व॒। रि॒षः। पा॒हि॒ ॥४८॥
स्वर रहित मन्त्र
अवभृथ निचुम्पुण निचेरुरसि निचुम्पुणः । अव देवैर्देवकृतमेनो यासिषमव मर्त्यैर्मर्त्यकृतम्पुरुराव्णो देव रिषस्पाहि ॥
स्वर रहित पद पाठ
अवभृथेत्यवऽभृथ। निचुम्पुणेति निऽचुम्पुण। निचेरुरिति निचेरुः। असि। निचुम्पुण इति निऽचुम्पुणः। अव। देवैः। देवकृतमिति देवऽकृतम्। एनः। अयासिषम्। अव। मर्त्यैः। मर्त्यकृतमिति मर्त्यऽकृतम्। पुरुऽराव्ण इति पुरुऽराव्णः। देव। रिषः। पाहि॥४८॥
विषय - अब यज्ञ का अनुष्ठान करने वाले यजमान के कर्मों का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ -
हे (अवभृथ) विद्या और धर्माचरण से पवित्र! (निचुम्पुणः) धैर्यपूर्वक शब्द विद्या को पढ़ाने वाले एवं सर्वथा मन्द-मन्द चलने वाले अध्यापक! जैसे मैं यजमान (निचुम्पुणः) उक्त निचुम्पुण और (निचेरुः) समिधायकों का चयन करने वाला होकर (देवैः) प्रकाश रूप मन आदि इन्द्रियों से (देवकृतम्) इन्द्रियकृत तथा (मर्त्यैः) मरणधर्मा शरीरों से (मर्त्यकृतम्) अनित्य शरीरकृत (एन:) पाप है, उससे ( अवायासिषम् ) दूर रहूँ वैसे आप भी (अस) बनो, (अवयाहि) पाप से दूर रहो ।
हे (देव) जगदीश्वर ! हमें (पुरुराव्णः) पुरु अर्थात् बहुत दुःख देने वाले (रिषः) हिंसारूप पाप से एवं हिंसक शत्रु से (पाहि) दूर रख ।। ३। ४८ ।।
भावार्थ -
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है । मनुष्य पाप की निवृत्ति और धर्म में प्रवृत्ति के लिये परमेश्वर से नित्य प्रार्थना करके, जो मन, वचन, कर्म से पाप होते हैं, उनसे दूर रहें।
जो कोई अज्ञानवश पाप किया है, उसका फल दुःख समझ कर उसे दूसरी बार न करें किन्तु सदा पवित्र कर्म के आचरण को ही बढ़ावें ।। ३ । ४८ ।।
प्रमाणार्थ -
(अवभृथ) यह शब्द 'अवे भृञ:' उणा० ( २ । ३ ) सूत्र से 'अव' पूर्वक 'भृञ्' धातु से 'क्थन्' प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है । (निचुम्पुण) यह शब्द 'चुप' धातु से बहुल करके 'उण' प्रत्यय और 'मुम्' को आगम करने से सिद्ध होता है। 'निचुम्पुण' शब्द की व्याख्या निरु० (५ । १८) में इस प्रकार की है--"जिसमें विद्या आदि शुभ गुण धैर्यपूर्वक शब्द करते हैं अथवा जिसमें धर्मानुष्ठान आदि धैर्यपूर्वक अपने स्वरूप को धारण करते हैं, उस विद्वान् को 'निचुम्पुण' करते हैं। इसमें ‘अवभृथ निचुम्पुण:॰' इत्यादि वेदमन्त्र प्रमाण है। निचुम्पुण ही निचुङ्कण है। 'निचुम्पुण' शब्द निघं॰ (४। २ ) में पदनामों में पढ़ा है। इसलिए ज्ञान को प्राप्त करने वाला मनुष्य 'निचुम्पुण' कहलाता है। (निचेरु:) यह शब्द 'नि' पूर्वक 'चिञ' धातु से बहुल करके औणादिक 'रु' प्रत्यय करने से सिद्ध होता है। (असि) भव। यहाँ लोट् अर्थ में लट् लकार है । (अयासिषम्) करोमि । यहाँ लट् अर्थ में लुङ् लकार है। (पुरुराव्णः) 'पुरुरावन्' शब्द 'आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च' [ अ० ३ । २ । ७४] सूत्र से 'रा' धातु से 'वनिप्' प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है ।। ३ । ४८ ॥
भाष्यसार -
यजमान का कर्तव्य कर्म--जैसे यज्ञ में समिधाओं का चयन करने वाला विद्वान् यजमान मन आदि इन्द्रियों से तथा अनित्य शरीर से अज्ञानवश किये हुए पाप का परित्याग करता है, पाप का फल दुःख समझ कर उसका दूसरी बार आचरण नहीं करता किन्तु सदा पवित्र कर्म अर्थात् यज्ञानुष्ठान को बढ़ाता है, इसी प्रकार विद्या और धर्मानुष्ठान से शुद्ध, धैर्यपूर्वक व्याकरण-विद्या के अध्यापक, अध्यापन कर्म में मन्द-मन्द चलने वाले विद्वान् भी पापाचरण से दूर रहें। पाप से निवृत्ति और धर्म में प्रवृत्ति के लिए परमेश्वर से नित्य प्रार्थना करें कि हे जगदीश्वर! आप हमें अत्यन्त दुःखदायक मन, वचन, कर्म से किये जाने वाले हिंसात्मक पापों से सदा दूर रखें ।।
२. अलङ्कार-- यहाँ यजमान से शब्द विद्याध्यापक विद्वान् की उपमा की गई है। मन्त्र में उपमावाचक शब्द लुप्त है। अतः वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है ॥ ३ । ४८ ।।
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