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  • यजुर्वेद - अध्याय 26/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः
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    म॒हाँ२॥ऽइन्द्रो॒ वज्र॑हस्तः षोड॒शी शर्म॑ यच्छतु। हन्तु॑ पा॒प्मानं॒ योऽस्मान् द्वेष्टि॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि महे॒न्द्राय॑ त्वै॒ष ते॒ योनि॑र्महे॒न्द्राय॑ त्वा॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हान्। इन्द्रः॑। वज्र॑ह॒स्त इति॒ वज्र॑ऽहस्तः। षो॒ड॒शी। शर्म॑। य॒च्छ॒तु॒। हन्तु॑। पा॒प्मान॑म्। यः। अ॒स्मान्। द्वेष्टि॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। म॒हे॒न्द्रायेति॑ महाऽइ॒न्द्राय॑। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। म॒हे॒न्द्रायेति॑ महाऽइ॒न्द्राय॑। त्वा॒ ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महाँ इन्द्रो वज्रहस्तः षोडशी शर्म यच्छतु । हन्तु पाप्मानँयोस्मान्द्वेष्टि । उपयामगृहीतोसि महेन्द्राय त्वैष ते योनिर्महेन्द्राय त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    महान्। इन्द्रः। वज्रहस्त इति वज्रऽहस्तः। षोडशी। शर्म। यच्छतु। हन्तु। पाप्मानम्। यः। अस्मान्। द्वेष्टि। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। महेन्द्रायेति महाऽइन्द्राय। त्वा। एषः। ते। योनिः। महेन्द्रायेति महाऽइन्द्राय। त्वा॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 26; मन्त्र » 10
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! (বজ্রহস্তঃ) যাহার হস্তে বজ্র (ষোডশী) ষোলকলাযুক্ত (মহান্) মহান্ (ইন্দ্রঃ) এবং পরম ঐশ্বর্য্যবান্ রাজা (শর্ম) যন্মধ্যে দুঃখ বিনাশ প্রাপ্ত হয় সেই গৃহকে (য়চ্ছতু) দিবে (য়ঃ) যে (অস্মান্) আমাদিগকে (দ্বেষ্টি) বৈরভাবপূর্বক কামনা করে সেই (পাপ্মানম্) পাপাত্মা দুষ্ট কর্মকারীকে (হন্তু) বধ করিবে । যাহা তুমি (মহেন্দ্রায়) মহদ্ গুণ বিশিষ্টের জন্য (উপয়ামগৃহীতঃ) প্রাপ্ত নিয়ম দ্বারা গৃহীত (অসি) আছো সেই (ত্বা) তোমাকে তথা যে (তে) তোমার (এষঃ) এই (মহেন্দ্রায়) উত্তম গুণবিশিষ্টের জন্য (য়োনিঃ) নিমিত্ত আছে সেই (ত্বা) তোমারও আমরা সৎকার করি ॥ ১০ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ–হে প্রজাগণ! যে তোমাদের জন্য সুখ প্রদান করিবে, দুষ্টের নিধন করিবে এবং মহান্ ঐশ্বর্য্যের বৃদ্ধি করিবে, সে তোমাদের সৎকার করিবার যোগ্য ॥ ১০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - ম॒হাঁ২ ॥ ऽইন্দ্রো॒ বজ্র॑হস্তঃ ষোড॒শী শর্ম॑ য়চ্ছতু । হন্তু॑ পা॒প্মানং॒ য়ো᳕ऽস্মান্ দ্বেষ্টি॑ । উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতোऽসি মহে॒ন্দ্রায়॑ ত্বৈ॒ষ তে॒ য়োনি॑র্মহে॒ন্দ্রায়॑ ত্বা ॥ ১০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - মহানিত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । নিচৃজ্জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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