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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 35
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - भुरिगतिधृतिः स्वरः - षड्जः
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    होता॑ यक्षत् सु॒पेश॑सो॒षे नक्तं॒ दिवा॒श्विना॒ सम॑ञ्जाते॒ सर॑स्वत्या॒ त्विषि॒मिन्द्रे॒ न भे॑ष॒जꣳ श्ये॒नो न रज॑सा हृ॒दा श्रि॒या न मास॑रं॒ पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। सु॒पेश॒सेति॑ सु॒ऽपेश॑सा। उ॒षेऽइत्यु॒षे। नक्त॑म्। दिवा॑। अ॒श्विना॑। सम्। अ॒ञ्जा॒ते॒ऽइत्य॑ञ्जाते। सर॑स्वत्या। त्विषि॑म्। इन्द्रे॑। न। भे॒ष॒जम्। श्ये॒नः। न। रज॑सा। हृ॒दा। श्रि॒या। न। मास॑रम्। पयः॑। सोमः॑। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षत्सुपेशसोषे नक्तन्दिवाश्विना समञ्जति सरस्वत्या त्विषिमिन्द्रे न भेषजँ श्येनो न रजसा हृदा श्रिया न मासरम्पयः सोमः परिस्रुता घृतम्मधु व्यन्त्वास्य होतर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। सुपेशसेति सुऽपेशसा। उषेऽइत्युषे। नक्तम्। दिवा। अश्विना। सम्। अञ्जातेऽइत्यञ्जाते। सरस्वत्या। त्विषिम्। इन्द्रे। न। भेषजम्। श्येनः। न। रजसा। हृदा। श्रिया। न। मासरम्। पयः। सोमः। परिस्रुतेति परिऽस्रुता। घृतम्। मधु। व्यन्तु। आज्यस्य। होतः। यज॥३५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 35
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    पदार्थ -
    १. (होता) = त्यागपूर्वक अदन करनेवाला व्यक्ति (सुपेशसा) = उत्तम रूप का निर्माण करनेवाली (उषे) = उष:कालों को, प्रातः तथा सायं की सन्धिभूत उषाओं को, (यक्षत्) = अपने साथ सङ्गत करता है। इन उषाओं में सूर्य अस्त हो रहा होता है तो चन्द्र उदय होता है, चन्द्र अस्त हो रहा होता है तो सूर्य का उदय हो रहा होता है। एवं, इन उष:कालों में दोनों प्रकाश होते हैं, इससे इन्हें इंग्लिश में twilight यह नाम दिया गया है। ये दोनों काल मनुष्य को यह उपदेश देते हैं कि तूने मस्तिष्क में सूर्य के समान ज्ञान से दीप्त बनना तथा मन में चन्द्र की भाँति आह्लादमय होना। २. इस होता को (अश्विना) = प्राणापान (नक्तं दिवा) = रात-दिन (सरस्वत्या) = ज्ञानाधिदेवता से (समञ्जाते) = अलंकृत करते हैं। प्राणसाधना से बुद्धि तीव्र होती है। ३. (न) = और बुद्धि की तीव्रता के द्वारा (इन्द्रे) = जितेन्द्रिय पुरुष में (त्विषिम्) = ज्ञानदीप्ति को ही (भेषजम्) = औषधरूप से करते हैं। ४. ये प्राणापान इस इन्द्र को (श्येनः न) = तीव्र गतिवाले श्येनपक्षी की भाँति (रजसा) = कर्म में [रजः कर्मणि] अलंकृत करते हैं। यह कभी अकर्मण्य नहीं होता। वासनारूप पक्षियों का शिकार करता ही रहता है। इस शिकार के लिए निरन्तर क्रियाशीलता आवश्यक है । ५. निरन्तर क्रियाशीलता के होने पर (हृदा) = हृदय से (श्रिया न) = [न=च] शोभा के साथ (मासरम्) = प्रत्येक मास में रमण की [ मासेषु रमते] वृत्ति को धारण करता है। इसका हृदय श्रीसम्पन्न व आनन्दयुक्त होता है। इसी से इसे सब मासों व ऋतुओं में आनन्द अनुभव होता है। ६. यह हृदय से श्री को धारण करनेवाला चाहता है कि (पयः) = दूध, (सोमः) = सोमरस, (परिस्स्रुता) = फलों के रस के साथ (घृतं मधु) = घी और शहद व्यन्तु मुझे प्राप्त हों।' ७. प्रभु इसे उपदेश देते हैं कि हे (होतः) = त्यागपूर्वक उपभोक्तः! तू (आज्यस्य) = घृत का (यज) = यजन कर। खा, परन्तु अग्निहोत्र अधिक कर । ,

    भावार्थ - भावार्थ - उषःकाल होता को सूर्य के समान दीप्त व चन्द्र के समान प्रसन्न बनाते हैं। प्राणापान इसे सदा सरस्वती से अलंकृत करते हैं। ज्ञानदीप्ति इनके लिए भेषज बन जाती है। यह श्येनपक्षी की भाँति क्रियाशील होता है। हृदय में श्री को धारण करता हुआ प्रत्येक ऋतु व मास में आनन्द का अनुभव करता है। यह दूध आदि उत्तम पदार्थों का ही सेवन करता है। इन पदार्थों का सेवन करता हुआ अग्निहोत्र अधिक करता है, इसीलिए इसका 'होता' नाम सार्थक होता है।

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