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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - अग्निवरुणौ देवते छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    त्वं नो॑ऽअग्ने॒ वरु॑णस्य वि॒द्वान् दे॒वस्य॒ हेडो॒ऽअव॑ यासिसीष्ठाः। यजि॑ष्ठो॒ वह्नि॑तमः॒ शोशु॑चानो॒ विश्वा॒ द्वेषा॑सि॒ प्र मु॑मुग्ध्य॒स्मत्॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। नः॒। अ॒ग्ने॒। वरु॑णस्य। वि॒द्वान्। दे॒वस्य॑। हेडः॑। अव॑। या॒सि॒सी॒ष्ठाः॒। यजि॑ष्ठः। वह्नि॑तम इति वह्नि॑ऽतमः। शोशु॑चानः। विश्वा॑। द्वेषा॑सि। प्र। मु॒मु॒ग्धि॒। अ॒स्मत्॥३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वन्नोऽअग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेडोऽअवयासिसीष्ठाः । यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषाँसि प्रमुमुग्ध्यस्मत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। नः। अग्ने। वरुणस्य। विद्वान्। देवस्य। हेडः। अव। यासिसीष्ठाः। यजिष्ठः। वह्नितम इति वह्निऽतमः। शोशुचानः। विश्वा। द्वेषासि। प्र। मुमुग्धि। अस्मत्॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 3
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    पदार्थ -
    १. हे अग्ने अग्नि के समान ज्ञान के प्रकाश से चमकनेवाले वरुणस्य (विद्वान्) = सब बुराइयों का निवारण करनेवाले, हमारे जीवनों को श्रेष्ठ बनानेवाले विद्वन्! प्रभु को जाननेवाला (त्वम्) = तू (नः) = हमसे देवस्य दिव्य गुणों के पुञ्ज, सब-कुछ देनेवाले प्रभु के (हेड:) क्रोध को (अवयासिसीष्ठाः) = दूर नष्ट कर (दसु उपक्षये) । हमारे ज्ञान देनेवाले आचार्य [क] 'अग्नि' हों-अग्नि के समान ज्ञान से प्रकाशित हों तथा [ख] उस प्रभु के जाननेवाले हों, जिस प्रभु का ज्ञान ही हमारे जीवनों को उत्तम बनाता है। ये विद्वान् ज्ञान-प्रदान द्वारा हमारे जीवनों में इस प्रकार परिवर्तन पैदा करें कि हम कभी भी 'वरुण' प्रभु के क्रोध के पात्र न हों। २. हे विद्वन्! आप (यजिष्ठ:) = अधिक-से-अधिक यज्ञ करनेवाले, देवों का आदर करनेवाले हो । (वह्नितमः) = ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञान का वहन करनेवाले हो । (शोशुचानः) = इसी कारण अपने जीवन को अत्यन्त पवित्र बनानेवाले हो। ३. आप हमें उपदेश देकर (अस्मत्) = हमसे विश्वा द्वेषांसि सब द्वेष की भावनाओं को प्रमुमुग्धि छुड़ा दीजिए ।

    भावार्थ - भावार्थ- हम पारस्परिक कलह व ईर्ष्या-द्वेष को दूर करें। परस्पर प्रेम से वर्ते तभी हम प्रभु की कृपा के पात्र होंगे।

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