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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 56
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः
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    दे॒वो दे॒वैर्वन॒स्पति॒र्हिर॑ण्यपर्णोऽअ॒श्विभ्या॒ सर॑स्वत्या सुपिप्प॒लऽइन्द्रा॑य पच्यते॒ मधु॑। ओजो॒ न जू॒ति॑र्ऋ॑ष॒भो न भामं॒ वन॒स्पति॑र्नो॒ दध॑दिन्द्रि॒याणि॑ वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वः। दे॒वैः। वन॒स्पतिः॑। हिर॑ण्यवर्ण॒ इति॒ हिर॑ण्यऽवर्णः। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। सर॑स्वत्या। सु॒पि॒प्प॒ल इति॑ सुऽपिप्प॒लः। इन्द्रा॑य। प॒च्य॒ते॒। मधु॑। ओजः॑। न। जू॒तिः। ऋ॒ष॒भः। न। भाम॑म्। वन॒स्पतिः॑। नः॒। दध॑त्। इ॒न्द्रि॒याणि॑। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवो देवैर्वनस्पतिर्हिरण्यपर्णाऽअश्विभ्याँ सरस्वत्या सुपिप्पलऽइन्द्राय पच्यते मधु । ओजो न जूतिरृषभो न भामँवनस्पतिर्ना दधदिन्द्रियाणि वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवः। देवैः। वनस्पतिः। हिरण्यवर्ण इति हिरण्यऽवर्णः। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। सरस्वत्या। सुपिप्पल इति सुऽपिप्पलः। इन्द्राय। पच्यते। मधु। ओजः। न। जूतिः। ऋषभः। न। भामम्। वनस्पतिः। नः। दधत्। इन्द्रियाणि। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। व्यन्तु। यज॥५६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 56
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    पदार्थ -
    १. यहाँ संसार को एक वृक्ष के रूप में कहा गया है। यह (वनस्पतिः) = संसारवृक्ष (देव:) = दिव्य गुणोंवाला है और हमारे सारे व्यवहार को सिद्ध करनेवाला है [दिव् व्यवहारे] । २. यह संसार वृक्ष (देवैः) = सूर्यादि सब दिव्य पदार्थों से (हिरण्यपर्ण:) = स्वर्ण के समान देदीप्यमान पत्तोंवाला है। [हिरण्य-हितरमणीय, पर्ण पृ पालनपूरणयोः] अथवा बड़े हित व रमणीय प्रकार से हमारा पालन व पूरण करनेवाला है। ३. यह (अश्विभ्याम्) = प्राणापान की साधना के साथ तथा (सरस्वत्या) = ज्ञानाधिदेवता के साथ (सुपिप्पलः) = उत्तम फलोंवाला है, अर्थात् इस संसार-वृक्ष के फलों का प्रयोग ज्ञानपूर्वक तथा प्राणापान की साधना के साथ किया जाए तो ये फल बड़े उत्तम प्रमाणित होते हैं अथवा ज्ञान व प्राणापान इस संसार - वृक्ष के उत्तम फल हैं। ४. (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिए यह (मधु) = अत्यन्त माधुर्ययुक्त फलों को (पच्यते) = परिपक्व करता है । ५. यह (ऋषभः वनस्पतिः) = अत्यन्त श्रेष्ठ वनस्पति (नः) = हममें (ओजः) = ओजस्विता को (जूतिः) = स्फूर्ति को (न) = और (भामम्) = तेजस्विता को न तथा (इन्द्रियाणि) = सब इन्द्रियों की शक्ति को दधत् धारण करता है। ६. (वसुवने) = निवासक तत्त्वों को प्राप्त करने के लिए (वसुधेयस्य व्यन्तु) = वीर्य का शरीर में व्यापन करे। ३. प्रभु कहते हैं कि हे आत्रेय ! इस सबके लिए तू (यज) = यज्ञशील हो ।

    भावार्थ - भावार्थ-यह संसार-वृक्ष सूर्यादि देवों के साथ सचमुच दिव्य गुणोंवाला है। यह प्राणापान व ज्ञानरूप उत्तम फलोंवाला है। जितेन्द्रिय पुरुष के लिए यह मधुर-ही-मधुर है। यह ओजस्विता, स्फूर्ति व तेजस्विता को देनेवाला है। हम उत्तम निवास के लिए वीर्य को शरीर में व्याप्त करें, यज्ञशील हों।

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