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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 18
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    दैव्या॒ होता॑रा भि॒षजेन्द्रे॑ण स॒युजा॑ यु॒जा।जग॑ती॒ छन्द॑ऽइन्द्रि॒यम॑न॒ड्वान् गौर्वयो॑ दधुः॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दैव्या॑। होता॑रा। भि॒षजा॑। इन्द्रे॑ण स॒युजेति॑ स॒ऽयुजा॑। यु॒जा। जग॑ती। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। अ॒न॒ड्वान्। गौः। वयः॑। द॒धुः॒ ॥१८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दैव्या होतारा भिषजेन्द्रेण सयुजा युजा । जगती छन्दऽइन्द्रियमनड्वान्गौर्वयो दधुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दैव्या। होतारा। भिषजा। इन्द्रेण सयुजेति सऽयुजा। युजा। जगती। छन्दः। इन्द्रियम्। अनड्वान्। गौः। वयः। दधुः॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 18
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    पदार्थ -
    १. 'स्वस्त्यात्रेय' के जीवन में (इन्द्रियम्) = शक्ति को तथा (वयः) - उत्कृष्ट जीवन को (दधुः) = धारण करते हैं। कौन ? २. प्रथम (दैव्या होतारा) = [ प्राणापानौ वै दैव्या होतारा - ऐ० २।४] प्राणापान जो (भिषजा) = सब व्याधियों के चिकित्सक हैं और वस्तुतः व्याधियों को आने ही न देनेवाले हैं। ३. दूसरे स्थान में इन्द्रेण (सयुजा) - आत्मा के साथ मिलकर कार्य करनेवाले (युजा) = [परस्परेण युक्तौ] परस्पर जुड़े-से हुए ये मन और बुद्धि हमारे जीवनों को उत्कृष्ट बनानेवाले हैं। इनका उत्कर्ष ही जीवन का उत्कर्ष है। ४. (जगती छन्द:) = लोकहित की प्रबल भावना भी हमें भोगमय जीवन से ऊपर उठाने में बड़ी सहायक होती है । ५. वह (गौ:) = ज्ञान की रश्मि भी हमें उत्कर्ष की ओर ले जाती है जो (अनड्वान्) = इस जीवन शकट का वहन करती है। ज्ञान की रश्मि जीवन की गाड़ी को उसी प्रकार सुन्दरता से ले चलती है जैसे बैल भार की गाड़ी को खैंच ले चलता है।

    भावार्थ - भावार्थ - १. प्राणापान जो दैव्य देव की ओर ले जानेवाले हैं तथा होतारा-सदा दानपूर्वक अदन करनेवाले हैं, सब इन्द्रियों को शक्ति देते हुए अपना कार्य करने में लगे रहते हैं । २. जीवात्मा के सदा के साथी मन व बुद्धि ३. लोकहित की प्रबल भावना ४.जीवन की गाड़ी को उत्तमता से वहन करनेवाली ज्ञानरश्मियाँ हमें सशक्त व सुन्दर जीवनवाला बनाएँ।

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