यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 5
म॒हीमू॒ षु मा॒तर॑ꣳ सुव्र॒ताना॑मृ॒तस्य॒ पत्नी॒मव॑से हुवेम।तु॒वि॒क्ष॒त्राम॒जर॑न्तीमुरू॒ची सु॒शर्मा॑ण॒मदितिꣳ सु॒प्रणी॑तिम्॥५॥
स्वर सहित पद पाठम॒हीम्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। सु। मा॒तर॑म्। सु॒व्र॒ताना॑म्। ऋ॒तस्य॑। पत्नी॑म्। अव॑से। हु॒वे॒म॒। तु॒वि॒क्ष॒त्रामिति॑ तुविऽक्ष॒त्राम्। अ॒जर॑न्तीम्। उ॒रू॒चीम्। सु॒शर्मा॑ण॒मिति॑ सु॒ऽशर्मा॑णम्। अदि॑तिम्। सु॒प्रणी॑तिम्। सु॒प्रनी॑ति॒मिति॑ सु॒ऽप्रनी॑तिम् ॥५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
महीमू षु मातरँ सुव्रतानामृतस्य पत्नीमवसे हुवेम । तुविक्षत्रामजरन्तीमुरूचीँ सुशर्माणमदितिँ सुप्रणीतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
महीम्। ऊँऽइत्यूँ। सु। मातरम्। सुव्रतानाम्। ऋतस्य। पत्नीम्। अवसे। हुवेम। तुविक्षत्रामिति तुविऽक्षत्राम्। अजरन्तीम्। उरूचीम्। सुशर्माणमिति सुऽशर्माणम्। अदितिम्। सुप्रणीतिम्। सुप्रनीतिमिति सुऽप्रनीतिम्॥५॥
विषय - वेदमाता
पदार्थ -
१. गतमन्त्र में भावना यह थी कि विद्वान् लोग ज्ञान देते हुए हमें प्रभु से सङ्गत करनेवाले हों। उस ज्ञान की प्राप्ति के लिए यह वामदेव वेदमाता की आराधना करता है और कहता है कि हम (अवसे) = रक्षण के लिए व तृप्ति के अनुभव के लिए [अवनाय तर्पणाय वा] (हुवेम) = इस वेदवाणी को पुकारते हैं, इसे प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करते हैं। उस वेदवाणी को जो २. (महीम्) = [महतीम्] महनीय है, हमारे जीवनों को महिमायुक्त करनेवाली है, (ऊ) = और ३. (सुव्रतानाम् सुमातरम्) = उत्तम व्रतों का सुन्दरता से निर्माण करनेवाली है। यह वेदवाणी हमारे जीवनों को व्रतमय जीवनवाला बनाती है। ४. (ऋतस्य पत्नीम्) = यह ऋत का, नियमपरायणता व यज्ञ का पालन करानेवाली है। इस ज्ञान की वाणी के अध्ययन के परिणामस्वरूप हम सब कार्यों में बड़े नियमित व मर्यादित हो जाते हैं और हमारा जीवन यज्ञशील होता है। ५. (तुविक्षत्राम्) = यह ज्ञान की वाणी वासनाओं के प्रबल व बहुत अधिक [तुवि] क्षतों [चोटों] से हमें बचानेवाली है। ज्ञान वासनाओं के आक्रमण के लिए ढाल के समान है । ६. (अजरन्तीम्) = [ न जीर्यति] यह ज्ञानवाणी कभी जीर्ण होनेवाली नहीं। 'पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति'। यह अपने अध्ययन करनेवाले को जीर्णता से बचानेवाली है। ७. (उरूचीम्) = [उरु अञ्च् ] यह अत्यन्त क्रियाशील है। इसका स्वाध्याय करनेवाला क्रियाशील होता है। इसी क्रिया के द्वारा ही यह (सुशर्माणम्) = उत्तम सुख को प्राप्त करानेवाली है। [शोभनं शर्म यस्याः ] ८. (अदितिम्) = जो हमारा नाश नहीं होने देती, प्रत्युत हमारे जीवन में दिव्य गुणों का निर्माण करनेवाली है । ९. (सुप्रणीतिम्) = [शोभना प्रणीतिः स्याः] इससे हमारे जीवनों का मार्ग उत्तम होता है, हमारे जीवनों का उत्तम निर्माण होता है।
भावार्थ - भावार्थ- वेदवाणी को हम अपने जीवनों की उत्तमता के लिए आराधित करते हैं।
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