यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 59
ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः
देवता - अग्न्यादयो देवताः
छन्दः - अष्टिः
स्वरः - मध्यमः
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अ॒ग्निम॒द्य होता॑रमवृणीता॒यं यज॑मानः॒ पच॒न् पक्तीः॒ पच॑न् पुरो॒डाशा॑न् ब॒ध्नन्न॒श्विभ्यां॒ छाग॒ꣳ सर॑स्वत्यै मे॒षमिन्द्रा॑यऽऋष॒भꣳ सु॒न्वन्न॒श्विभ्या॒ सर॑स्वत्या॒ऽइन्द्रा॑य सु॒त्राम्णे॑ सुरासो॒मान्॥५९॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम्। अ॒द्य। होता॑रम्। अ॒वृणी॒त॒। अ॒यम्। यज॑मानः। पच॑न्। पक्तीः॑। पच॑न्। पु॒रो॒डाशा॑न्। ब॒ध्नन्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। छाग॑म्। सर॑स्वत्यै। मे॒षम्। इन्द्रा॑य। ऋ॒ष॒भम्। सु॒न्वन्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। सर॑स्वत्यै। इन्द्रा॑य। सु॒त्राम्ण॒ इति सु॒ऽत्राम्णे॑। सु॒रा॒सो॒मानिति॑ सुराऽसो॒मान् ॥५९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निमद्य होतारमवृणीतायँयजमानः पचन्पक्तीः पचन्पुरोडाशान्बध्नन्नश्विभ्याञ्छागँ सरस्वत्यै मेषमिन्द्रायऽऋषभँ सुन्वन्नश्विभ्याँ सरस्वत्याऽइन्द्राय सुत्राम्णे सुरासोमान् ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निम्। अद्य। होतारम्। अवृणीत। अयम्। यजमानः। पचन्। पक्तीः। पचन्। पुरोडाशान्। बध्नन्। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। छागम्। सरस्वत्यै। मेषम्। इन्द्राय। ऋषभम्। सुन्वन्। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। सरस्वत्यै। इन्द्राय। सुत्राम्ण इति सुऽत्राम्णे। सुरासोमानिति सुराऽसोमान्॥५९॥
विषय - अग्नि-वरण
पदार्थ -
१. पिछले ११ मन्त्रों में अन्तिम आदेश है 'यज' तू यज्ञ करनेवाला बन। १० इन्द्रियाँ तथा ११वें मन को तू यज्ञ में लगानेवाला बन। इस आदेश का पालन करनेवाला (अयं यजमानः) = यह यज्ञ के स्वभाववाला यज्ञशील पुरुष (अद्य) = आज (होतारं अग्निम्) = सब सुखों को देनेवाले, वायुशुद्धि व रोगकृमि-संहार के द्वारा सुखी व नीरोग करनेवाले अग्नि को अवृणीत वरता है, अर्थात् नियमपूर्वक अग्निहोत्र करने का व्रत लेता है। २. उसी के लिए (पचन् पक्ती:) = नाना पाकों को पकाता है और (पुरोडाशान् पचन्) = [आत्मा वै यजमानस्य पुरोडाश:- कौ० १३१५] अपनी आत्मा का भी ठीक परिपाक करता है। शुद्ध आत्मभाव से सामग्री को तैयार करके अग्निहोत्र करता है। ३. यह (अश्विभ्याम्) = प्राणापान के लिए (छागम्) = अजमोद ओषधि का (बध्नन्) = प्रबन्ध करता है, (सरस्वत्यै) = ज्ञानाधिदेवता के लिए (मेषम्) = मेढ़ासिंगी ओषधि का प्रबन्ध करता है और (इन्द्राय) = इन्द्रियों की शक्ति के विकास के लिए (ऋषभम्) = ऋषभक ओषधि का प्रबन्ध करता है। ४. इन ओषधियों के यज्ञों की व्यवस्था के साथ-साथ यह (अश्विभ्याम्) = प्राणापान के लिए सरस्वत्यै ज्ञानाधिदेवता के लिए तथा (सुत्राम्णे इन्द्राय) = उत्तमता से अपना त्राण करनेवाले इन्द्र के लिए (सुरासोमान्) = [सुर to govern] आत्मशासन व आत्मनियन्त्रण से युक्त वीर्यकणों का (सुन्वन्) = अभिषेक व उत्पादन करता है। वस्तुतः नियन्त्रित वीर्यशक्ति के बिना 'प्राणापान-ज्ञान व आत्मशक्ति' की प्राप्ति सम्भव ही नहीं ।
भावार्थ - भावार्थ- हम यज्ञशील बनें। यज्ञ के लिए आत्मभाव को पुष्ट करें। प्राणापान-ज्ञान व आत्मशक्ति के विकास के लिए जहाँ विविध औषध- द्रव्यों की आहुति दी जाए वहाँ वीर्यकणों का संयम के द्वारा शरीर में ही व्यापन किया जाए।
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