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यजुर्वेद अध्याय - 21

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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - आदित्या देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    139

    म॒हीमू॒ षु मा॒तर॑ꣳ सुव्र॒ताना॑मृ॒तस्य॒ पत्नी॒मव॑से हुवेम।तु॒वि॒क्ष॒त्राम॒जर॑न्तीमुरू॒ची सु॒शर्मा॑ण॒मदितिꣳ सु॒प्रणी॑तिम्॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हीम्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। सु। मा॒तर॑म्। सु॒व्र॒ताना॑म्। ऋ॒तस्य॑। पत्नी॑म्। अव॑से। हु॒वे॒म॒। तु॒वि॒क्ष॒त्रामिति॑ तुविऽक्ष॒त्राम्। अ॒जर॑न्तीम्। उ॒रू॒चीम्। सु॒शर्मा॑ण॒मिति॑ सु॒ऽशर्मा॑णम्। अदि॑तिम्। सु॒प्रणी॑तिम्। सु॒प्रनी॑ति॒मिति॑ सु॒ऽप्रनी॑तिम् ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महीमू षु मातरँ सुव्रतानामृतस्य पत्नीमवसे हुवेम । तुविक्षत्रामजरन्तीमुरूचीँ सुशर्माणमदितिँ सुप्रणीतिम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    महीम्। ऊँऽइत्यूँ। सु। मातरम्। सुव्रतानाम्। ऋतस्य। पत्नीम्। अवसे। हुवेम। तुविक्षत्रामिति तुविऽक्षत्राम्। अजरन्तीम्। उरूचीम्। सुशर्माणमिति सुऽशर्माणम्। अदितिम्। सुप्रणीतिम्। सुप्रनीतिमिति सुऽप्रनीतिम्॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पृथिव्या विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यथा वयं मातरमिव सुव्रतानामृतस्य पत्नीं तुविक्षत्रामजरन्तीमुरूचीं सुशर्माणं सुप्रणीतिमु महीमदितिमवसे सुहुवेम तथा यूयमपि गृह्णीत॥५॥

    पदार्थः

    (महीम्) भूमिम् (उ) उत्तमे (सु) शोभने (मातरम्) मातरमिव वर्त्तमानाम् (सुव्रतानाम्) शोभनानि व्रतानि सत्याचरणानि येषां तेषाम् (ऋतस्य) प्राप्तसत्यस्य (पत्नीम्) स्त्रीवद्वर्त्तमानाम् (अवसे) रक्षणाद्याय (हुवेम) आदद्याम (तुविक्षत्राम्) तुविर्बहु क्षत्रं धनं यस्यां ताम् (अजरन्तीम्) वयोहानिरहिताम् (उरूचीम्) या उरूणि बहून्यञ्चति प्राप्नोति ताम् (सुशर्माणम्) शोभनानि शर्माणि गृहाणि यस्यास्ताम् (अदितिम्) अखण्डिताम् (सुप्रणीतिम्) शोभनाः प्रकृष्टा नीतयो यस्यां ताम्॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा माताऽपत्यानि पतिव्रता पतिं च पालयति तथेयं भूमिः सर्वान् रक्षति॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पृथिवी के विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जैसे हम लोग (मातरम्) माता के समान स्थित (सुव्रतानाम्) जिन के शुभ सत्याचरण हैं, उन को (ऋतस्य) प्राप्त हुए सत्य की (पत्नीम्) स्त्री के समान वर्त्तमान (तुविक्षत्राम्) बहुत धन वाली (अजरन्तीम्) जीर्णपन से रहित (उरूचीम्) बहुत पदार्थों को प्राप्त कराने हारी (सुशर्माणम्) अच्छे प्रकार के गृह से और (सुप्रणीतिम्) उत्तम नीतियों से युक्त (उ) उत्तम (अदितिम्) अखण्डित (महीम्) पृथिवी को (अवसे) रक्षा आदि के लिए (सु, हुवेम) ग्रहण करते हैं, वैसे तुम भी ग्रहण करो॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे माता सन्तानों और पतिव्रता स्त्री पति का पालन करती है, वैसे यह पृथिवी सब का पालन करती है॥५॥

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    विषय

    राजसभा और राज्यव्यवस्था की नौका के साथ तुलना कर्त्तव्यदृष्टि से उसका उत्तम स्वरूप ।

    भावार्थ

    हम लोग, ( महीम् ) बड़ी माननीय, ( सुव्रतानाम् मात -- रम् ) उत्तम व्रतों, नियमों, कर्त्तव्य आचारणों को निर्माण करने वाली एवं सदाचारवान् पुरुषों की माता के समान (ऋतस्य) सत्य व्यवस्था धर्म और न्याय के ( पत्नीम् ) पालन करने वाली (तुविक्षत्राम् ) बहुत से क्षत्र बल से युक्त, ( अजरन्तीम् ) कभी नाश न होने वाली, सदा नूतन-नूतन सभासदों से बनी, ( उरुचीम् ) विशाल राष्ट्र के शासक रूप से व्यापक ( सुशर्माणम् ) उत्तम गृह, सभाभवन में विद्यमान, उत्तम सुख देने वाली ( सुप्रणीतिम् ) उत्तम, सुखकारी नीति, राजनीतिक प्रगतियों वाली ( अदितिम् ) सदा अखण्ड शासन वाली, महासभा को (हुवेम ) स्वीकार- करें । इसी प्रकार जो उत्तम सदाचारी पुरुषों की माता (ऋत) अन्न, यज्ञ- और जीवन की मालिक वीरों से सुरक्षित सदा अजर, विस्तृत, सुखप्रद,. अखण्ड, उत्तम राष्ट्र को हम (हुवेम ) अपनावें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अदितिर्देवता । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    वेदमाता

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में भावना यह थी कि विद्वान् लोग ज्ञान देते हुए हमें प्रभु से सङ्गत करनेवाले हों। उस ज्ञान की प्राप्ति के लिए यह वामदेव वेदमाता की आराधना करता है और कहता है कि हम (अवसे) = रक्षण के लिए व तृप्ति के अनुभव के लिए [अवनाय तर्पणाय वा] (हुवेम) = इस वेदवाणी को पुकारते हैं, इसे प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करते हैं। उस वेदवाणी को जो २. (महीम्) = [महतीम्] महनीय है, हमारे जीवनों को महिमायुक्त करनेवाली है, (ऊ) = और ३. (सुव्रतानाम् सुमातरम्) = उत्तम व्रतों का सुन्दरता से निर्माण करनेवाली है। यह वेदवाणी हमारे जीवनों को व्रतमय जीवनवाला बनाती है। ४. (ऋतस्य पत्नीम्) = यह ऋत का, नियमपरायणता व यज्ञ का पालन करानेवाली है। इस ज्ञान की वाणी के अध्ययन के परिणामस्वरूप हम सब कार्यों में बड़े नियमित व मर्यादित हो जाते हैं और हमारा जीवन यज्ञशील होता है। ५. (तुविक्षत्राम्) = यह ज्ञान की वाणी वासनाओं के प्रबल व बहुत अधिक [तुवि] क्षतों [चोटों] से हमें बचानेवाली है। ज्ञान वासनाओं के आक्रमण के लिए ढाल के समान है । ६. (अजरन्तीम्) = [ न जीर्यति] यह ज्ञानवाणी कभी जीर्ण होनेवाली नहीं। 'पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति'। यह अपने अध्ययन करनेवाले को जीर्णता से बचानेवाली है। ७. (उरूचीम्) = [उरु अञ्च् ] यह अत्यन्त क्रियाशील है। इसका स्वाध्याय करनेवाला क्रियाशील होता है। इसी क्रिया के द्वारा ही यह (सुशर्माणम्) = उत्तम सुख को प्राप्त करानेवाली है। [शोभनं शर्म यस्याः ] ८. (अदितिम्) = जो हमारा नाश नहीं होने देती, प्रत्युत हमारे जीवन में दिव्य गुणों का निर्माण करनेवाली है । ९. (सुप्रणीतिम्) = [शोभना प्रणीतिः स्याः] इससे हमारे जीवनों का मार्ग उत्तम होता है, हमारे जीवनों का उत्तम निर्माण होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- वेदवाणी को हम अपने जीवनों की उत्तमता के लिए आराधित करते हैं।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माता जसे संतानाचे पालन करते व पतिव्रता स्री पतीकडे लक्ष देते, तसेच पृथ्वीही सर्वांचे पालन करते.

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    विषय

    आता पृथ्वी विषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, ज्याप्रमाणे आम्ही (कृषक, यांत्रिकजन, वैश्य आदी व्यसायी लोक) या (मातरम्‌) आईप्रमाणे असलेल्या या (भूमातेला मान देतो व तिच्यापासून लाभ घेतो, तसे सर्वांनी करावे कारण की ही भूमी) सुव्रतानाम्‌) सत्य आचरण करणाऱ्या आम्हा (व्यवसायी लोकांसाठी) (ऋतस्य) सत्य नियमांप्रमाणे (पत्नीम्‌) चालणारी म्हणजे सत्यव्रती स्त्री प्रमाणे आहे. आम्ही अशा त्या (तुविक्षत्राम्‌) अत्यंत संपत्तिशाली (जिच्या गर्भात धातू, रत्नादी विद्यमान आहेत) अशा (अजरन्तीम्‌) जी जीर्ण होत नाही (फक्त तिच्या द्रव्यादीचे रूप बदलते) आणि (उरूचीम्‌) विविध पदार्थ देणारी (सुशर्माणम्‌) जिच्या क्षेत्रावर उत्तम घरें बांधता येतात, अशी आणि (सुप्रणीतिम्‌) उत्तम नीति नियमांप्रमाणे वागणारी (उ) उत्तम (अदितिम्‌) अखंडित अशा (महीम्‌) या पृथ्वीचा आम्ही (कृषक, व्यवसायी आदी लोक) (अवसे) आपल्या रक्षणासाठी (प्रगती व वृद्धीसाठी) (सु, हुवेम) स्वीकार करतो (लाभ घेतो) त्याप्रमाणे, इतर सर्व लोकहो, तुम्हीही त्या पृथ्वीचा स्वीकार करा (भूमातेकडुन पुष्कळ लाभ घ्या.) ॥5॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जशी एक माता आपल्या मुलाबाळांचे आणि एक पतिव्रता पत्नी आपल्या पतीचे पालन करते, तद्वत ही पृथ्वी (माता) सर्वांचे (प्राणिमात्राचे) पालन करते ॥5॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    We call to protect us, this unimpaired Earth, the mother of those who stick steadfastly to their vow, the rearer of truth, full of wealth, free from decay, the giver of various objects, equipped with excellent houses and pleasurable politics.

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    Meaning

    For our protection and sustenance, we invoke and serve the great Aditi, creative power of the universe, mother of the observer of pious vows of discipline, keeper of the universal laws of truth, mighty queen of the earth, unageing, expansive, sweet shelter of all, inviolable and the generator of noble values.

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    Translation

    We invoke for protection the Earth, mother of the pious, sustainer of the truth, the great protectress, free from decay, full of attractions, granter of joys, undivided and an excellent creation. (1)

    Notes

    This is an invocation to Aditi. In legend, she is the mother ofgods, the Adityas. अखण्डिता, undivided, or indivisible; अदीना, never humiliated. She may be the Earth. अदितिरदीना देवमाता (Nir. IV. 22). Suvratānārm, शोभनानि व्रतानि आचरणानि येषां तेषां, of those, whose behaviours or actions are good; people of good conduct. Mahim, महतीं, great; vast. Also,भूमिं, the earth. Ṛtasya Patnim, सत्यनियमस्य पालयित्रीं, the protectress of the eternal law. Tuviksatrām, तुवि बहु क्षतात् त्रायते या तां, one who saves from harm in various ways, great protectress. Ajarantim, न जीर्यंतीं अजरां, free from decay; ever-young. Urūcīm, बहुव्यंजनां,full of attractions. happiness. Susarmānam, शर्म आश्रयः सुखं वा, granter of shelter or Supranitim, सुप्रणेत्रीं, good builder, moulder, or construc tor. Also, a good construction.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ পৃথিব্যা বিষয়মাহ ॥
    এখন পৃথিবীর বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যেমন আমরা (মাতরম্) মাতৃসদৃশ স্থিত (সুব্রতানাম্) যাহার শুভ সত্যাচরণ, তাহাদেরকে (ঋতস্য) প্রাপ্ত সত্যের (পত্নীম্) পত্নী সমান বর্ত্তমান (তুবিক্ষত্রাম্) বহু ধন সম্পন্না (অজরন্তীম্) জীর্ণতা হইতে রহিত (উরূচীম্) বহু পদার্থগুলির প্রাপিকা (সুশর্মাণম্) উত্তম প্রকারের গৃহ দ্বারা এবং (সুপ্রণীতিম্) উত্তম নীতি দ্বারা যুক্ত (উ) উত্তম (অদিতিম্) অখন্ডিত (মহীম্) পৃথিবীকে (অবসে) রক্ষাদি হেতু (সু, হুবেম) গ্রহণ করি সেইরূপ তোমরাও গ্রহণ কর ॥ ৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন মাতা, সন্তান ও পতিব্রতা স্ত্রী পতির পালন করে, সেইরূপ এই পৃথিবী সকলের পালন করে ॥ ৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ম॒হীমূ॒ ষু মা॒তর॑ꣳ সুব্র॒তানা॑মৃ॒তস্য॒ পত্নী॒মব॑সে হুবেম ।
    তু॒বি॒ক্ষ॒ত্রাম॒জর॑ন্তীমুরূ॒চীᳬं সু॒শর্মা॑ণ॒মদি॑তিꣳ সু॒প্রণী॑তিম্ ॥ ৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    মহীমিত্যস্য বামদেব ঋষিঃ । আদিত্যা দেবতাঃ । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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