यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 47
ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः
देवता - अश्व्यादयो देवताः
छन्दः - भुरिगाकृतिः
स्वरः - पञ्चमः
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होता॑ यक्षद॒ग्निꣳ स्वि॑ष्ट॒कृत॒मया॑ड॒ग्नि॒र॒श्विनो॒श्छाग॑स्य ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॒न्यया॒ट् सर॑स्वत्या मे॒षस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॒न्यया॒डिन्द्र॑स्यऽऋष॒भस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॒न्यया॑ड॒ग्नेः प्रि॒या धामा॒न्यया॒ट् सोम॑स्य प्रि॒या धामा॒न्यया॒डिन्द्र॑स्य सु॒त्राम्णः॑ प्रि॒या धामा॒न्यया॑ट् सवि॒तुः प्रि॒या धामा॒न्यया॒ड् वरु॑णस्य प्रि॒या धामा॒न्यया॒ड् वन॒स्पतेः॑ प्रि॒या पाथा॒स्यया॑ड् दे॒वाना॑माज्य॒पानां॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यक्ष॑द॒ग्नेर्होतुः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यक्ष॒त् स्वं म॑हि॒मान॒माय॑जता॒मेज्या॒ऽइषः॑ कृ॒णोतु॒ सोऽअ॑ध्व॒रा जा॒तवे॑दा जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑॥४७॥
स्वर सहित पद पाठहोता॑। य॒क्ष॒त्। अ॒ग्निम्। स्वि॒ष्ट॒कृत॒मिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत॑म्। अया॑ट्। अ॒ग्निः। अ॒श्विनोः॑। छाग॑स्य। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। सर॑स्वत्याः। मे॒षस्य॑। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। इन्द्र॑स्य। ऋ॒ष॒भस्य॑। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। अ॒ग्नेः। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। सोम॑स्य। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। इन्द्र॑स्य। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। स॒वि॒तुः प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। वरु॑णस्य। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। वन॒स्पतेः॑। प्रि॒या। पाथा॑सि। अया॑ट्। दे॒वाना॑म्। आ॒ज्य॒पाना॒मित्या॑ज्य॒ऽपाना॑म्। प्रि॒या। धामा॑नि। यक्ष॑त्। अ॒ग्नेः। होतुः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। य॒क्ष॒त्। स्वम्। म॒हि॒मान॑म्। आ। य॒ज॒ता॒म्। एज्या॒ इत्या॒ऽइज्याः॑। इषः॑। कृ॒णोतु॑। सः। अ॒ध्व॒रा। जा॒तवे॑दा॒ इति॑ जा॒तऽवे॑दाः। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
होता यक्षदग्निँ स्विष्टकृतमयाडग्निरश्विनोश्छागस्य हविषः प्रिया धामान्ययाट्सरस्वत्या मेषस्य हविषः प्रिया धामान्ययाडिन्द्रस्यऽऋषभस्य हविषः प्रिया धामान्ययाडग्नेः प्रिया धामान्ययाट्सोमस्य प्रिया धामान्ययाडिन्द्रस्य सुत्राम्णः प्रिया धामान्ययाट्सवितुः प्रिया धामान्ययाड्वरुणस्य प्रिया धामान्ययाड्वनस्पतेः प्रिया पाथाँस्ययाड्देवानामाज्यपानाम्प्रिया धामानि यक्षदग्नेर्हातुः प्रिया धामानि यक्षत्स्वम्महिमानमायजतामेज्याऽइषः कृणोतु सोऽअध्वरा जातवेदा जुषताँ हविर्हातर्यज ॥
स्वर रहित पद पाठ
होता। यक्षत्। अग्निम्। स्विष्टकृतमिति स्विष्टऽकृतम्। अयाट्। अग्निः। अश्विनोः। छागस्य। हविषः। प्रिया। धामानि। अयाट्। सरस्वत्याः। मेषस्य। हविषः। प्रिया। धामानि। अयाट्। इन्द्रस्य। ऋषभस्य। हविषः। प्रिया। धामानि। अयाट्। अग्नेः। प्रिया। धामानि। अयाट्। सोमस्य। प्रिया। धामानि। अयाट्। इन्द्रस्य। सुत्राम्ण इति सुऽत्राम्णः। प्रिया। धामानि। अयाट्। सवितुः प्रिया। धामानि। अयाट्। वरुणस्य। प्रिया। धामानि। अयाट्। वनस्पतेः। प्रिया। पाथासि। अयाट्। देवानाम्। आज्यपानामित्याज्यऽपानाम्। प्रिया। धामानि। यक्षत्। अग्नेः। होतुः। प्रिया। धामानि। यक्षत्। स्वम्। महिमानम्। आ। यजताम्। एज्या इत्याऽइज्याः। इषः। कृणोतु। सः। अध्वरा। जातवेदा इति जातऽवेदाः। जुषताम्। हविः। होतः। यज॥४७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे होतर्यथा होता स्विष्टकृतमग्निं यक्षद् यथाग्निरश्विनोश्छागस्य हविषः प्रिया धामान्ययाट् सरस्वत्या मेषस्य हविषः प्रिया धामान्ययाडिन्द्रस्यर्षभस्य हविषः प्रिया धामान्ययाडग्नेः प्रिया धामान्ययाट् सोमस्य प्रिया धामान्ययाट् सुत्राम्ण इन्द्रस्य प्रिया धामान्ययाट् सवितुः प्रिया धामान्ययाड् वरुणस्य प्रिया धामान्ययाड् वनस्पतेः प्रिया पाथांस्ययाडाज्यपानां देवानां प्रिया धामानि यक्षत् होतुरग्नेः प्रिया धामानि यक्षत् स्वं महिमानमायजतां यथा जातवेदा य एज्या इषः कृणोतु सोध्वरा हविश्च जुषतां तथा त्वं यज॥४७॥
पदार्थः
(होता) आदाता (यक्षत्) संगच्छेत् (अग्निम्) पावकम् (स्विष्टकृतम्) स्विष्टेन कृतं स्विष्टकृतम् (अयाट्) यजेत् (अग्निः) पावकः (अश्विनोः) वायुविद्युतोः (छागस्य) (हविषः) आदातुमर्हस्य (प्रिया) (धामानि) (अयाट्) यजेत् (सरस्वत्याः) वाण्याः (मेषस्य) (हविषः) आदातुमर्हस्य (प्रिया) (धामानि) (अयाट्) यजेत् (इन्द्रस्य) परमैश्वर्ययुक्तस्य (ऋषभस्य) उत्कृष्टगुणकर्मस्वभावस्य राज्ञः (हविषः) ग्रहीतुमर्हस्य (प्रिया) (धामानि) (अयाट्) (अग्नेः) विद्युतः (प्रिया) (धामानि) (अयाट्) (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य (प्रिया) (धामानि) (अयाट्) (इन्द्रस्य) सेनेशस्य (सुत्राम्णः) सुष्ठु रक्षकस्य (प्रिया) (धामानि) (अयाट्) (सवितुः) (प्रिया) (धामानि) (अयाट्) (वरुणस्य) सर्वोत्कृष्टस्य जलस्य वा (प्रिया) (धामानि) (अयाट्) (वनस्पतेः) वटादे (प्रिया) तर्पकाणि (पाथांसि) फलादीनि (अयाट्) (देवानाम्) विदुषाम् (आज्यपानाम्) ज्ञातव्यरक्षकाणां रसानां वा (प्रिया) (धामानि) (यक्षत्) यजेत् (अग्नेः) प्रकाशकस्य सूर्यस्य (होतुः) आदातुः (प्रिया) (धामानि) (यक्षत्) (स्वम्) स्वकीयम् (महिमानम्) महत्त्वम् (आ) समन्तात् (यजताम्) गृह्णातु (एज्याः) समन्तात् यष्टुं सङ्गन्तुं योग्याः क्रियाः (इषः) इच्छाः (कृणोतु) करोतु (सः) (अध्वरा) अहिंसनीयान् यज्ञान् (जातवेदाः) प्राप्तप्रज्ञः (जुषताम्) सेवताम् (हविः) संगन्तव्यं वस्तु (होतः) (यज)॥४७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये स्वेष्टसाधकानग्न्यादीन् सृष्टिस्थान् पदार्थान् सम्यग्विज्ञाय प्रियाणि सुखान्याप्नुवन्ति, ते स्वं महिमानं प्रथन्ते॥४७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (होतः) देने हारे! जैसे (होता) लेने हारा (स्विष्टकृतम्) भलीभांति चाहे हुए पदार्थ से प्रसिद्ध किये (अग्निम्) अग्नि को (यक्षत्) प्राप्त और (अयाट्) उस की प्रशंसा करे वा जैसे (अग्निः) प्रसिद्ध आग (अश्विनोः) पवन बिजुली (छागस्य) बकरा आदि पशु (हविषः) और लेने योग्य पदार्थ के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम को (अयाट्) प्राप्त हो वा (सरस्वत्याः) वाणी (मेषस्य) सींचने वा दूसरे के जीतने की इच्छा करने वाले प्राणी (हविषः) और ग्रहण करने योग्य पदार्थ के (प्रिया) प्यारे मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम की (अयाट्) प्रशंसा करे वा (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्त (ऋषभस्य) उत्तम गुण, कर्म और स्वभाव वाले राजा और (हविषः) ग्रहण करने योग्य पदार्थ के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम की (अयाट्) प्रशंसा करे वा (अग्नेः) बिजुली रूप अग्नि के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम की (अयाट्) प्रशंसा करे वा (सोमस्य) ऐश्वर्य्य के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम की (अयाट्) प्रशंसा करे वा (सुत्राम्णः) भलीभांति रक्षा करने वाले (इन्द्रस्य) सेनापति के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम की (अयाट्) प्रशंसा करे वा (सवितुः) समस्त ऐश्वर्य्य के उत्पन्न करने हारे उत्तम पदार्थज्ञान के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म स्थान और नाम की (अयाट्) प्रशंसा करे वा (वरुणस्य) सब से उत्तम जन और जल के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम की (अयाट्) प्रशंसा करे वा (वनस्पतेः) वट आदि वृक्षों के (प्रिया) तृप्ति कराने याले (पाथांसि) फलों को (अयाट्) प्राप्त हो वा (आज्यपानाम्) जानने योग्य पदार्थ की रक्षा करने और रस पीने वाले (देवानाम्) विद्वानों के (प्रिया) प्यारे मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम का (यक्षत्) मिलाना व सराहना करे वा (होतुः) जलादिक ग्रहण करने और (अग्नेः) प्रकाश करने वाले सूर्य्य के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम की (यक्षत्) प्रशंसा करे (स्वम्) अपने (महिमानम्) बड़प्पन का (आ, यजताम्) ग्रहण करे वा जैसे (जातवेदाः) उत्तम बुद्धि को (एज्याः) अच्छे प्रकार संग योग्य उत्तम क्रियाओं और (इषः) चाहनाओं को (कृणोतु) करे (सः) वह (अध्वरा) न छोड़ने न विनाश करने योग्य यज्ञों का और (हविः) संग करने योग्य पदार्थ का (जुषताम्) सेवन करे, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की संगति किया कर॥४७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य अपने चाहे हुए को सिद्ध करने वाले अग्नि आदि संसारस्थ पदार्थों को अच्छे प्रकार जानकर प्यारे मन से चाहे हुए सुखों को प्राप्त होते हैं, वे अपने बड़प्पन का विस्तार करते हैं॥४७॥
विषय
स्विष्टकृत् अग्नि का विवरण ।
भावार्थ
(होता) पूर्वोक्त अधिकार प्रदाता विद्वान् पुरुष ( स्विष्टकृतम् ) स्विष्टकृत्, राज्यरूप सुव्यवस्थित राष्ट्र के सञ्चालन की न्यूनाधिकता को पूर्ण करने वाले, (अग्निम् ) अग्रणी तेजस्वी, विद्वान् पुरुष को ( यक्षत् ) आदर से नियुक्त करे । वह (अग्निः) नेता, पुरुष (अश्विनोः) उक्त अश्विनाम पदाधिकारी जनों के ( छागस्य हविषः) शत्रुनाशक साधन के (प्रिया धामानि) अनुकूल पदों को (अयाट्) सुव्यवस्थित करे । वह (सरस्वत्याः मेषस्य हविषः) सरस्वती नाम विद्वत्सभा के ज्ञानप्रतिस्पर्धी नायक के (प्रिया धामानि ) प्रिय पदों को सुसंगत करे । वह (इन्द्रस्य ऋषभस्य हविषः) इन्द्र पद पर बैठे सर्वश्रेष्ठ पुरुष के प्रिय पद को ( अयाट्) सुसंगत करे । इसी प्रकार (अग्नेः, सोमस्य, सुत्राणः इन्द्रस्य, सवितुः ) अग्नि, सोम, उत्तम रक्षक सेनापति इन्द्र और सविता नाम मुख्य पदाधिकारियों के ( प्रिया धामानि अयाट्) मनोनुकूल प्रिय पदों तेजों और वीर्यों को प्राप्त करे, करावे । वह ( वनस्पते: प्रिया पथांसि अयाट् ) वनस्पति नामक अधिकारी के प्रिय, अधिकारियों को प्राप्त करावे । ( आज्यपानां देवानाम् ) युद्धोपयोगी सामग्री के रक्षक देव, विजयी पुरुषों के या ज्ञान के रक्षक विद्वानों के ( प्रिया धामानि यक्षत् ) प्रिय ( मनोनुकूल अधिकारों को प्राप्त करावे । (होतुः अग्नेः) सबके अधिकारों को प्रदान करने वाले नेता पुरुष के भी ( प्रिया धामानि यक्षत् ) मनोनुकूल प्रिय, अधिकारों को प्राप्त करावे । इस प्रकार वह 'स्विष्टकृत् ' अग्रणी नेता 'अग्नि' ( स्वम् ) अपने ( महिमानम् ) महान् सामर्थ्य को ही (आयजताम ) सबको प्रदान करे और वही (आ इज्याः) प्रदान करने योग्य (इषः) अभिलषित वेतन और अन्नादि सामग्री (कृणोतु ) उत्पन्न करता है । (सः) वह ही (जातवेदाः) समस्त ऐश्वर्यो का स्वामी होकर (अध्वरा) प्रजा का पालन करने वाले राज्यों को ( जुषताम् ) सेवन करे, प्राप्त करे । (होत: हविः यज) होत: ! तू उसको (हविः) उचित अधिकार वेतन (यज) प्रदान कर । 'स्विष्टकृतम्' — क्षत्रं वै स्विष्टकृतम् । श० १२।८।३ । १९ ॥ तपः- स्विष्टकृत् । श० ११।२।७।१९॥ अयमेवावाङ प्राणः स्विष्टकृत् श० ११।१।६।३०। वास्तु स्विष्टकृत् । श० १।७।३।१८ ॥ प्रतिष्ठा वै स्विष्टकृत् । ऐ० २।१०॥ स्विष्टम् – यद्वै यज्ञस्य न्यूनातिरिक्तं तत्स्विष्टम । श० ११।२।३।१९॥ क्षत्रं वै स्विष्टकृत् क्षत्रेणैवैनमेतदभिषिञ्चति । सोमो वै वनस्पति- रग्निः स्विष्टकृत् । अग्नीषोमाभ्यामेवैनमेतत् परिगृह्याभिषिञ्चति । तस्माद्ये चैते विदुर्ये च न, त आहुः क्षत्रियो बाव क्षत्रियस्याभिषेक्ता इति ॥ श १२।८।३।१९ ॥
टिप्पणी
१ होता॑ २ धामा॒न्यया॑ट् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भुरिगाकृतिः । २ आकृतिः । पंचमः ॥
विषय
इष्टकामधुक् [स्विष्टकृत् ] अग्नि
पदार्थ
१. (होता) = यज्ञशील पुरुष (स्विष्टकृतम्) उत्तम इष्टों को सिद्ध करनेवाले (अग्निम्) = इस यज्ञाग्नि का (यक्षत्) = अपने साथ मेल करता है, अर्थात् यज्ञ को अपने साथ जोड़ लेता है, २. सहयज्ञ बनने पर (अग्निः) = यह यज्ञाग्नि [क] (अश्विनोः) = प्राणापान के साथ सम्बद्ध (छागस्य हविषः) = अजमोद ओषधि की हवि के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेजों को (अयाट्) = हमारे साथ सङ्गत करता है [ख] (सरस्वत्या) = ज्ञानाधिदेवता से सम्बद्ध (मेषस्य हविषः) = मेढ़ासिंगी ओषधि की हवि के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेजों को (अयाट्) = हमारे साथ सङ्गत करता है। [ग] (इन्द्रस्य) = आत्मशक्ति के साथ सम्बद्ध (ऋषभस्य हविषः) = ऋषभक ओषधि की हवि के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेजों को (अयाट्) = हमारे साथ सम्बद्ध करता है। [घ] (अग्नेः प्रिया धामानि अयाट्) = अग्नितत्त्व के प्रिय तेजों को हमारे साथ सम्बद्ध करता है। [ङ] (सोमस्य प्रिया धामानि अयाट्) = सोम के प्रिय तेजों को हमारे साथ सम्बद्ध करता है। [च] (सुत्राम्णः इन्द्रस्य प्रिया धामानि अयाट्) = अपनी पूर्णरूप से रक्षा करनेवाले जितेन्द्रिय पुरुष के प्रिय तेजों को हमारे साथ सङ्गत करता है। [छ] (सवितुः प्रिया धामानि अयाट्) = यह निर्माण करनेवाले सविता के प्रिय तेजों को हमारे साथ सङ्गत करता है। [ज] निर्माण में लगाये रखकर (वरुणस्य) = द्वेष निवारण की देवता के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेजों को (अयाट्) = हमारे साथ सङ्गत करता है [ञ] यह (वनस्पतेः) = वनस्पति के (प्रिया पाथांसि) = प्रिय अन्नों को (अयाट्) = हमारे साथ सङ्गत करता है। [त्र] (आज्यपानाम्) = घृत का पान करनेवाले (देवानाम्) = दिव्य वृत्तिवाले पुरुषों के (प्रिया धामानि अयाट्) = प्रिय तेजों को हमारे साथ सङ्गत करता है। [ट] यह (होतुः) = दानपूर्वक अदन करनेवाले (अग्नेः) = प्रगतिशील पुरुष के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेजों को (यक्षत्) = हमारे साथ सङ्गत करता है। ३. इस प्रकार यज्ञाग्नि के द्वारा उल्लिखित प्रिय तेजों को प्राप्त करके मन्त्र का ऋषि 'आत्रेय' (स्वं महिमानम्) = अपनी महिमा को (यक्षत्) = अपने साथ सङ्गत करे। ४. इस महिमा को पूर्णतया प्राप्त करने के लिए (एज्या:) = आ इज्या:=समन्तात् यष्टुं योग्यं, अर्थात् सब प्रकार से अपने साथ मेल करने के योग्य (इषः) = इच्छाओं को (आयजताम्) = अपने साथ सङ्गत करे, अर्थात् सदा उत्तम इच्छाओंवाला हो । ५. (सः जातवेदा:) = यह ज्ञानी पुरुष (अध्वरा कृणोतु) = सदा हिंसारहित यज्ञों का करनेवाला हो । अहिंसा ही मूलधर्म है। इस प्रकार यज्ञिय जीवन बिताता हुआ वह (हविः जुषताम्) = त्यागपूर्वक भोजन का सेवन करें, सदा यज्ञशेष ही खाये । ६. प्रभु कहते हैं (होत:) = हे यज्ञशील पुरुष ! तूने (यज) = यजन करनेवाला होना है।
भावार्थ
भावार्थ-यज्ञाग्नि स्विष्टकृत् है। यज्ञ को अपनाकर हम सब तेजों को अपनाएँ। अपनी वास्तविक महिमा को प्राप्त करें। अहिंसा को मूलधर्म समझें ।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे इच्छित गोष्टी सिद्ध करणाऱ्या अग्नी वगैरे जगातील पदार्थांना चांगल्याप्रकारे जाणून मनोवांछित सुख प्राप्त करतात त्यांना मोठेपण प्राप्त होते.
विषय
पुढील मंत्रात तोच विषय प्रतिपादित आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (होतः) देणाऱ्या मनुष्या, ज्याप्रमाणे (होता) घेणारा माणूस (स्विष्टकृतम्) अत्यंत प्रिय वांछित वस्तू (चाहतो) तसेच इच्छित पदार्थाकरिता (अग्निम्) अग्नी (यक्षत्) प्राप्त करतो (अग्नीपासून आपले इच्छित फळ प्राप्त करतो) आणि (अयाट) त्या अग्नीची प्रशंसा करतो (तसे तूही कर) ज्याप्रमाणे (अग्निः) भौतिक अग्नी (अश्विनोः) वायू आणि विद्यूत तसेच (छागस्य) बकरा आदी पशू आणि (हविषः) ग्रहणीय पदार्थांच्या (प्रिया) प्रिय (धामानि) जन्म, स्थान आणि नाम यांना (अयाट्) प्राप्त होतो (अग्नी सर्वत्र असतो) (सरस्वस्त्याः) ज्याप्रमाणे वाणी (मेषस्य) विचार करणाऱ्या वा अन्यांवर विजय प्राप्त करण्याची इच्छा करणाऱ्या लोकांची आणि (हविषः) ग्रहणीय पदार्थांची (प्रिया) प्रिय (धामानि) जन्म, स्थान य नांव यांची (अयाट्) प्रशंसा करते (तसे तूही प्रशंसा कर) अथवा (एक घेणारा) (इन्द्रस्य) परम ऐवर्यशाली (ऋषभस्य) उत्तम, गुण, कर्म, स्वभाव असलेल्या राजाची आणि (हविषः) घेण्यास उपयुक्त वांछित पदार्थाची, त्यांच्या (प्रिया) प्रिय (धामानि) जन्म, स्थान व नांव यांची प्रशंसा करतो (तसे तूही कर आणि इच्छित वस्तू प्राप्त कर) अथवा (अग्नेः) विद्युतरूप अग्नीची, त्याच्या (प्रिया) सुंदर (धामानि) जन्म, स्थान आणि नाव यांची कोणी (अयाट्) प्रशंसा करतो, (तसे तूही कर) अथवा (सोमस्य) ऐश्वर्याच्या (प्रिया) (धामानि) प्रिय जन्म, स्थान आणि नाव यांची (जिथे धनार्जनाची भरपूर संधी आहे, अशा स्थानाची) (अयाट्) कोणी प्रशंसा करतो, (तसे तूही कर) जसे (कोणी विद्वान) (सुत्राम्णः) उत्तमप्रकारे (प्रजाजनांची रक्षा करणाऱ्या (इन्द्रस्य) सेनापतीच्या (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान व नांव यांची (अयाट्) प्रशंसा करतो (तसे तूही कर) अथवा (सवितुः) जसे कोणी ऐश्वर्योत्पादक, समृद्धीची वृद्धी करणाऱ्या श्रेष्ठ पदार्थ विज्ञानाच्या (प्रिया)(धामानि) प्रिय जन्म, स्थान व नांव यांची (अयाट्) प्रशंसा करतो (ऐश्वर्य, कुठे व कसे वाढविता येईल, याचा विचार करून तसे प्रयत्न करतो, तसे हे होता, तूही कर) अथवा (वरूणस्य) सर्वश्रेष्ठ मनुष्याची अथवा जलाची (प्रिया) (धामानि) यांच्या जन्म, स्थान व नामाची जसे कोणी (अयाट्) प्रशंसा करतो, (तसे तूही कर आणि श्रेष्ठ हो) अथवा (वनस्पतेः) वट आदी वृक्षांची (प्रिया) (पाथांसि) तृप्ती देणाऱ्या फळांची (अयाट्) प्राप्ती कर अथवा (आज्यपानाम्) ज्यांविषयी अधिक शोध वा ज्ञान प्राप्त करायचे आहे, अशा पदार्थांचा सांभाळ करणाऱ्या अथवा (वनस्पतींचे) रसपान करणाऱ्या (देवानाम्) विद्वानांच्या (प्रिया) सुंदर (धामानि) जन्म, स्तान आणि नाम यांना (यक्षत्) जो प्राप्त करतो वा त्यांची वाहवा करतो (तसे तूही कर) अथवा जसे कोणी, (होतः) जल आदीचे ग्रहण (शोषण) करणाऱ्या (अग्नेः) आणि प्रकाश देणाऱ्या सूर्याच्या (प्रिया) (धामानि) मनोहर जन्म, स्थान आणि नाम यांची (यक्षत्) पशंसा करतो (तसे तूही कर आणि तेजस्वी हो) अथवा जसे कोणी (स्वम्) आपल्या कल्याणा करिता (महिमानम्) मोठेपण (चांगल्या यत्नाने) (आ, यजताम्) प्राप्त करतो अथवा जसे (जातवेदाः) उत्तम बुद्धिमान मनुष्य (एज्याः) चांगल्या पद्धतीने, चांगल्या लोकांच्या संगतीने (इषः) चांगली इच्छा (कृणोतु) करतो आणि (सः) तो माणूस (अध्वरा) ज्याचा त्याग वा विनाश कधीही करू नये अशा यज्ञांचा आणि (हविः) संग्रहणीय पदार्थांचा (जुषताम्) योग्यप्रकारे सेवन करतो, यज्ञ करतो, त्याप्रमाणे, हे होत, (दान देणाऱ्या) तुही (यज) आपल्या सर्व व्यवहारांत संगती (वा नियमबद्धता) ठेवीत जा ॥47॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जी माणसें इच्छित उद्दिष्ट सिद्ध करणाऱ्या अग्नी आदी भौतिक पदार्थांविषयी ज्ञान संपादित करून मोठ्या आनंदित मनाने त्या प्राप्त सुखांचा उपभोग घेतात, ती माणसें आपल्यातील (सुप्त) मोठेपणाचा विस्तार करतात ॥47॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as a learned person acquires the desired fire, and just as the fire, acquires the fascinating stations of air, lightning, and healing oblations ; just as he praises the fascinating stations of oblations, speech, and persons desirous of victory ; just as he praises the fascinating positions of a dignified king possessing noble traits and oblations; just as he praises the fascinating powers of electricity ; just as he praises the fascinating powers of sovereignty ; just as he praises the charming forces of a protecting commander of the army ; just as he praises the bewildering discoveries of wealth producing science; just as he admires the places of fine water and men, and acquires the fruits of charming trees ; just as he praises the habitations of the learned who drink fruit juices and protect knowable objects ; just as he praises the majestic rays of the sun that draws water and emits light ; just as he realises his greatness ; just as a highly intellectual person cherishes noble aspirations ; performs deeds of mutual cooperation, and uninterrupted yajnas, and enjoys all useful substances so shouldst thou, O sacrificer be conversant with all dealings.
Meaning
Let the man of yajna perform yajna in honour of Agni, lord of knowledge and energy, which leads energy projects to completion and success. It is Agni which leads to the favourite haunts of the Ashvinis, pranic energies, and the goats and holy foods. It leads to the favourite haunts of Sarasvati, wisdom, and the sheep and holy foods. It leads to the favourite resorts of Indra (majesty), and the bull (power) and holy foods. It leads to the favourite haunts of Agni (energy), to the favourite haunts of Soma (peace and prosperity), to the favourite haunts of Indra, the protector, to the favourite haunts of Savita (inspiration), to the favourite haunts of Varuna (water), to the favourite haunts of the trees and their fruits, to the favourite places of the noble people of piety and protection of the sacred resources, it leads to the favourite homes of Agni, lord of cosmic yajna, it leads to its own grandeur, it creates the means of its own yajnic sacrifice and all the food and energy for life. May the glorious Agni, omniscient light of life, lead all projects of yajna to success. Man of yajna, keep on with the yajna, don’t relent.
Translation
Let the priest offer oblations to the adorable Lord, the performer of good sacrifices. The adorable Lord visits the favourite stations of the twin healers and of the goat, their offering; visits the favourite stations of the divine Doctress and of the ram, her offering; visits the favourite stations of the resplendent one and of the bull, his offering. He visits the favourite stations of the adorable Lord; visits the favourite stations of the blissful Lord; visits the favourite stations of the resplendent Lord, the good protector; visits the favourite stations of the impeller Lord; visits the favourite stations of the venerable Lord; visits the favourite stations of the Lord of the vegetation; visits the tavourite stations of the enlightened ones, who are fond of drinking purified butter. He worships the favourite stations of the fire divine, the sacrificer; He worships His own granduer. Let him procure foods suitable for the sacrifice. May He, the omniscient, bring the sacrifice to successful completion and may He rejoice with our offerings. O priest, offer oblations. (1)
Notes
Sviṣṭakṛtam, सु इष्टा कृत् , performer of good sacrifice; one that makes the sacrifice successful. Ayat,यजेत्, let him worship. Also, he visits. Havişah, of the offering. Agnerhotuḥ, of the fire divine, the sacrificer. Yakşat svam mahimānam, He worships His own grandeur. Ijyā iṣaḥ, इज्या: इष:, food suitable for sacrifice. Jātavedāḥ, omniscient. Adhvarā karatu, may bring the sacrifice to a successful end.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (হোতঃ) দাতা ! যেমন (হোতা) গ্রহীতা (স্বিষ্টকৃতম্) ভালমত আকাঙ্ক্ষিত পদার্থ দ্বারা প্রসিদ্ধ কৃত (অগ্নিম্) অগ্নিকে (য়ক্ষৎ) প্রাপ্ত এবং (অয়াট্) তাহার প্রশংসা করিবে অথবা যেমন (অগ্নিঃ) প্রসিদ্ধ অগ্নি (অশ্বিনোঃ) পবন বিদ্যুৎ (ছাগস্য) ছাগাদি পশু (হবিষঃ) এবং লইবার যোগ্য পদার্থের (প্রিয়া) মনোহর (ধামানি) জন্ম, স্থান ও নামকে (অয়াট্) প্রাপ্ত হউক অথবা (সরস্বত্যাঃ) বাণী (মেষস্য) সিঞ্চন অথবা অন্যকে জিতিবার ইচ্ছাকারী প্রাণী (হবিষঃ) এবং গ্রহণ করিবার যোগ্য পদার্থের (প্রিয়া) প্রিয় মনোহর (ধামানি) জন্ম, স্থান ও নামের (অয়াট্) প্রশংসা করিবে অথবা (ইন্দ্রস্য) পরমৈশ্বর্য্যযুক্ত (ঋষভস্য) উত্তম গুণ-কর্ম ও স্বভাবযুক্ত রাজ্য এবং (হবিষঃ) গ্রহণ করিবার যোগ্য পদার্থের (প্রিয়া) মনোহর (ধামানি) জন্ম, স্থান ও নামের (অয়াট্) প্রশংসা করিবে অথবা (অগ্নেঃ) বিদ্যুৎ রূপ অগ্নির (প্রিয়া) মনোহর (ধামানি) জন্ম, স্থান ও নামের (অয়াট্) প্রশংসা করিবে অথবা (সোমস্য) ঐশ্বর্য্যের (প্রিয়া) মনোহর (ধামানি) জন্ম, স্থান ও নামের (অয়াট্) প্রশংসা করিবে অথবা (সুত্রাম্ণঃ) ভালমত রক্ষাকারী (ইন্দ্রস্য) সেনাপতির (প্রিয়া) মনোহর (ধামানি) জন্ম, স্থান ও নামের (অয়াট্) প্রশংসা করিবে অথবা (সবিতুঃ) সমস্ত ঐশ্বর্য্য উৎপন্নকারী উত্তম পদার্থজ্ঞানের (প্রিয়া) মনোহর (ধামানি) জন্ম, স্থান ও নামের (অয়াট্) প্রশংসা করিবে অথবা (বরুণস্য) সর্বাপেক্ষা উত্তম ব্যক্তি ও জলের (প্রিয়া) মনোহর (ধামানি) জন্ম, স্থান ও নামের (অয়াট্) প্রশংসা করিবে অথবা (বনস্পতেঃ) বটাদি বৃক্ষের (প্রিয়া) তৃপ্তিকারী (পাথাংসি) ফলসমূহকে (অয়াট্) প্রাপ্ত হউক অথবা (আজ্যপানাম্) জানিবার যোগ্য পদার্থের রক্ষা করিবার এবং রস পান করিবার (দেবানাম্) বিদ্বান্দিগের (প্রিয়) প্রিয় মনোহর (ধামানি) জন্ম, স্থান ও নামের (য়ক্ষৎ) মিল বা প্রশংসা করিবে অথবা (হোতুঃ) জলাদিক গ্রহণ করিবার এবং (অগ্নেঃ) প্রকাশ করিবার কাল সূর্য্যের (প্রিয়া) মনোহর (ধামানি) জন্ম, স্থান ও নামের (য়ক্ষৎ) প্রশংসা করিবে (স্বম্) নিজের (মহিমানম্) মহিমার (আ, য়জতাম্) গ্রহণ করিবে বা যেমন (জাতবেদাঃ) উত্তম বুদ্ধিকে প্রাপ্ত যে পুরুষ (এজ্যাঃ) উত্তম প্রকার সঙ্গ যোগ্য উত্তম ক্রিয়াসকল এবং (ইষঃ) আকাঙ্ক্ষাগুলিকে (কৃণোতু) করিবে । (সঃ) সে (অধ্বরা) না ত্যাগ করিবার, না বিনাশ করিবার যোগ্য যজ্ঞের এবং (হবিঃ) সঙ্গ করিবার যোগ্য পদার্থের (জুষতাম্) সেবন করিবে, সেইরূপ তুমি (য়জ) সকল ব্যবহারের সঙ্গতি করিতে থাক ॥ ৪৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্য নিজ আকাঙ্ক্ষাকে প্রতিপন্নকারী অগ্নি আদি সংসারস্থ পদার্থগুলিকে উত্তম প্রকার জানিয়া প্রিয় মন দ্বারা আখাঙ্ক্ষিত সুখ লাভ করে তাহারা স্বীয় মহিমার বিস্তার করে ॥ ৪৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
হোতা॑ য়ক্ষদ॒গ্নিꣳ স্বি॑ষ্ট॒কৃত॒ময়া॑ড॒গ্নির॒শ্বিনো॒শ্ছাগ॑স্য হ॒বিষঃ॑ প্রি॒য়া ধামা॒ন্যয়া॒ট্ সর॑স্বত্যা মে॒ষস্য॑ হ॒বিষঃ॑ প্রি॒য়া ধামা॒ন্যয়া॒ডিন্দ্র॑স্যऽঋষ॒ভস্য॑ হ॒বিষঃ॑ প্রি॒য়া ধামা॒ন্যয়া॑ড॒গ্নেঃ প্রি॒য়া ধামা॒ন্যয়া॒ট্ সোম॑স্য প্রি॒য়া ধামা॒ন্যয়া॒ডিন্দ্র॑স্য সু॒ত্রাম্ণঃ॑ প্রি॒য়া ধামা॒ন্যয়া॑ট্ সবি॒তুঃ প্রি॒য়া ধামা॒ন্যয়া॒ড্ বর॑ুণস্য প্রি॒য়া ধামা॒ন্যয়া॒ড্ বন॒স্পতেঃ॑ প্রি॒য়া পাথা॒ᳬंস্যয়া॑ড্ দে॒বানা॑মাজ্য॒পানাং॑ প্রি॒য়া ধামা॑নি॒ য়ক্ষ॑দ॒গ্নের্হোতুঃ॑ প্রি॒য়া ধামা॑নি॒ য়ক্ষ॒ৎ স্বং ম॑হি॒মান॒মাऽ য়॑জতা॒মেজ্যা॒ऽইষঃ॑ কৃ॒ণোতু॒ সোऽঅ॑ধ্ব॒রা জা॒তবে॑দা জু॒ষতা॑ᳬं হ॒বির্হোত॒র্য়জ॑ ॥ ৪৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
হোতেত্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । অশ্ব্যাদয়ো দেবতাঃ । পূর্বস্য অয়াট্সবিতুরিত্যুত্তরস্য চ ভুরিগাকৃতী ছন্দসী । পঞ্চমৌ স্বরৌ ॥
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