यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 28
ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
64
शै॒शि॒रेण॑ऽऋ॒तुना॑ दे॒वास्त्र॑यस्त्रि॒ꣳशेऽमृता॑ स्तु॒ताः।स॒त्येन॑ रे॒वतीः॑ क्ष॒त्रꣳ ह॒विरिन्द्रे॒ वयो॑ दधुः॥२८॥
स्वर सहित पद पाठशै॒शि॒रेण॑। ऋ॒तुना॑। दे॒वाः। त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳश इति॑ त्रयःऽत्रि॒ꣳशे। अ॒मृताः॑। स्तु॒ताः। स॒त्येन॑। रे॒वतीः॑। क्ष॒त्रम्। ह॒विः। इन्द्रे॑। वयः॑। द॒धुः॒ ॥२८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शैशिरेणऽऋतुना देवास्त्रयस्त्रिँशे मृता स्तुताः । सत्येन रेवतीः क्षत्रँ हविरिन्द्रे वयो दधुः ॥
स्वर रहित पद पाठ
शैशिरेण। ऋतुना। देवाः। त्रयस्त्रिꣳश इति त्रयःऽत्रिꣳशे। अमृताः। स्तुताः। सत्येन। रेवतीः। क्षत्रम्। हविः। इन्द्रे। वयः। दधुः॥२८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! येऽमृताः स्तुताः शैशिरेणर्त्तुना देवाः सत्येन सह त्रयस्त्रिंशे विद्वांसो रेवतीरिन्द्रे हविः क्षत्रं वयश्च दधुस्तेभ्यो भूम्यादिविद्या गृह्णीत॥२८
पदार्थः
(शैशिरेण) शिशिरेण (ऋतुना) (देवाः) दिव्यगुणकर्मस्वभावाः (त्रयस्त्रिंशे) वस्वादिसमूहे (अमृताः) स्वस्वरूपेण नित्याः (स्तुताः) प्रशंसिताः (सत्येन) (रेवतीः) धनवती शत्रुसेनोल्लङ्घिकाः प्रजाः (क्षत्रम्) धनं राज्यं वा (हविः) (इन्द्रे) (वयः) (दधुः)॥२८॥
भावार्थः
ये पूर्वोक्तानष्टौ वसूनेकादश रुद्रान् द्वादशाऽऽदित्यान् विद्युतं यज्ञं चेमान् त्रयस्त्रिंशद् दिव्यान् पदार्थान् जानन्ति, तेऽक्षय्यं सुखमाप्नुवन्ति॥२८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जो (अमृताः) अपने स्वरूप से नित्य (स्तुताः) प्रशंसा के योग्य (शैशिरेण, ऋतुना) प्राप्त होने योग्य शिशिर ऋतु से (देवाः) दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव वाले (सत्येन) सत्य के साथ (त्रयस्त्रिंशे) तेंतीस वसु आदि के समुदाय में विद्वान् लोग (रेवतीः) धनयुक्त शत्रुओं की सेनाओं को कूद के जाने वाली प्रजाओं और (इन्द्रे) जीव में (हविः) देने-लेने योग्य (क्षत्रम्) धन वा राज्य और (वयः) वाञ्छित सुख को (दधुः) धारण करें, उन से पृथिवी आदि की विद्याओं का ग्रहण करो॥२८॥
भावार्थ
जो लोग पीछे कहे हुए आठ वसु, एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य, बिजुली और यज्ञ इन तेंतीस दिव्य पदार्थों को जानते हैं, वे अक्षय सुख को प्राप्त होते हैं॥२८॥
विषय
संवत्सर के ६ ऋतु भेद से यज्ञ प्रजापति और प्रजापालक राजा के ६ स्वरूपों का वर्णन ।
भावार्थ
(अमृताः देवाः) अमृत नामक देव, विद्वान् पुरुष ( शैशिरेण ऋतुना ) शिशिर ऋतु के साथ, (त्रयस्त्रिंशे ) त्रयस्त्रिंश नामक स्तोम में (स्तुत: ) वर्णित होकर ( रेवती:) रेवती साम द्वारा (सत्येन ) सत्य के बल से (इन्द्रे) राष्ट्र और राष्ट्रपति इन्द्र में या उसके निमित्त या उसके आश्रय पर ( क्षात्रम् हविः वयः दधुः) धन, अन्न और दीर्घ जीवन धारण कराते और स्वयं करते हैं । संवत्सर और यज्ञ दोनों प्रजापति के रूप हैं । राजा, आत्मा और परमात्मा भी प्रजापति है । उनके अंग प्रत्यंगों की कल्पना द्वारा राजा के अधीन अधिकारीगणों के कर्त्तव्य का निरूपण उक्त ६ मन्त्रों में किया गया है, जैसे- १ वर्ष में ६ ऋतु राजा, प्रजापति के ६ प्रकार के आधार रूप हैं । प्रथम ऋतु बसन्त, जिसके आश्रय पर लोग बसें जो बसावे बह मुख्य अधिकारी 'वसन्त' के समान है। प्रकृति, प्रजा का स्वतः राजा 'वसन्त' है । प्रजाओं को सुखपूर्वक वास देनेहारे अधिकारी 'वसु' हैं, वे पृथिवी आदि आठ वसुओं के समान प्रजाओं को शरण दें। प्राणों के समान वे प्रजा को जीवन दें, उनका मुख्य संघ " त्रिवृत्" है । त्रिवृत् स्तोम में तीन ऋचाएं हैं उसी प्रकार तीन अधिकारी हैं। उसका बल 'रथन्तर' है, रथों से देश-देशान्तर में जाते और तेज, पराक्रम से रथ सेना संग्रामों को तरते हैं । वे उस पराक्रम से ही राज्य और राजा का बल बढ़ाते हैं । के २. नेता, प्रजापति राजा का दूसरा रूप है, वह ग्रीष्म ऋतु समान है । सूर्य जैसे प्रखर हो भूभागों को तपा कर जल शोष लेता है वैसे राजा तेज से अधीन भूपतियों से ग्रहण करता है । उस कार्य में नियुक्त पुरुष 'रुद्र' देव हैं । उनको देखकर जमींदार लोग रोते हैं। ये भी शरीर मैं भूख प्यास लगाने वाले तीव्र प्राणों के समान होने से भी रुद्र हैं । जैसे शरीर में दस अंग और पांच प्राण हैं उसी प्रकार राष्ट्र में उनके १५ अधिकारियों की स्थिति है । उनका 'यश', वीर्य और ख्याति अंग में बृहत् साम के समान है । ३. वर्षा ऋतु प्रजापति का तीसरा रूप है । उसका कार्य मेघ के -समान संगृहीत ऐश्वर्य को प्रजा के हित पुन: प्रजा पर बरसा देना है । यह कार्य 'आदित्य' नामक अधिकारियों का है। उनकी स्थिति सूर्य में किरणों के समान है। उनका वर्णन 'सप्तदश' स्तोम से है अर्थात् दश इन्द्रियां, पंच प्राण, आत्मा और मन इन १७ के समान ये राष्ट्रशरीर में कार्य करते हैं । उनका पराक्रम नाना रूप से प्रकाशित होने से यज्ञ में वैराज साम के समान है । वे प्रजा की सम्पत्ति और बल बढ़ाते हैं । ४. प्रजापति का तीसरा रूप 'शरद् ऋतु' है । वह वर्षा काल के मेघों को छिन्न-भिन्न कर आकाश को स्वच्छ करता, चन्द्र को निर्मल करता, अन्न और फलों की वृद्धि करता और जलों को स्वच्छ करता है उसी प्रकार राजा प्रजा के शत्रुओं को दूर करता, संकट हटाता, अन्नादि सम्पदा -बढ़ाता, सबको प्रसन्न करता है । ये अधिकारी 'ऋतु देव' हैं । 'ऋत' सत्य से प्रकाशित होना, ज्ञान-विज्ञान- कौशल से प्रजा को सुखी करना, उनका कर्त्तव्य है । इस वर्ग में न्यायाधीश, विद्वान्, शिल्पी, वैज्ञानिक हैं । ये 'एकविंशस्तोम' से वर्णित हैं । यज्ञ में २१ ऋचा वाले स्तोम के समान शरीर में हाथ पांवों की दश दश अंगुली एवं २१ वां आत्मा, इनके समान नये-नये पदार्थों को प्राप्त करते हैं और राष्ट्र को उत्तम मार्ग में चलाते हैं । उनकी तुलना वैराज साम से है। वे श्री, शिल्प, कौशल से राज्य और राज कार्य में शोभा करते और अव, ऐश्वर्य और दीर्घजीवन प्रदान करते हैं । ५. प्रजापति का पाचवां स्वरूप 'हेमन्त ऋतु' है । वह तीव्र शीत से प्राणियों को कष्ट देता, जलों को असह्य शीतल कर देता है, नदियों को "संकुचित करता है । उसी प्रकार राजा दुष्टों को तीव्र दण्डों से दण्डित कर उनको संकुचित करता है, प्रजाओं पर वश करता है । मरुद्गण, देव हैं । वे दुष्टों को दमन करने वाले वायु के समान वेगवान् सैन्य हैं। उनका स्तोम 'त्रिनव' है । शरीर में हाथ पांव के अंग २० अंगुलियां, पांच प्राण,मन और आत्मा के समान राष्ट्र के २७ अंग हैं। यज्ञ में शक्कर साम के समान उनका स्वरूप ‘शक्करी' अर्थात् शक्तिमती सेनाएं हैं, वे बल से ही शक्तिमती होने से 'शक्करी' हैं । वे शत्रु को पराजयकारी 'सहः' और वीर्यं और राष्ट्र के दीर्घजीवन को धारण करते हैं । ६. प्रजापति का ६ टा रूप शिशिर ऋतु है । शिशिर पतझड़ घर के वृक्षों में नया रस सेचन करता है नये पत्र और नये पुष्प खिलाने के निमित्त रस उत्पन्न करता है । उसी प्रकार प्रजा में नवीन साहस, नवीन शक्ति, नवीन ऐश्वर्य संचारित करने वाला राजा शिशिर के समान है । उसके अधीन कार्यकर्त्ता 'अमृत देव' हैं । वे प्रजा में जलों के समान अमर जीवन प्रदान करते हैं । उनकी स्थिति यज्ञ में त्रयस्त्रिंश स्तोम के समान है। शरीर में पञ्च स्थूल भूत, पंच तन्मात्रा, पंच कर्मेन्द्रिय, चार अन्तः- करण, जीव, शिर, २ हाथ, २ जाघें, १ उदर, २उरः स्थल ये अंग हैं। उसी प्रकार वे भी राष्ट्र-शरीर के स्थूल, सूक्ष्म विभागों के घटक,अंग हैं। वे ऐश्वर्यवान् होने से 'रेवतीः' कहाती हैं । वे यज्ञ में रैवत् साम के समान हैं। वे राष्ट्र में 'क्षत्र' धन अन्न, वीर्य, दीर्घायु धारण कराते हैं । सभी मुख्य, गौण अधिकारी राजा के प्रतिनिधि हैं और राजा सब का आत्मा के समान है । गुणभेद से 'वसन्त' आदि राजा के रूप होकर भी भिन्न-भिन्न विभागों के प्रधान पदाधिकारियों के भी ये नाम हैं। उनके भिन्न-भिन्न कर्त्तव्य वर्ष में ऋतुओं के अनुसार और शरीर में अंगों के अनुसार जानने चाहिये । विशेष संगति देखो । अ० १० मं० १०, १४ ॥ भ० ९ । ३४ ॥ अ०११ । ५८, ६०, ६५ ॥ वसन्तादि ऋतुओं के विशेष रहस्य देखो अ० १३ । मं० ५४-५८ ॥ तथा अ० १३ । मं० २५ ॥ तथा अ० १४ । मं० ६, १५, २७, ५७ ॥ वसु आदि के कर्त्तव्यों के विषय में अ० १४ । मं० २५ ॥ स्तोमों के स्वरूप देखो अ० १४।२८-३१॥
विषय
अमृता देवाः
पदार्थ
१. (इन्द्रे) = [इन्दवे द्रवति] परमैश्वर्य की प्राप्ति के लिए गति करनेवाले इन्द्र में (क्षत्रम्) = क्षतों से त्राण करनेवाले बल को (हविः) = त्यागपूर्वक अदन को तथा (वयः) = उत्कृष्ट जीवन को (दधुः) = धारण करते हैं। कौन ? २. (अमृताः देवा:) - विषय-वासनाओं के पीछे न मरनेवाले और अतएव रोगों से आक्रान्त न होनेवाले देव । जो देव ३. (शैशिरेण ऋतुना) = [शम्नातेर्वा शृणातेर्वा - नि० २।१९ ] सब वासनाओं को शीर्ण करके शान्ति प्राप्त करके अपने जीवन में शिशिरऋतु को ला पाये हैं। ४. इस वासना की शीर्णता व शान्ति के कारण ही (त्रयस्त्रिंशे स्तुताः) = ये तेतीस दिव्य गुणों के निमित्त स्तुत हुए हैं। इनके मस्तिष्करूप द्युलोक, हृदयरूप अन्तरिक्षलोक तथा शरीररूप पृथिवीलोक में ग्यारह - ग्यारह करके तेतीस देवों का निवास हुआ है और इस प्रकार इनका यह शरीर सचमुच 'देवानां पू: 'देवनगरी बन गया है । ५. ये अमृतदेव इस संसार में (सत्येन रेवती:) = सत्य से रयिधनवाले हुए हैं। ये सदा सत्यमार्ग से धन का अर्जन करते हैं- 'रेवती' होते हैं, वैदिक भाषा में 'रैवतपृष्ठ' से स्तुत होते हैं। इनका आधार निर्धनतावाला नहीं होता। इस धन के साथ सत्य को जोड़ने से ही वस्तुतः ये संसार में अमृत बने हैं।
भावार्थ
भावार्थ - अमृतदेव वे हैं जो वासनाओं को शीर्ण करके शान्ति धारण से अपने जीवन में शिशिर ऋतु को लाये हैं, तेतीस दिव्य गुणों को धारण करनेवाले बने हैं और जिन्होंने सत्य से धन का अर्जन किया है।
मराठी (2)
भावार्थ
जे लोक पूर्वी कथन केल्याप्रमाणे आठ वसू, अकरा रुद्र, बारा आदित्य, विद्युत व यज्ञ या तेहतीस दिव्य पदार्थांना जाणतात ते चिरकाल सुख प्राप्त करतात.
विषय
त्याच विषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, जे (अमृताः) आपल्या आत्मरूपाने नित्य (वा अमर) आहेत, असे (स्तुताः) (देवाः) दिव्य गुण, कर्म स्वभाव असलेले विद्वान (स्तुतः) प्रशंसनीय असून (शैशिरेण, ऋतुना) हितकारी शिशिर ऋतूत (सत्येन) सत्य (भाषण आणि व्यवहार करीत) (वांछित सुख प्राप्त करतात, तसे तुम्हीही करा) तसेच (त्रयस्त्रिंशे) वसु आदी तैतीस दिव्य पदार्थांद्वारा (रेवतीः) धनवान आणि शत्रुसैन्यावर चाल करून जाणाऱ्या शूरवीर प्रजाजनांसह (इन्द्रे) आपल्या आत्म्यात (हविः) देण्या-घेण्यास योग्य (क्षत्रम्) असे धन वा राज्य आणि (वयः) वांछित सुख (दधुः) धारण करतात, त्या विद्वानांकडून, हे मनुष्यांनो, तुम्हीही पृथ्वी आदीच्या विषयी विद्या जाणून घ्या आणि त्यांपासून लाभ घ्या ॥28॥
भावार्थ
भावार्थ - मागे वर्णित जे आठ वसु, अकरा रूद्र, बारा आदित्य, विद्युत आणि यज्ञ हे तेहतीस पदार्थ आहेत, त्या दिव्य पदार्थांविषयी जे लोक पूर्ण ज्ञानी असतात, ते अक्षय सुख अवश्य प्राप्त करतात ॥28॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O men acquire knowledge of material objects from those immortal, laudable learned persons, who in Dew-time, possessing the knowledge of thirty-three gods, with the force of truth and strength of subjects that overcome the armies of wealthy foes, give power, sacrifice, and pleasure to the soul.
Meaning
Immortal powers of exceptional brilliance and generosity celebrated in thirty three fold stoma with revati verses, in unison with the cool and dewy season, create, with truth and full faith, health and age, means of good living, and a powerful social order for the mastermind and vest all these in Indra, the mighty soul.
Translation
In the Frosty season, may the immortal bounties of Nature, praised with the Trayastrimsa Stomas and with the Revatr Samans, bestow truth, ruling power, supplies and long life on the aspirant. (1)
Notes
Kşatram, will and power for defending the weak.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যাহা (অমৃতাঃ) স্বীয় স্বরূপে নিত্য (স্তুতাঃ) প্রশংসার যোগ্য (শৈশিরেণ, ঋতুনা) প্রাপ্ত হওয়ার যোগ্য শিশির ঋতু দ্বারা (দেবাঃ) দিব্য গুণ কর্ম স্বভাব যুক্ত (সত্যেন) সত্য সহ (ত্রয়স্ত্রিংশে) তেত্রিশ বসু ইত্যাদির সমুদায়ে বিদ্বান্গণ (রেবতীঃ) ধনবতী শত্রুসেনোল্লঙ্ঘিকা প্রজা এবং (ইন্দ্রে) জীবে (হবিঃ) দেওয়া-নেওয়ার যোগ্য (ক্ষত্রম্) ধন বা রাজ্য এবং (বয়ঃ) বাঞ্ছিত সুখকে (দধুঃ) ধারণ করিবে, তাহাদিগের হইতে পৃথিবী আদির বিদ্যা সমূহের গ্রহণ কর ॥ ২৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যাহারা পশ্চাৎ কথিত অষ্ট বসু, একাদশ রুদ্র, দ্বাদশ আদিত্য, বিদ্যুৎ ও যজ্ঞ এই তেত্রিশ দিব্য পদার্থকে জানে, তাহারা অক্ষয়সুখকে প্রাপ্ত হয় ॥ ২৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
শৈ॒শি॒রেণ॑ऽঋ॒তুনা॑ দে॒বাস্ত্র॑য়স্ত্রি॒ꣳশে᳕ऽমৃতা॑ স্তু॒তাঃ ।
স॒ত্যেন॑ রে॒বতীঃ॑ ক্ষ॒ত্রꣳ হ॒বিরিন্দ্রে॒ বয়ো॑ দধুঃ ॥ ২৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
শৈশিরেণেত্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । ভুরিগনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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