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यजुर्वेद अध्याय - 21

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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 48
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - सरस्वत्यादयो देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    69

    दे॒वं ब॒र्हिः सर॑स्वती सुदे॒वमिन्द्रे॑ऽअ॒श्विना॑।तेजो॒ न चक्षु॑र॒क्ष्योर्ब॒र्हिषा॑ दधुरिन्द्रि॒यं वसु॒॑वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥४८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वम्। ब॒र्हिः। सर॑स्वती। सु॒दे॒वमिति॑ सुऽदे॒वम्। इन्द्रे॑। अ॒श्विना॑। तेजः॑। न। चक्षुः॑। अ॒क्ष्योः᳖। ब॒र्हिषा॑। द॒धुः॒। इ॒न्द्रि॒यम्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥४८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवम्बर्हिः सरस्वती सुदेवमिन्द्रे अश्विना । तेजो न चक्षुरक्ष्योर्बर्हिषा दधुरिन्द्रियँवसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवम्। बर्हिः। सरस्वती। सुदेवमिति सुऽदेवम्। इन्द्रे। अश्विना। तेजः। न। चक्षुः। अक्ष्योः। बर्हिषा। दधुः। इन्द्रियम्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। व्यन्तु। यज॥४८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 48
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वांसः कथं वर्त्तेरन्नित्याह॥

    अन्वयः

    हे विद्वन्! यथा सरस्वतीन्द्रे देवं सुदेवं बर्हिरश्विना चक्षुस्तेजो न यज यथा च विद्वांसो वसुधेयस्य वसुवनेऽक्ष्योर्बर्हिषेन्द्रियं दधुर्व्यन्तु च तथैतत् त्वं धेहि प्राप्नुहि च॥४८॥

    पदार्थः

    (देवम्) दिव्यम् (बर्हिः) अन्तरिक्षम् (सरस्वती) प्रशस्तविज्ञानयुक्ता स्त्री (सुदेवम्) शोभनं विद्वांसम् (इन्द्रे) परमैश्वर्य्ये (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (तेजः) (न) इव (चक्षुः) नेत्रम् (अक्ष्योः) अक्ष्णोः (बर्हिषा) अन्तरिक्षेण (दधुः) (इन्द्रियम्) धनम् (वसुवने) धनप्रापणाय (वसुधेयस्य) वसुधेयं यस्मिंस्तस्य (व्यन्तु) प्राप्नुवन्तु (यज) यजते॥४८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्याः! यथा विदुषी ब्रह्मचारिणी कुमारी स्वार्थं हृद्यं पतिं प्राप्यानन्दति तथा विद्यासृष्टिपदार्थबोधं प्राप्य भवद्भिरप्यानन्दितव्यम्॥४८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वान् कैसे अपना वर्त्ताव वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन्! जैसे (सरस्वती) प्रशंसित विज्ञानयुक्त स्त्री (इन्द्रे) परमैश्वर्य के निमित्त (देवम्) दिव्य (सुदेवम्) सुन्दर विद्वान् पति की (बर्हिः) अन्तरिक्ष (अश्विना) पढ़ाने और उपदेश करने वाले तथा (चक्षुः) आंख के (तेजः) तेज के (न) समान (यज) प्रशंसा वा संगति करती है और जैसे विद्वान् जन (वसुधेयस्य) जिस में धन धारण करने योग्य हो, उस व्यवहार सम्बन्धी (वसुवने) धन की प्राप्ति कराने के लिए (अक्ष्योः) आंखों के (बर्हिषा) अन्तरिक्ष अवकाश से अर्थात् दृष्टि से देख के (इन्द्रियम्) उक्त धन को (दधुः) धारण करते और (व्यन्तु) प्राप्त होते हैं, वैसे इसको तू धारण कर॥४८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो! जैसे विदुषी ब्रह्मचारिणी कुमारी कन्या अपने लिए मनोहर पति को पाकर आनन्द करती है, वैसे विद्या और संसार के पदार्थ का बोध पाकर तुम लोगों को भी आनन्दित होना चाहिए॥४८॥

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    विषय

    उक्त अधिकारियों के स्थान, मान, पद और उनका ऐश्वर्यवृद्धि का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    (सरस्वती) उत्तम बल वीर्य और ज्ञानवती स्त्री जिस प्रकार ( देवम् ) अपने कामना योग्य पति को (बर्हिः) आसन, प्रदान करती है। उसी प्रकार (सरस्वती) विद्वत् सभा (सुदेवम् ) उत्तम राजा को (बर्हिः) बृहत् राष्ट्र, प्रजा पर शासन पद प्रदान करे । (अश्विनौ) सूर्य और चन्द्र जिस प्रकार (अक्ष्योः चक्षुः न) दोनों आंखों को दर्शन शक्ति प्रदान करते हैं उसी प्रकार (अश्विनौ) उक्त मुख्य विद्वान् 'अश्वि' अधिकारी दोनों (इन्द्रे) ऐश्वर्यवान् राजा में (तेजः इन्द्रियं दधतुः) तेज और ऐश्वर्य प्रदान करें। और दो अश्वी और सरस्वती तीनों मिलकर (इन्द्रे) राजा और राष्ट्र में (बर्हिषा) इस प्रजामय राष्ट्र पद या प्रजागण द्वारा ही (वसुधेयस्य) - ऐश्वर्य धन समृद्धि के कोष के योग्य धन को (वसुवने ) धन समृद्धि प्राप्त करने वाले राजा के लिये स्वयं (व्यन्तु) प्राप्त करें । हे (होतः) अधिकार-: प्रदातः ! तू (यज) उनको वह अधिकार प्रदान कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सरस्वत्यादयो देवताः । त्रिष्टुप् धैवतः ॥

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    विषय

    आँखों की तेजस्विता

    पदार्थ

    १. (सरस्वती) = ज्ञान की अधिदेवता (देवम्) = दिव्य गुणोंवाले (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदय को धारण करती है, अर्थात् ज्ञान से मनुष्य का हृदय दिव्य व वासनारहित होता है। २. (अश्विना) = प्राणापान (इन्द्रे) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जितेन्द्रिय पुरुष में (सुदेवम्) = उस सर्वोत्कृष्ट देव प्रभु को स्थापित करते हैं, अर्थात् प्राणापान की साधना से चित्तवृत्ति निर्मल होकर प्रभु दर्शन के योग्य बन जाती है। ३. इस साधक की (अक्ष्यो:) = आँखों में (तेज:) = तेजस्विता होती है (न) = और (चक्षुः) = दर्शनशक्ति होती है। इसकी आँखों से तेज टपकता है । ४. सरस्वती तथा (अश्विनौ) = ज्ञानाधिदेवता तथा प्राणापान इसके अन्दर (बर्हिषा) = वासनाशून्य हृदय के साथ (इन्द्रियम्) = इन्द्रियों की शक्ति को (दधुः) = धारण करते हैं । ५. (वसुवने) = [वसुवननाय] निवासक तत्त्वों की प्राप्ति के लिए (वसुधेयस्य) = [ वसुधेयं यस्मिन् - द०] सब निवासक तत्त्वों के आधारभूत सोम = [वीर्य] का (व्यन्तु) = पान करें। वीर्य को शरीर में ही व्याप्त करने से सब वसुओं की शरीर में स्थिति होती है। ६. प्रभु मन्त्र के ऋषि 'स्वस्त्यात्रेय' से कहते हैं कि इस सबको सिद्ध करने के लिए तू यज- यज्ञशील बन। देवपूजा के द्वारा ज्ञान प्राप्त कर, विद्वानों के सङ्ग व दान की वृत्ति से तू अपने हृदय को वासनाशून्य बना।

    भावार्थ

    भावार्थ - १. ज्ञान से मन दिव्य व वासनाशून्य बनता है। २. प्राणापान की साधना हृदय को एकाग्र करके प्रभु-दर्शन के योग्य बनाती है। ३. इस साधक की आँखें तेजस्वी व दर्शनशक्ति - सम्पन्न होती हैं । ४. वासनाशून्य हृदय के साथ इसकी सब इन्द्रियाँ सशक्त होती हैं । ५. वीर्यरक्षा से निवासक तत्त्वों का उपचय होता है। ६. इस सबके लिए हमें यज्ञशील बनना चाहिए।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जशी विदुषी ब्रह्मचारिणी कुमारी कन्या स्वतःसाठी सुंदर पती प्राप्त करून आनंदी होते. तसे विद्या व जगातील पदार्थांचा बोध करून घेऊन तुम्हीही आनंदित व्हा.

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    विषय

    आता विद्वानांनी कसे वागावे, या विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान, (सरस्वती) एक प्रशंसनीया विज्ञानवती स्त्री (इन्दद्र) परम ऐवर्य प्राप्त करण्यासाठी (देवम्‌) दिव्य (सुदेवम्‌) गुणवान विद्वान पतीची (कामना करते) (ती कामना कशी असते?) (बर्हिः) अंतरिक्ष (अश्विना) अध्यापक आणि उपदेशक तसेच (चक्षुः) नेत्राचे (तेजः) (न) तेज (यांच्यासारखी तीव्र आणि वांछनीय असते) याशिवाय ज्याप्रमाणे विद्वज्जन (वसुधेयस्य) धनप्राप्ती करण्यासाठी (अक्ष्योः) डोळ्यांनी (बर्हिषा) अंतरिक्षात वा अवकाशात पाडून (म्हणजे नीट) प्रामाणिकपणे परीक्षा करून (ते धन कपट, द्वेषादीद्वारे कमावलेले तर नाही ना, हे नीट पाहून (दधुः) ते धन धारण करतात आणि (व्यन्तु) ते प्राप्त करून (दुर्व्यवहारात व्यय न करता) सांभाळून ठेवतात. हे विद्वान, आपणही या (नैतिक वा शुद्ध) मार्गाने धन अर्जित करा आणि व्यय करा. ॥48॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा आणि वाचकलुप्तोपमा हे दोन अलंकार आहेत. हे मनुष्यांनो, जसे एक विदुषी ब्रह्मचारिणी कुमारी कन्या मनोहर विद्वान पतीला प्राप्त करून (अनुकूल व मनासारखा पती मिळाल्यावर) प्रसन्न होते, तसे विद्या प्राप्त करून आणि भौतिक आवश्यक पदार्थ प्राप्त करून तुम्ही सर्व जणांनी आनंदित व्हायला पाहिजे. ॥48॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person just as a highly intellectual wife praises her noble, educated husband, the space and the teacher and preacher, like brilliance of the eyes and just as educated persons, for the acquisition of wealth, use devices to accumulate riches, acquire and possess wealth testing it with the sight of their eyes, so shouldst thou acquire and possess it.

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    Meaning

    Sarasvati, lady of light and knowledge, offers the seat of honour on the yajna vedi to Indra, noble and brilliant master of the home. The Ashvinis, powers of health and wealth, create the light of the eyes as well as the lustre and splendour of life and vest these in Indra. For the blessed man the powers of divinity create wealth with all the resources of nature and bestow it on the yajnic man of prosperity. Man of yajna, keep on with the yajna.

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    Translation

    The divine and the right divine Barhis, the divine Doctress and the twin healers give to the aspirant the lustre and vision in his eyes, and through the Barhis, they give him manly vigour. Аt the time of distribution of wealth, may they obtain store of wealth (for us). Offer oblations. (1)

    Notes

    Devam sudevam barhiḥ, the sacred grass or the sacrifice is divine and right divine. Na, न There means Indriyamn, strength. Tejo na cakṣuḥ, lustre and vision. Vasuvane, वसुवननाय, at the time of distribution of wealth. Vasudheyasya vyantu, may obtain store of wealth (for us).

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ বিদ্বাংসঃ কথং বর্ত্তেরন্নিত্যাহ ॥
    এখন বিদ্বান্ কীরকম স্বীয় ব্যবহার করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বিদ্বান্ ! যেমন (সরস্বতী) প্রশংসিত বিজ্ঞানযুক্ত নারী (ইন্দ্রে) পরমৈশ্বর্য্যের নিমিত্ত (দেবম্) দিব্য (সুদেবম্) সুন্দর বিদ্বান্ পতির (বর্হিঃ) অন্তরিক্ষ (অশ্বিনা) অধ্যাপনা ও উপদেশকারী তথা (চক্ষুঃ) চোখের (তেজঃ) তেজের (ন) সমান (য়জ) প্রশংসা বা সংগতি করে এবং যেমন বিদ্বান্ ব্যক্তি (বসুধেয়স্য) যাহাতে ধন ধারণ করিবার যোগ্য হয় তৎ ব্যবহারসম্বন্ধীয় (বসুবনে) ধনের প্রাপ্তি করাইবার জন্য (অক্ষ্যোঃ) চক্ষুর (বর্হিষা) অন্তরিক্ষ অবকাশ দ্বারা অর্থাৎ দৃষ্টি দ্বারা দেখিয়া (ইন্দ্রিয়ম্) উক্ত ধনকে (দধুঃ) ধারণ করে এবং (ব্যন্তু) প্রাপ্ত হয়, সেইরূপ ইহাকে তুমি ধারণ কর ॥ ৪৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমা ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ ! যেমন বিদুষী ব্রহ্মচারিণী কুমারী কন্যা নিজের জন্য মনোহর পতিকে লাভ করিয়া আনন্দ করে সেইরূপ বিদ্যা ও সংসারের পদার্থের বোধ পাইয়া তোমাদিগেরও আনন্দিত হওয়া উচিত ॥ ৪৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দে॒বং ব॒র্হিঃ সর॑স্বতী সুদে॒বমিন্দ্রে॑ऽঅ॒শ্বিনা॑ । তেজো॒ ন চক্ষু॑র॒ক্ষ্যো᳖র্ব॒র্হিষা॑ দধুরিন্দ্রি॒য়ং ব॑সু॒বনে॑ বসু॒ধেয়॑স্য ব্যন্তু॒ য়জ॑ ॥ ৪৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দেবং বর্হিরিত্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । সরস্বত্যাদয়ো দেবতাঃ । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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