Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 21

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 46
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - कृतिः स्वरः - षड्जः
    62

    होता॑ यक्ष॒द् वन॒स्पति॑म॒भि हि पि॒ष्टत॑मया॒ रभि॑ष्ठया रश॒नयाधि॑त। यत्रा॒श्विनो॒श्छाग॑स्य ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ सर॑स्वत्या मे॒षस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रेन्द्र॑स्यऽऋष॒भस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रा॒ग्नेः प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ सोम॑स्य प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रेन्द्र॑स्य सु॒त्राम्णः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॑ सवि॒तुः प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ वरु॑णस्य प्रि॒या धामा॑नि यत्र॒ वन॒स्पतेः॑ प्रि॒या पाथा॑सि॒ यत्र॑ दे॒वाना॑माज्य॒पानां॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रा॒ग्नेर्होतुः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ तत्रै॒तान् प्र॒स्तुत्ये॑वोप॒स्तुत्ये॑वो॒पाव॑स्रक्ष॒द् रभी॑यसऽइव कृ॒त्वी कर॑दे॒वं दे॒वो वन॒स्पति॑र्जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑॥४६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। वन॒स्पति॑म्। अ॒भि। हि। पि॒ष्टत॑म॒येति॑ पि॒ष्टऽत॑मया। रभि॑ष्ठया। र॒श॒नया॑। अधि॑त। यत्र॑। अ॒श्विनोः॑। छाग॑स्य। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। सर॑स्वत्याः। मे॒षस्य॑। ह॒विषः। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। इन्द्र॑स्य। ऋ॒ष॒भस्य॑। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। अ॒ग्नेः। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। सोम॑स्य। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। इन्द्र॑स्य। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। स॒वि॒तुः। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। वरु॑णस्य। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। वन॒स्पतेः॑। प्रि॒या। पाथा॑ꣳसि। यत्र॑। दे॒वाना॑म्। आ॒ज्य॒पाना॒मित्या॑ज्य॒ऽपाना॑म्। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। अ॒ग्नेः। होतुः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। तत्र॑। ए॒तान्। प्र॒स्तुत्ये॒वेति॑ प्र॒ऽस्तुत्य॑ऽइव। उ॒प॒स्तुत्ये॒वेत्यु॑प॒ऽस्तुत्य॑इव। उपाव॑स्रक्ष॒दित्यु॑प॒ऽअव॑स्रक्षत्। रभी॑यसऽइ॒वेति॒ रभी॑यसःइव। कृ॒त्वी। कर॑त्। ए॒वम्। देवः॑। वन॒स्पतिः॑। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षद्वनस्पतिमभि हि पिष्टतमया रभिष्टया रशनयाधित । यत्राश्विनोश्छागस्य हविषः प्रिया धामानि यत्र सरस्वत्या मेषस्य हविषः प्रिया धामानि यत्रेन्द्रस्य ऋषभस्य हविषः प्रिया धामानि यत्राग्नेः प्रिया धामानि यत्र सोमस्य प्रिया धामानि यत्रेन्द्रस्य सुत्राम्णः प्रिया धामानि यत्र सवितुः प्रिया धामानि यत्र वरुणस्य प्रिया धामानि यत्र वनस्पतेः प्रिया पाथाँसि यत्र देवानामाज्यपानाम्प्रिया धामानि यत्राग्नेर्हातुः प्रिया धामानि तत्रैतान्प्रस्तुत्येवोपस्तुत्येवोपावस्रक्षद्रभीयसऽइव कृत्वी करदेवन्देवो वनस्पतिर्जुषताँ हविर्हातर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। वनस्पतिम्। अभि। हि। पिष्टतमयेति पिष्टऽतमया। रभिष्ठया। रशनया। अधित। यत्र। अश्विनोः। छागस्य। हविषः। प्रिया। धामानि। यत्र। सरस्वत्याः। मेषस्य। हविषः। प्रिया। धामानि। यत्र। इन्द्रस्य। ऋषभस्य। हविषः। प्रिया। धामानि। यत्र। अग्नेः। प्रिया। धामानि। यत्र। सोमस्य। प्रिया। धामानि। यत्र। इन्द्रस्य। सुत्राम्ण इति सुऽत्राम्णः। प्रिया। धामानि। यत्र। सवितुः। प्रिया। धामानि। यत्र। वरुणस्य। प्रिया। धामानि। यत्र। वनस्पतेः। प्रिया। पाथाꣳसि। यत्र। देवानाम्। आज्यपानामित्याज्यऽपानाम्। प्रिया। धामानि। यत्र। अग्नेः। होतुः। प्रिया। धामानि। तत्र। एतान्। प्रस्तुत्येवेति प्रऽस्तुत्यऽइव। उपस्तुत्येवेत्युपऽस्तुत्यइव। उपावस्रक्षदित्युपऽअवस्रक्षत्। रभीयसऽइवेति रभीयसःइव। कृत्वी। करत्। एवम्। देवः। वनस्पतिः। जुषताम्। हविः। होतः। यज॥४६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 46
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे होतर्यथा होता पिष्ठतमया रभिष्ठया रशनया यत्राऽश्विनोश्छागस्य हविषः प्रिया धामानि यत्र सरस्वत्या मेषस्य हविषः प्रिया धामानि यत्रेन्द्रस्यर्षभस्य हविषः प्रिया धामानि यत्राग्नेः प्रिया धामानि यत्र सोमस्य प्रिया धामानि यत्र सुत्राम्ण इन्द्रस्य प्रिया धामानि यत्र सवितुः प्रिया धामानि यत्र वरुणस्य प्रिया धामानि यत्र वनस्पतेः प्रिया पाथांसि यत्राज्यपानां देवानां प्रिया धामानि यत्र होतुरग्नेः प्रियाधामानि सन्ति तत्रैतान् प्रस्तुत्येवोपस्तुत्येवोपावस्रक्षद् रभीयस इव कृत्वी कार्य्येषूपयुञ्जीतैवं करद्यथा वनस्पतिर्देवो हविर्जुषतां हि वनस्पतिमभियक्षदधित तथा त्वं यज॥४६॥

    पदार्थः

    (होता) आदाता (यक्षत्) (वनस्पतिम्) वटादिकम् (अभि) (हि) किल (पिष्टतमया) (रभिष्ठया) (रशनया) रश्मिना (अधित) दध्यात् (यत्र) (अश्विनोः) सूर्य्याचन्द्रमसोः (छागस्य) छेदकस्य (हविषः) दातुमर्हस्य (प्रिया) कमनीयानि (धामानि) जन्मस्थाननामानि (यत्र) (सरस्वत्याः) नद्याः सरस्वतीति नदीनामसु पठितम्॥ निघं॰१।१३॥ (मेषस्य) अवेः (हविषः) आदातुमर्हस्य (प्रिया) (धामानि) (यत्र) (इन्द्रस्य) ऐश्वर्ययुक्तस्य (ऋषभस्य) प्राप्तुं योग्यस्य (हविषः) दातुं योग्यस्य (प्रिया) (धामानि) (यत्र) (अग्नेः) पावकस्य (प्रिया) (धामानि) (यत्र) (सोमस्य) ओषधिगणस्य (प्रिया) (धामानि) (यत्र) (इन्द्रस्य) ऐश्वर्ययुक्तस्य (सुत्राम्णः) सुष्ठु रक्षकस्य (प्रिया) (धामानि) (यत्र) (सवितुः) प्रेरकस्य (प्रिया) (धामानि) (यत्र) (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (प्रिया) (धामानि) (वनस्पतेः) वटादेः (प्रिया) (पाथांसि) अन्नानि (यत्र) (देवानाम्) पृथिव्यादीनां दिव्यानाम् (आज्यपानाम्) गत्या पालकानाम् (प्रिया) (धामानि) (यत्र) (अग्नेः) विद्यया प्रकाशमानस्य (होतुः) दातुः (प्रिया) (धामानि) (तत्र) (एतान्) (प्रस्तुत्येव) प्रकरणेन संश्लाघ्येव (उपस्तुत्येव) समीपेन स्तुत्येव (उपावस्रक्षत्) उपावसृजेत् (रभीयस इव) अतिशयेनारब्धस्येव (कृत्वी) कृत्वा (करत्) कुर्यात् (एवम्) (देवः) दिव्यगुणः (वनस्पतिः) रश्मिपालकोऽग्निः (जुषताम्) सेवताम् (हविः) संस्कृतमन्नादिकम् (होतः) (यज)॥४६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यदि मनुष्या ईश्वरेण सृष्टानां पदार्थानां गुणकर्मस्वभावान् विदित्वैतान् कार्य्यसिद्धये प्रयुञ्जीरँस्तर्हि स्वेष्टानि सुखानि लभेरन्॥४६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (होतः) देनेहारे! जैसे (होता) लेने हारा सत्पुरुष (पिष्टतमया) अति पिसी हुई (रभिष्ठया) अत्यन्त शीघ्रता से बढ़नेवाली वा जिस का बहुत प्रकार से प्रारम्भ होता है, उस वस्तु और (रशनया) रश्मि के साथ (यत्र) जहां (अश्विनोः) सूर्य्य और चन्द्रमा के सम्बन्ध से पालित (छागस्य) घास को छेदने-खाने हारे बकरा आदि पशु और (हविषः) देने योग्य पदार्थ सम्बन्धी (प्रिया) मनोहर (धामानि) उत्पन्न होने-ठहरने की जगह और नाम वा (यत्र) जहां (सरस्वत्याः) नदी (मेषस्य) मेंढ़ा और (हविषः) ग्रहण करने पदार्थ-सम्बन्धी (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम वा (यत्र) जहां (इन्द्रस्य) ऐश्वर्ययुक्त जन के (ऋषभस्य) प्राप्त होने और (हविषः) देने योग्य पदार्थ के (प्रिया) प्यारे मन के हरने वाले (धामानि) जन्म, स्थान और नाम वा (यत्र) जहां (अग्नेः) प्रसिद्ध और बिजुलीरूप अग्नि के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म स्थान और नाम वा (यत्र) जहां (सोमस्य) ओषधियों के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम वा (यत्र) जहां (सुत्राम्णः) भलीभांति रक्षा करने वाले (इन्द्रस्य) ऐश्वर्ययुक्त उत्तम पुरुष के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम वा (यत्र) जहां (सवितुः) सब को प्रेरणा देने हारे पवन के (प्रिया) मनोहर (धामानि) उत्पन्न होने-ठहरने की जगह और नाम वा (यत्र) जहां (वरुणस्य) श्रेष्ठ पदार्थ के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म, स्थान और नाम वा (यत्र) जहां (वनस्पतेः) वट आदि वृक्षों के (प्रिया) उत्तम (पाथांसि) अन्न अर्थात् उन के पीने के जल वा (यत्र) जहां (आज्यपानाम्) गति अर्थात् अपनी कक्षा में घूमने से जीवों के पालने वाले (देवानाम्) पृथिवी आदि दिव्य लोकों का (प्रिया) उत्तम (धामानि) उत्पन्न होना उनके ठहरने की जगह और नाम वा (यत्र) जहां (होतुः) उत्तम सुख देने और (अग्नेः) विद्या से प्रकाशमान होने हारे अग्नि के (प्रिया) मनोहर (धामानि) जन्म स्थान और नाम हैं, (तत्र) वहां (एतान्) इन उक्त पदार्थों की (प्रस्तुत्येव) प्रकरण से अर्थात् समय-समय से चाहना सी कर और (उपस्तुत्येव) उनकी समीप प्रशंसा सी करके (उपावस्रक्षत्) उनको गुण-कर्म-स्वभाव से यथायोग्य कामों में उपार्जन करे अर्थात् उक्त पदार्थों का संचय करे (रभीयस इव) बहुत प्रकार से अतीव आरम्भ के समान (कृत्वी) करके कार्य्यों के उपयोग में लावे (एवम्) और उस प्रकार (करत्) उनका व्यवहार करे वा जैसे (वनस्पतिः) सूर्य आदि लोकों की किरणों की पालना करने हारा और (देवः) दिव्यगुणयुक्त अग्नि (हविः) संस्कार किये अर्थात् उत्तमता से बनाये हुए पदार्थ का (जुषताम्) सेवन करे और (हि) निश्चय से (वनस्पतिम्) वट आदि वृक्षों को (अभि, यक्षत्) सब ओर से पहुंचे अर्थात् बिजुली रूप से प्राप्त हो और (अधित) उनका धारण करे, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की संगति किया कर॥४६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य ईश्वर के उत्पन्न किये हुए पदार्थों के गुण, कर्म और स्वभावों को जान कर इन को कार्य की सिद्धि के लिए भलीभांति युक्त करें तो वे अपने चाहे हुए सुखों को प्राप्त होवें॥४६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अधिकारदान, उनके सहायकों के कर्तव्य । महीधर आदि के किये बकरे की बलिपरक अर्थ का सप्रमाण खण्डन । सरस्वती नाम विद्वत्सभा को अधिकार, उसके सहायकों का कर्तव्य । छाग, मेष, ऋषभ और उनके हवि, मद, तथा उनके पार्श्व, कटि, प्रजनन आदि अंगों के अवदान करने का रहस्य ।

    भावार्थ

    (होता) योग्य पदाधिकारों का दाता 'होता' नामक विद्वान्, (वनस्पतिम् ) वनस्पति, महावृक्ष के समान अपने आश्रितों के पालक, उच्च पदाधिकारी को (यक्षत् ) नियुक्त करे और जिस प्रकार (पिष्टतमया ) अत्यन्त कूट कूट कर बनाये सूतों से बनी और (रभिष्टया और खूब दृढ़ता से बांधने वाली, मजबूत, ( रशनया ) रस्सी से पशु को बांधते हैं, उसी प्रकार उस मुख्य प्रजापालक सर्वाश्रय राजा को भी खूब ( पिष्टतमया ) अधिक कुटी पिसी, अति सुविचार और विवेक, तर्कद्वारा निर्धारित और (रभिष्ठया) अति दृढ़ता से बांधने वाली ( रशनया ) अतिव्यापक राजनियम व्यवस्था से राजा और अधीन पदाधिकारियों को ( हि अभि-अधित ) निश्चय से बांधे । उनको कहां नियुक्त करे ? ( यत्र ) जिस स्थान पर (अश्विनो: छागस्य) पूर्वोक्त व्यापक, राष्ट्र के अधिकारी मुख्य दो पुरुषों के अधीन दुष्टों के छेदन करने वाले शूर पुरुष को ( हविषः) देने योग्य पदाधिकार (प्रियाणि) अति प्रिय, मन के अनुकूल, हितकर (धामनि) स्थान, या पद हों उनपर और (यंत्र सरस्वत्याः) जहां सरस्वती नाम विद्वत्सभा के ऊपर (मेपस्य) नियुक्त अतिविद्वान्, ज्ञानी पुरुष के ( प्रिया धामानि ) मनोनुकूल पद हों, और ( यत्र इन्द्रस्य ऋषभस्य ) जहां ऐश्वर्यवान् श्रेष्ठ पुरुष सभापति के (प्रिया धामानि ) मनोनुकूल पद हों और ( यत्र अग्नेः प्रिया धामानि ) जहां अग्रणी नायक, विद्वान् आचार्य आदि के अधीन अनुकूल पद हों, इसी प्रकार ( यत्र सोमस्य ) सोम, सर्व प्रेरक राजा के ( सुत्राण: इन्द्रस्य ) उत्तम पालक, शत्रुनाशक इन्द्र के ( सवितुः ) सर्वप्रेरक एवं उत्पादक सविता के ( वरुणस्य ) सर्व कष्टों के वारक, दुष्टों के नाशक,सबके वरणीय पुरुष के, ( वनस्पतेः ) वट आदि के समान प्रजा के आश्रयरूप पुरुष के और (यन्त्र) जहां ( आज्यपानाम् ) विजय साधन शस्त्रास्त्रों के पालक, (देवानाम् ) विजयशील पुरुषों के और ( यत्र अग्नेः होतुः) जहां सब विज्ञानों के प्रकाशक, सबके अधिकार दाता होता के ( प्रिया धामानि) उन-उन अधिकारियों के मनोनुकूल पद और ( प्रिया पाथांसि ) प्रिय, अन्नादि द्रव्य या पालन करने योग्य सेवा हों ( तत्र ) उन २ स्थानों पर ( एतान् ) इन २ नाना पदाधिकार योग्य २ पुरुषों को (प्रत्युत इव) स्वयं सबके समक्ष आदरपूर्वक उनको प्रस्तुत कर २ के, या प्रस्ताव करके और (उपस्तुत्य च ) उनके सम्बम्ध में उत्तम परिचय कराकर (उप अव अस्रक्षत् ) उन २ मुख्य पदाधिकारियों के अधीन स्थापित करे और उनको भी (रभीयसः इव) खूब नियम में प्रबद्ध, एवं कार्यकुशल (कृत्वी) बना कर स्वयं - (वनस्पतिः ) आश्रय वृक्ष के समान- सर्वाश्रयदाता, वनस्पति नामक पद पर स्थित मुख्य पुरुष (करद्) अपने राष्ट्र में नियुक्त करे । ( एवं ) इस प्रकार (देव: वनस्पतिः) विजीगीषु राजा, या सबको अधिकार देनेवाला, (वनस्पतिः) सर्वाश्रय, मुख्य पदाधिकारी ( हविः जुषताम् ) ग्रहण करने योग्य पद और राष्ट्र को स्वीकार कर । हे (होत: यज) होत: ! तू उसको यह पद प्रदान कर । किसी व्यक्ति को पदाधिकार देने के पूर्व उसका परिचय और गुण स्तुति आवश्यक है । उसी को वेद 'प्रस्तुत्य, उपस्तुत्य' कहता है । प्रथम 'प्रस्ताव' हो, उसके पश्चात् "उपस्ताव' या समर्थन हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भुरिगभिकृतिद्वयम् । ऋषभः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वनस्पति + रशना [वानस्पतिक भोजन व दृढ़निश्चय]

    पदार्थ

    १. (होता) = त्यागशील पुरुष (वनस्पतिम्) = वनस्पति को (यक्षत्) = अपने साथ सङ्गत करता है। यह सदा वानस्पतिक भोजन ही करता है। २. इस वानस्पतिक भोजन के साथ यह (हि) = निश्चय से (रशनया) = रशना से, मेखला से दृढ़निश्चय की प्रतीकभूत इस तगड़ी [Gridle] से अपने को (अभ्यधित) = धारण करता है, अर्थात् दृढ़ निश्चय करता है। यह मेखला कैसी है? [क] (पिष्टतमया) = [ अत्यन्त पिष्ट, सुरूपा पिष्टम् - म०] यह जीवन को अत्यन्त सुरूप बनानेवाली है तथा (रभिष्ठया) = काम-क्रोधादि पशुओं का अत्यन्त नियमन करनेवाली है [रभते पशून् नियमयति-म० ] और [समर्थया] अत्यन्त शक्तिशाली बनानेवाली है। वस्तुतः दृढनिश्चय कर लेने पर यह अपने जीवन को अत्यन्त सुन्दर व सामर्थ्यसम्पन्न बना पाता है। ३. यह वानस्पतिक भोजन तथा मेखला वह है (यत्र) = जहाँ [क] (अश्विनो:) = प्राणापान के (छागस्य हविष:) = अजमोद ओषधि की हवि के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेज हैं, अर्थात् वानस्पतिक भोजन व दृढ़निश्चय के साथ जब इस अजमोद ओषधि का हविरूप में प्रयोग होता है तब प्राणापान की शक्ति को खूब बढ़ानेवाली होती है। [ख] (यत्र) = जहाँ (सरस्वत्याः) = ज्ञानाधिदेवता के साथ सम्बद्ध (मेषस्य हविषः) = मेढ़ासिंगी ओषधि की हवि के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेज हैं [ग] (यत्र) = जहाँ (इन्द्रस्य) = आत्मशक्ति सम्पन्न जितेन्द्रिय पुरुष के साथ सम्बद्ध (ऋषभस्य हविषः) = ऋषभक ओषधि की हवि के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेज हैं। [घ] (यत्र) = जहाँ (अग्नेः प्रिया धामानि) = अग्नितत्त्व के प्रिय तेज हैं, अर्थात् ये वानस्पतिक भोजन व दृढ़निश्चय मनुष्य को अग्नि के समान तेजस्वी बनाते हैं। [ङ] (यत्र) = जहाँ (सोमस्य प्रिया धामानि) = सोम के प्रिय तेज हैं, अर्थात् यह जहाँ अग्नि के समान तेजस्वी होता है वहाँ सोम के समान शान्त होता है [ सोम-चन्द्रमा] । [च] (यत्र) = जहाँ (सुत्राम्णः इन्द्रस्य) = रोगों से अपने को पूर्णरूप से रक्षित करनेवाले जितेन्द्रिय पुरुष के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेज हैं, अर्थात् इनके होने पर मनुष्य नीरोग व जितेन्द्रिय बनता है। [छ] (यत्र) = जहाँ (सवितुः) = उत्पादक के प्रिया धामानि प्रिय तेज हैं, अर्थात् वानस्पतिक भोजन व दृढ़निश्चय मनुष्य को निर्माणात्मक कामों में लगनेवाला बनाता है। [ज] (यत्र) = जहाँ (वरुणस्य) = द्वेष-निवारण की देवता के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेज हैं, अर्थात् वानस्पतिक भोजन व दृढनिश्चय मनुष्य को द्वेष से ऊपर उठा देते हैं। [झ] (यत्र) = जहाँ (वनस्पतेः) = वनस्पति के (प्रिया पाथांसि) = प्रिय अन्न हैं, जो अन्न शरीर के पूर्णतया रक्षक हैं। [ञ] (यत्र) = जहाँ (आज्यपानाम्) = घृत का पान करनेवाले (देवानाम्) = दिव्य वृत्तिवाले पुरुषों के प्रिया धामानि प्रिय तेज हैं, अर्थात् वनस्पति भोजन करनेवाला दृढनिश्चयी पुरुष आज्य का पान करनेवाले देवों के समान बनता है। [त] (यत्र) = जहाँ (होतुः अग्नेः) = दानपूर्वक अदन करनेवाले प्रगतिशील पुरुष के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेज हैं। ४. (तत्र) = वहाँ अर्थात् उस वनस्पति व मेखला में, अर्थात् इनके होने पर (एतान्) = इन 'छाग- मेष व ऋषभ' को (प्रस्तुत्य इव) = अग्निकुण्ड में प्रस्तुत-सा करके, अर्थात् प्राप्त कराके उपस्तुत्य इव अग्नि द्वारा सूक्ष्म कणों के रूप में अपने समीप प्राप्त कराके (रभीयसः इव कृत्वी) = बड़ा शक्तिशाली बनाकर (उपावस्त्रक्षत्) = अपने समीप, अपने शरीर में स्थापित करे [ स्थापयतु - म० ] । ५. यह (देवः वनस्पतिः) = दिव्य गुणोंवाला वनस्पति (एवं करत्) = ऐसा ही करे, अर्थात् हमारे जीवन को उल्लिखित तेजों से युक्त करे। ६. इसके लिए होता को चाहिए कि (हविः जुषताम्) = वह हवि का सेवन करनेवाला बने। प्रभु कहते हैं कि (होत:) = हे यज्ञशील पुरुष ! तू (यज) = यज्ञ करनेवाला बन ।

    भावार्थ

    भावार्थ-जीवन को सुन्दर व सामर्थ्यसम्पन्न बनाने के लिए आवश्यक है कि वानस्पतिक भोजन का अङ्गीकार करें और दृढ़निश्चयी बनें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे ईश्वराने निर्माण केलेल्या पदार्थांचे गुण, कर्म, स्वभाव जाणून कार्यसिद्धीसाठी ते व्यवहारात आणतात त्यांनी इच्छित सुख प्राप्त होते.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पुनश्च, पुढील मंत्रात तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (होतः) देणाऱ्या (वा यज्ञात आहुती देणाऱ्या मनुष्या) ज्याप्रमाणे (होता) घेणारा कोणी सत्पुरूष (रभिष्ठया) शीघ्र वाढणाऱ्या अथवा जी अनेक रूपात उगवते अशा (पिष्टतमया) अत्यंत बारीक पिसलेल्या (अश्विनौः) सूर्य आणि चंद्राद्वारे पालित आणि त्यांच्या (रशनया) किरणांनी वाढणाऱ्या (वनस्पतीला) (छागस्य) गवत खाणारे बकरा (शेळी) आदी पशू (हविषः) खातात वा त्यांना (प्रिया) आवडणाऱ्या (धामानि) अन्य वनस्पती उगवणारी (धामानि) जी स्थानें वा प्रदेश) आहेत, (तिथे ते जातात. तसेच हे होता, तूही तशा स्वास्थ्यकर प्रदेशात जा) (यत्र) तसेच जेथे (सरस्वत्याः) नदी वा (नदीय प्रदेश आहेत, जिथे (मेषस्थ) एडक्याचे (हविषः) आवडते खाद्य-गवत आदी पदार्थ उगवतात, त्या (प्रिया) मनोहारी (धामिनि) जन्म, स्थान आणि नाम (यांची माहिती घे वा इच्छा कर) तसेच (यत्र) जिथे (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यशाली जनांसाठी (ऋषभस्य) प्राप्तव्य आणि (हविषः) दातव्य पदार्थ आहेत, अशा (प्रिया) मनहर (धामिनि) जन्म, स्थान आणि नाम (प्राप्त करण्यासाठी प्रयत्न कर) (यत्र) जिथे (अग्नेः) भौतिक अग्नी आणि विद्युत रूप अग्नीचे (प्रिया) मनोहर धामानि) जन्म, स्थान व नाम (आहेत, जिथे अग्नी व विद्युतपासून योग्य उपयोग घेतात, अशा प्रदेशात वास्तव्य कर) तसेच (यत्र) जेथे (सोमस्य) औषधीचे (प्रिया) सुंदर (धामानि) उत्पत्ती, नाम आणि स्थानें आहेत (त्या स्थानांची इच्छा कर) तसेच (यत्र) जेथे (सुत्राम्णः) उत्तमप्रकारे रक्षा करणारे (इन्द्रस्य) ऐश्वर्ययुक्त श्रेष्ठ पुरुष (राजा वा राजपुरूष) आहेत, अशा (प्रिया) प्रिय (धामानि) जन्म घेण्याची, त्या स्थानाची व श्रेष्ठ नाम (प्राप्त करण्याची इच्छा कर) तसेच (यत्र) जेथे (सवितुः) सर्वांना प्रेरणा देणाऱ्या पवनाचे (प्रिया) मनोहर (धामानि) उत्पत्ती, स्थान व नाम आहेत (ज्या प्रदेशात सुखकर वारे वाहतात, त्या प्रदेशाची कामना कर) (यत्र) जेथे (वरूणस्य) श्रेष्ठ पदार्थांचे (प्रिया) मनोहर धामानि) उत्पत्ती, स्थान व नाम आहेत, तसेच (यत्र) जिथे (वनस्पतेः) वट आदी वृक्षांसाठी सिंचन वा जगण्याकरिता (प्रिया) छत्तम (पाथांसि) पाणी आहे (अशा भरपूर जल असलेल्या प्रदेशात राहण्याची इच्छा कर) (यत्र) जेथे (आज्यपानाम्‌) गतिमान म्हणजे आपल्या कक्षेत फिरणाऱ्या आणि प्राण्यांचे पालन करणाऱ्या (देवानाम्‌) पृथ्वी आदी दिव्य लोकांचे (प्रिया) उत्तम (धामानि) उत्पत्ती, स्थान व नाम (आहे, त्या अवकाशात तू विहार कर) (यत्र) जेथे (होतुः) उत्तम सुख देणाऱ्या (अग्नेः) अग्निविद्येमुळे प्रकाशमान होणाऱ्या अग्नीचे (प्रिया) प्रिय (धामानि) जन्म, स्थान व नाम आहे (तत्र) त्या ठिकाणी (एतान्‌) उपर्युक्त सर्व पदार्थांची (प्रस्तुत्येव) वेळेवर वा प्रसंगाप्रमाणे तू इच्छा कर. आणि (उपस्तुत्येव) त्या वस्तूंची प्रशंसा करून, (त्यांचे गुण ओळखून) (उपावस्त्रक्षत्‌) त्यांच्या गुण, कर्म आणि स्वभावाप्रमाणे त्या पदार्थांचा योग्य कार्यात उपयोग कर आणि त्या पदार्थांचा संग्रह कर (रभीयस इव) या संग्रहाचा घाई करून (कृत्वी) उपयुक्त कार्यांसाठी वापर कर, आणि (एवम्‌) अशा प्रकारे (करत्‌) त्या पदार्थांपासून लाभ तसेच ज्याप्रमाणे (वनस्पतिः) सूर्य आदी लोकांच्या किरणांचे पालन करणारा (सूर्याच्या किरणांत उष्णता व प्रकाश या रूपात असणाऱ्या) देवः) दिव्यगुणवान अग्नी (हविः) संस्कारित म्हणजे उत्तमरीत्या तयार केलेल्या पदार्थांचे (जुषताम्‌) सेवन करतो (अग्नी आहुत पदार्थ खाऊन टाकतो) आणि तोच अग्नी (हि) निश्चयाने (वनस्पतिम्‌) वट आदी वृक्षांना (अभि, यक्षत्‌) सर्व दिशांनी व्याप्त करतो म्हणजे वनस्पतीच्या भोवती विद्युतरूपाने व्याप्त असतो आणि त्यांचे (अधित) धारण-पालन करतो, त्या अग्नीद्वारा, हे होता, तुही सर्व व्यवहार पूर्ण करीत जा ॥46॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जे लोक ईश्वराने उत्पन्न केलेल्या पदार्थांचे (अग्नी, जल, वनस्पती आदी) पदार्थांच्या गुण, कर्म, स्वभावांचे संपूर्ण ज्ञान मिळवून आपल्या कार्यपूर्तीसाठी त्या पदार्थांचा यथोचितपणे उपयोग करतात, ते आपल्या इच्छित कामना पूर्ण करू शकतात. ॥46॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    A learned person performs deeds with his excellent, speedy power of commencement. Where the cattle eat the grass nourished by the Sun and Moon, where oblations reach fascinating places, where there are streams for rams to roam about, and where oblations reach fascinating stations, where there are found dignified persons, and oblations reach fascinating places, where there are good stations of fire and electricity, where there grow efficacious medicines in good places, where abide excellent people, the protectors of humanity, where there arise and blow charming and attractive zephyrs, where there are the birth places of great men, where there are fruits of trees, where the planets revolve in their orbits and afford protection to the souls in their beautiful stations, where there are the abodes of learned persons who spread knowledge and give us comforts; there shouldst thou praise these substances at opportune times, and having praised them from near, mike their fullest use according to their merits, attributes and nature. Making their collection, thou shouldst use them in practical works, like undertakings begun in right earnest. Just as fire the fosterer of suns rays enjoys oblations, and reaches the trees and protects them, so shouldst thou O sacrificer be conversant with all dealings.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Let the man of yajna perform the yajna in honour of the lord of forests for love of the forests, herbs and trees. Let him, with the finest, strongest and most inviolable protective zone fence the forest: which is the favourite haunt of the Ashvinis and goats and home of yajnic food; which is lovely resort of Sarasvati and the sheep and the source of holy food; which is the awful seat of Indra and the bull and the giver of sacred food; where abound the favourite resorts of Agni, Soma, the protector Indra, Savita and Varuna; where the grand old banyan grows and finds his food; where the noble lovers of divinity seek their nectar in their holy places; where the lord of yajna, Agni, loves to shine and act. And the brilliant man of yajna out there, strongest and most enthusiastic of his mission, may offer songs of inauguration and songs of valediction in his yajna of protection and extension of the forests and these resorts and thereby serve the holy lord of nature and partake of the yajnic gifts. Man of yajna, perform the yajna, don’t relent. 47. (Ashvinis etc. Devata, Svastyatreya Rshi)

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Let the priest offer oblations to the Lord of vegetation, wearing a beautiful and very strong girdle. There where the favourite stations of the twin healers as well as of the goat, their offering, are; where the favourite stations of the divine Doctress as well as of the ram, her offering, are; where the favourite stations of the resplendent one as well as of the bull, his offering, are; where the favourite stations of the adorable Lord are; where the favourite stations of the blissful Lord are; where the favourite stations of the resplendent Lord, the good protector, are; where the favourite stations of the impeller Lord аге; where the favourite stations of the venerable Lord are; where the favourite places of the Lord of vegetation are; where the favourite stations of the enlightened ones, fond of drinking purified butter, are; where the favourite stations of the fire divine, the sacrificer, are; there let him present them praising and lauding, making them quick and strong. May the Lord of vegetation arrange thus and rejoice with our offerings. О priest, offer oblations. (1)

    Notes

    Piṣṭatamaya, पिष्टा सुरूपा, with the most beautiful. Rabhişthayā, रभते नियच्छति या , with that which binds fast; very strong. Rasanayā, with the belt; girdle. Adhitaḥ, धारितवान् one who wears. Priyāḥ dhämāni, प्रियाणि स्थानानि, favourite stations or places. Priyāḥ pāthāṁsi, favourite places or favourite foods. Prastutya iva upastutya iva, इव means च here; praising and lauding. Upāvasraksat, उपावसृजतु स्थापयतु, let him present or put there. Rabhiyasaḥ iva kṛtví, quick and strong. इव for च ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (হোতঃ) দাতা ! যেমন (হোতা) গ্রহণকারী সৎপুরুষ (পিষ্টতময়া) অত্যন্ত পিষ্ট (রভিষ্ঠয়া) অত্যন্ত শীঘ্রতা পূর্বক বৃদ্ধি প্রাপ্ত অথবা যাহার বহু প্রকারে প্রারম্ভে হয়, সেই বস্তু এবং (রশনয়া) রশ্মি সহ (য়ত্র) যেখানে (অশ্বিনোঃ) সূর্য্য ও চন্দ্রের সম্পর্ক দ্বারা পালিত (ছাগস্য) তৃণকে ছিন্ন-ভিন্ন, ভক্ষণকারী ছাগাদি পশু এবং (হবিষঃ) দেওয়ার যোগ্য পদার্থ সম্পর্কীয় (প্রিয়া) মনোহর (ধামানি) উৎপন্ন হওয়ার, স্থিত হইবার স্থানও নাম বা (য়ত্র) যেখানে (সরস্বত্যাঃ) নদী (মেষস্য) মেষ এবং (হবিষঃ) গ্রহণ করিবার যোগ্য পদার্থ সম্পর্কীয় (প্রিয়া) মনোহর (ধামানি) জন্ম, স্থান ও নাম অথবা (য়ত্র) যেখানে (ইন্দ্রস্য) ঐশ্বর্য্যযুক্ত ব্যক্তির (ঋষভস্য) প্রাপ্ত হওয়ার এবং (হবিষঃ) দেওয়ার যোগ্য পদার্থের (প্রিয়া) প্রিয় মনহরণকারী (ধামানি) জন্ম, স্থান ও নাম অথবা (য়ত্র) যেখানে (অগ্নেঃ) প্রসিদ্ধ ও বিদ্যুৎরূপ অগ্নির (প্রিয়া) মনোহর (ধামানি) জন্ম, স্থান ও নাম অথবা (য়ত্র) যেখানে (অগ্নেঃ) প্রসিদ্ধ ও বিদ্যুৎরূপ অগ্নির (প্রিয়া) মনোহর (ধামাণি) জন্ম, স্থান এবং নাম অথবা (য়ত্র) যেখানে (সোমস্য) ওষধি-সমূহের (প্রিয়া) মনোহর (ধামানি) জন্ম, স্থান, নাম অথবা (য়ত্র) (সূত্রাম্ণঃ) ভালমত রক্ষাকারী (ইন্দ্রস্য) ঐশ্বর্য্যযুক্ত উত্তম পুরুষের (প্রিয়া) মনোহর (ধামানি) জন্ম, স্থান ও নাম (য়ত্র) যেখানে (সবিতুঃ) সকলকে প্রেরণাদাতা পবনের (প্রিয়া) মনোহর (ধামানি) উৎপন্ন হওয়ার, স্থিত হওয়ার স্থান ও নাম অথবা (য়ত্র) যেখানে (বরুণস্য) শ্রেষ্ঠ পদার্থের (প্রিয়া) মনোহর (ধামানি) জন্ম, স্থান ও নাম অথবা (য়ত্র) যেখানে (বনস্পতেঃ) বটাদি বৃক্ষের (প্রিয়া) উত্তম (পাথাংসি) অন্ন অর্থাৎ তাহাদিগের পান করিবার জল অথবা (য়ত্র) যেখানে (আজ্যপানাম্) গতি অর্থাৎ নিজ কক্ষে ভ্রমণ করিবার ফলে জীবদিগের পালক (দেবানাম্) পৃথিবী আদি দিব্যলোকসমূহের (প্রিয়া) উত্তম (ধামানি) উৎপন্ন হওয়া, তাহাদের স্থিত হওয়ার স্থান ও নাম অথবা (য়ত্র) যেখানে (হোতুঃ) উত্তম সুখ দেওয়ার এবং (অগ্নেঃ) বিদ্যা দ্বারা প্রকাশমান হওয়ার অগ্নির (প্রিয়া) মনোহর (ধামানি) জন্ম, স্থান ও নাম আছে (তত্র) সেখানে (এতান্) এইসব উক্ত পদার্থ সমূহের (প্রস্তুত্যেব) প্রকরণ দ্বারা অর্থাৎ সময় সময়ে ইচ্ছা করিয়া এবং (উপস্তুত্যেব) তাহাদের সমীপ প্রশংসা করিয়া (উপাবস্রক্ষৎ) তাহাদেরকে গুণ-কর্ম-স্বভাব পূর্বক যথাযোগ্য কার্য্যে উপার্জন করিবে অর্থাৎ উক্ত পদার্থগুলির সঞ্চয় করিবে (রভীয়স ইব) বহু প্রকারে অতিশয় আরম্ভের সমান (কৃত্বী) করিয়া কার্য্যের উপযোগে আনিবে (এবম্) এবং এইপ্রকার (করৎ) তাহাদের ব্যবহার করিবে অথবা যেমন (বনস্পতিঃ) সূর্য্যাদি লোকসমূহের কিরণগুলির পালক এবং (দেবঃ) দিব্যগুণযুক্ত অগ্নি (হবিঃ) সংস্কারকৃত অর্থাৎ উত্তমতাপূর্বক নির্মিত পদার্থ সমূহের (জুষতাম্) সেবন করিবে এবং (হি) নিশ্চয়পূর্বক (বনস্পতিম্) বটাদি বৃক্ষকে (অভি, য়ক্ষৎ) সব দিক দিয়া উপস্থিত অর্থাৎ বিদ্যুৎ রূপে প্রাপ্ত হউক এবং (অধিত) তাহাদের ধারণ করিবে, তদ্রূপ তুমি (য়জ) সকল ব্যবহারের সংগতি করিতে থাক ॥ ৪৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমা ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্য ঈশ্বরের উৎপন্ন পদার্থসমূহের গুণ, কর্ম ও স্বভাবকে জানিয়া ইহাদেরকে কার্য্যের সিদ্ধি হেতু ভালমত যুক্ত করিবে তাহা হইলে তাহারা নিজেদের আকাঙ্ক্ষিত সুখ লাভ করিবে ॥ ৪৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    হোতা॑ য়ক্ষ॒দ্ বন॒স্পতি॑ম॒ভি হি পি॒ষ্টত॑ময়া॒ রভি॑ষ্ঠয়া রশ॒নয়াধি॑ত । য়ত্রা॒শ্বিনো॒শ্ছাগ॑স্য হ॒বিষঃ॑ প্রি॒য়া ধামা॑নি॒ য়ত্র॒ সর॑স্বত্যা মে॒ষস্য॑ হ॒বিষঃ॑ প্রি॒য়া ধামা॑নি॒ য়ত্রেন্দ্র॑স্যऽঋষ॒ভস্য॑ হ॒বিষঃ॑ প্রি॒য়া ধামা॑নি॒ য়ত্রা॒গ্নেঃ প্রি॒য়া ধামা॑নি॒ য়ত্র॒ সোম॑স্য প্রি॒য়া ধামা॑নি॒ য়ত্রেন্দ্র॑স্য সু॒ত্রাম্ণঃ॑ প্রি॒য়া ধামা॑নি॒ য়ত্র॑ সবি॒তুঃ প্রি॒য়া ধামা॑নি॒ য়ত্র॒ বর॑ুণস্য প্রি॒য়া ধামা॑নি য়ত্র॒ বন॒স্পতেঃ॑ প্রি॒য়া পাথা॑ᳬंসি॒ য়ত্র॑ দে॒বানা॑মাজ্য॒পানাং॑ প্রি॒য়া ধামা॑নি॒ য়ত্রা॒গ্নের্হোতুঃ॑ প্রি॒য়া ধামা॑নি॒ তত্রৈ॒তান্ প্র॒স্তুত্যে॑বোপ॒স্তুত্যে॑বো॒পাব॑স্রক্ষ॒দ্ রভী॑য়সऽইব কৃ॒ত্বী কর॑দে॒বং দে॒বো বন॒স্পতি॑র্জু॒ষতা॑ᳬं হ॒বির্হোত॒র্য়জ॑ ॥ ৪৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    হোতেত্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । অশ্ব্যাদয়ো দেবতাঃ । পূর্বস্যোৎকৃতিশ্ছন্দঃ । ষড্জঃ স্বরঃ । য়ত্র সবিতুরিত্যুত্তরস্য স্বরাট্ সংকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top