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यजुर्वेद अध्याय - 21

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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 43
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - होत्रादयो देवताः छन्दः - आद्यस्य याजुषी पङ्क्तिः, कृति स्वरः - पञ्चमः, षड्जः
    350

    होता॑ यक्षद॒श्विनौ॒ छाग॑स्य ह॒विष॒ऽआत्ता॑म॒द्य म॑ध्य॒तो मेद॒ऽउद्भृ॑तं पु॒रा द्वेषो॑भ्यः पु॒रा पौरु॑षेय्या गृ॒भो घस्तां॑ नू॒नं घा॒सेऽअ॑ज्राणां॒ यव॑सप्रथमाना सु॒मत्क्ष॑राणा शतरु॒द्रिया॑णामग्निष्वा॒त्तानां॒ पीवो॑पवसनानां पार्श्व॒तः श्रो॑णि॒तः शि॑ताम॒तऽउ॑त्साद॒तोऽङ्गा॑दङ्गा॒दव॑त्तानां॒ कर॑तऽए॒वाश्विना॑ जु॒षेता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑॥४३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हो॒ता। य॒क्ष॒त्। अ॒श्विनौ॑। छाग॑स्य। ह॒विषः॑। आत्ता॑म्। अ॒द्य। म॒ध्य॒तः। मेदः॑। उद्भृ॑त॒मित्युत्ऽभृ॑तम्। पु॒रा। द्वेषो॑भ्य॒ इति॒ द्वेषः॑ऽभ्यः। पु॒रा। पौरु॑षेय्याः। गृ॒भः। घस्ता॑म्। नू॒नम्। घा॒सेऽअ॑ज्राणा॒मिति॑ घा॒सेऽअ॑ज्राणाम्। यव॑सप्रथमाना॒मिति॒ यव॑सऽप्रथमानाम्। सु॒मत्क्ष॑राणा॒मिति॑ सु॒मत्ऽक्ष॑राणाम्। श॒त॒रु॒द्रिया॑णा॒मिति॑ शतऽरु॒द्रिया॑णाम्। अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्ताना॑म्। अ॒ग्नि॒स्वा॒त्ताना॒मित्य॑ग्निऽस्वा॒त्ताना॑म्। पीवो॑पवसनाना॒मिति॒ पीवः॑ऽउपवसनानाम्। पा॒र्श्व॒तः श्रो॒णि॒तः। शि॒ता॒म॒तः। उ॒त्सा॒द॒त इत्यु॑त्ऽसाद॒तः। अङ्गा॑दङ्गा॒दित्यङ्गा॑त्ऽअङ्गात्। अव॑त्तानाम्। कर॑तः। एव। अ॒श्विना॑। जु॒षेता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षदश्विनौ च्छागस्य हविषऽआत्तामद्य मध्यतो मेदऽउद्भृतम्पुरा द्वेषोभ्यः पुरा पौरुषेय्या गृभो घस्तान्नूनङ्घासेअज्राणाँयवसप्रथमानाँ सुमत्क्षराणाँ शतरुद्रियाणामग्निष्वात्तानाम्पीवोपवसानाम्पार्श्वतः श्रोणितः शितामतऽउत्सादतोङ्गाद्ङ्गादवत्तानाम्करत एवाश्विना जुषेताँ हविर्हातर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। अश्विनौ। छागस्य। हविषः। आत्ताम्। अद्य। मध्यतः। मेदः। उद्भृतमित्युत्ऽभृतम्। पुरा। द्वेषोभ्य इति द्वेषःऽभ्यः। पुरा। पौरुषेय्याः। गृभः। घस्ताम्। नूनम्। घासेऽअज्राणामिति घासेऽअज्राणाम्। यवसप्रथमानामिति यवसऽप्रथमानाम्। सुमत्क्षराणामिति सुमत्ऽक्षराणाम्। शतरुद्रियाणामिति शतऽरुद्रियाणाम्। अग्निष्वात्तानाम्। अग्निस्वात्तानामित्यग्निऽस्वात्तानाम्। पीवोपवसनानामिति पीवःऽउपवसनानाम्। पार्श्वतः श्रोणितः। शितामतः। उत्सादत इत्युत्ऽसादतः। अङ्गादङ्गादित्यङ्गात्ऽअङ्गात्। अवत्तानाम्। करतः। एव। अश्विना। जुषेताम्। हविः। होतः। यज॥४३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 43
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे होतर्यथा होताश्विनौ यक्षत् तौ चाद्य छागस्य मध्यतो हविषो मेद उद्भृतमात्तां यथा वा पुरा द्वेषोभ्यो गृभः पौरुषेय्याः पुरा नूनं घस्तां यथा वा यवसप्रथमानां घासेअज्राणां सुमत्क्षराणां शतरुद्रियाणां पीवोपवसनानामग्निष्वात्तानां पार्श्वतः श्रोणितः शितामत उत्सादतोऽङ्गादङ्गादवत्तानामेवाश्विना करतो हविर्जुषेतां तथा त्वं यज॥४३॥

    पदार्थः

    (होता) आदाता (यक्षत्) (अश्विनौ) अध्यापकोपदेशकौ (छागस्य) (हविषः) आदातुमर्हस्य (आत्ताम्) (अद्य) (मध्यतः) मध्यात् (मेदः) स्निग्धम् (उद्भृतम्) उत्कृष्टतया धृतम् (पुरा) (द्वेषोभ्यः) दुष्टेभ्यः (पुरा) (पौरुषेय्याः) पुरुषाणां समूहे साध्व्यः (गृभः) ग्रहीतुं योग्यायाः (घस्ताम्) भक्षयताम् (नूनम्) निश्चितम् (घासेअज्राणम्) भोजनेऽग्रे प्राप्तव्यानाम् (यवसप्रथमानाम्) यवसो यवान्नं प्रथमं येषां तेषाम् (सुमत्क्षराणाम्) सुष्ठु मदां क्षरः संचलनं येषां तेषाम् (शतरुद्रियाणाम्) शतं रुद्राः शतरुद्राः शतरुद्रा देवता येषां तेषाम् (अग्निष्वात्तानाम्) अग्निः सुष्ठ्वात्तो गृहीतो यैस्तेषाम् (पीवोपवसनानाम्) पीवांस्युपवसनान्याच्छादनानि येषां तेषाम् (पार्श्वतः) उभयतः (श्रोणितः) कटिप्रदेशात् (शितामतः) शितस्तीक्ष्ण आमोऽपरिपक्वं यस्मिंस्तस्मात् (उत्सादतः) उत्सादनं कुर्वतः (अङ्गादङ्गात्) प्रत्यङ्गात् (अवत्तानाम्) नम्रीभूतानामुत्कृष्टानामङ्गानाम् (करतः) कुर्याताम् (एव) (अश्विना) सद्वैद्यौ (जुषेताम्) (हविः) अत्तुमर्हम् (होतः) (यज)॥४३॥

    भावार्थः

    ये छागादीनां रक्षां विधाय तेषां दुग्धादिकं सुसंस्कृत्य भुक्त्वा द्वेषादियुक्तान् पुरुषन्निवार्य सुवैद्यानां सङ्गं कृत्वा शोभनं भोजनाऽऽच्छादनं कुर्वन्ति, ते प्रत्यङ्गाद् रोगान्निवार्य सुखिनो भवन्ति॥४३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (होतः) देने हारे! जैसे (होता) लेने वाला (अश्विनौ) पाने और उपदेश करने वालों को (यक्षत्) संगत करे और वे (अद्य) आज (छागस्य) बकरी आदि पशुओं के (मध्यतः) बीच से (हविषः) लेने योग्य पदार्थ का (मेदः) चिकना भाग अर्थात् घी दूध आदि (उद्भृतम्) उद्धार किया हुआ (आत्ताम्) लेवें वा जैसे (द्वेषोभ्यः) दुष्टों से (पुरा) प्रथम (गृभः) ग्रहण करने योग्य (पौरुषेय्याः) पुरुषों के समूह में उत्तम स्त्री के (पुरा) पहिले (नूनम्) निश्चय करके (घस्ताम्) खावें वा जैसे (यवसप्रथमानाम्) जो जिन का पहिला अन्न (घासेअज्राणाम्) जो खाने में आगे पहुंचाने योग्य (सुमत्क्षराणाम्) जिन के उत्तम-उत्तम आनन्दों का कंपन आगमन (शतरुद्रियाणाम्) दुष्टों को रुलाने हारे सैकड़ों रुद्र जिन के देवता (पीवोपवसनानाम्) वा जिन के मोटे-मोटे कपड़ों के ओढ़ने-पहिरने (अग्निष्वात्तानाम्) वा जिन्होंने भलीभांति अग्निविद्या का ग्रहण किया हो, इन सब प्राणियों के (पार्श्वतः) पार्श्वभाग (श्रोणितः) कटिप्रदेश (शितामतः) तीक्ष्ण जिस में कच्चा अन्न उस प्रदेश (उत्सादतः) उपाड़ते हुए अंग और (अङ्गादङ्गात्) प्रत्येक अंग से व्यवहार वा (अवत्तानाम्) नमे हुए उत्तम अंगों (एव) ही के व्यवहार को (अश्विना) अच्छे वैद्य (करतः) करें और (हविः) उक्त पदार्थों से खाने योग्य पदार्थ का (जुषेताम्) सेवन करें, जैसे-वैसे (यज) सब पदार्थों वा व्यवहारों की संगति किया कर॥४३॥

    भावार्थ

    जो छेरी आदि पशुओं की रक्षा कर उनके दूध अदि का अच्छा-अच्छा संस्कार और भोजन कर वैरभावयुक्त पुरुषों को निवारण कर और अच्छे वैद्यों का संग करके उत्तम खाना, पहिरना करते हैं, वे प्रत्येक अंग से रोगों को दूर कर सुखी होते हैं॥४३॥

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    विषय

    अधिकारदान, उनके सहायकों के कर्तव्य । महीधर आदि के किये बकरे की बलिपरक अर्थ का सप्रमाण खण्डन । सरस्वती नाम विद्वत्सभा को अधिकार, उसके सहायकों का कर्तव्य । छाग, मेष, ऋषभ और उनके हवि, मद, तथा उनके पार्श्व, कटि, प्रजनन आदि अंगों के अवदान करने का रहस्य ।

    भावार्थ

    (होता) पदाधिकारों का प्रदाता (अश्विनौ) व्यापक अधिकारों वाले दो मुख्य अधिकारियों को ( यक्षत् ) नियुक्त करे और वे दोनों ( छागस्य) शत्रुओं के बल को नष्ट करने वाले राष्ट्र के ( हविष: ) उपादान योग्य अन्न आदि कर को (आ अत्ताम् ) प्राप्त करें। ( अद्य ) अब, नित्य (मध्यतः) राष्ट्र के बीच में से ( मेदः ) शत्रु के बल को नाश करने वाला सेना बल (उद्धृतम् ) प्राप्त किया जाय। उक्त दोनों अधिकारी (द्वेषोभ्यः (पुरा) शत्रुओं के हाथ में आने से पूर्व और ( पौरुषेय्याः गृभः ) लोगों के पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त कर लेने के पूर्व ही ( नूनम् ) निश्चय से ( घस्ताम् ) वे उसको ले लें। कैसे अन्नों को लें सो बतलाते हैं ? दोनों अधिकारी ( घासे अज्राणां ) खाने में जिनका रस नष्ट न हुआ हो; जिनको भोजन के निमित्त प्राप्त किया जा सके, ऐसे ( यवसप्रथमानाम् ) यव, गेहूँ आदि जाति के अन्नों में भी सब से उत्तम कोटि के (सुमत्क्षराणाम् ) उत्तम रीति से रस, तृप्ति और आनन्द देने वाले, (शतरुद्रियाणाम् ) सैकड़ों रुद्र नाम पदाधि- कारियों द्वारा प्राप्त करने योग्य अथवा उनके निमित्त लेने योग्य, ( अग्नि- स्वात्तानाम् ) सूर्य रूप अग्नि से उत्तम रीति से परिपक्क, अथवा अग्नि और ज्ञानी पुरुषों द्वारा उत्तम रीति से परीक्षा करके लिये गये, (पीवोपवसनानाम् ) आहार व्यवहार द्वारा पुष्टि करने वाले, ( पार्श्वतः ) राष्ट्र के पासों पर बसे देशों से ( श्रोणितः ) बीच के देशों से, (शितामतः) अति वीर्य - स्वान् या विस्तृत या विशेष रूप से व्यवहित देशों से और ( उत्सादतः ) जो देश राजा के विपरीत सिर उठाते हैं उन देशों से भी अर्थात् (अङ्गाद्- अङ्गाद् ) राष्ट्र के प्रत्येक अंग से ( अवत्तानाम् ) प्राप्त किये करों को(अश्विनौ) उक्त दोनों 'अश्विनामक' अधिकारीगण ( नूनम् ) अवश्य संग्रह - कर ले और (जुपेताम ) उनको सेवन करें । अथवा (करत: एव जुषेताम् ) कर रूप से ही सेवन करें । हे ( होतः ) होतः ! तू ( हविः ) अन्न आदि ग्राह्य पद को (यज) प्रदान कर । इसी प्रकार, अश्वी नामक अधिकारीगण ( छागस्य) शत्रुओं को छेदन करने वाले (हविषः) राष्ट्र से संग्रह करने योग्य सेना बल को (आ अत्ताम् ) 'प्राप्त करें | यह सेना बल कहां से प्राप्त करें ? ( मेदः) यह शत्रुनाशक बलवान् अंश भी (मध्यतः उद्भुतम् ) राष्ट्र के बीच में उठाया जाय । कब ? (द्वेषोभ्यः पुरा ) शत्रुओं के वश में चले जाने के पहले ही अर्थात्, जब प्रजा में राजा के शत्रुपक्ष प्रजा के बलवान् अंश को राजा के विपरीत संगठित करें । इसके पहले ही प्रजा के बीच में से बलवान् प्रजा के -बीच में से बलवान् प्रजा के अंश को अश्वी नामक अधिकारी अपनी सेना और अन्यान्य कार्यों में लगावें । और कब ? ( पुरा पौरुषेय्याः गृभः ) वे स्वयं अपने विशेष पुरुषार्थ, धनार्जन धर्मार्थ काम मोक्ष मार्ग के निमित्त, विशेष व्यवसाय को पकड़ें स्वयं पुरुषार्थ से कोई अधिकार पकड़ लें इससे भी पूर्व उनको राजकार्य में लगा लिया जाय और वे दोनों अधिकारी ( नूनं घस्ताम् ) अवश्य ही इस अंश को ले ही लें, उपेक्षा न करें । राष्ट्र- - बल के और सेना के निमित्त जिन प्रजाजनों को लिया जाय वे किस प्रकार के हों ? (घासे) अन्न या राज्य से वृत्ति प्राप्त कर लेने पर ( अज्राणाम् ) (शत्रु से कभी पराजित न होने वाले, के हृष्ट पुष्ट, ( यवस- प्रथमानाम् )शत्रुओं को नाश करने में सबसे श्रेष्ठ, अथवा उत्तम यव आदि सेवन करने "वाले, ( सुमत्-क्षराणाम् ) हर्ष आनन्द सेचन करने वाले, सदा प्रसन्न (शतरुद्रियाणाम् ) सैकड़ों दुष्टों को रुलानेवाले, अथवा रुद्र, वीर सेना- पतियों के अधीन, अथवा सेनापति पद के योग्य, ( पीवोपवसनानाम् ) स्थूल, मजबूत, पक्की पोशाक, कवच आदि पहनने वाले, (पार्श्वतः) पासों से, (श्रोणितः ) कमर से, (शितामतः ) गुह्यांग से और ( उत्सादतः) उखड़नेवाले, निर्बल (अङ्गाद् अङ्गाद् अवत्तानाम् ) प्रत्येक अंग अंग पर सुबद्ध, अर्थात् छाती पर कसी पोषाक, कमर में पेटी और गुह्यांगों में लंगोट बांधने वाले, उत्साद अर्थात् विनाश योग्य या ढीले प्रत्येक अंग को भी पेटी कवच आदि से बांधनेवाले, कसे कसाये वीर पुरुषों को ( करतः एव ) अवश्य प्राप्त करें और (अश्विनौ) विद्या और अधिकार वाले जन उनको ( जुषेताम् ) प्रेम से स्वीकार करें। हे (होत:) होतः ! अधिकारदातः ! तू (हविः यज) उनको अन्न और अधिकार, वृत्ति और पद प्रदान कर । अध्यात्म में — होता, प्राणपाण का साधक, (अश्विनौ) प्राण और अपान दोनों को वश करे। वे दोनों (छागस्य) अज सर्वच्छेत्ता, आत्मा के ( हविषः) बल को ( आत्ताम् ) प्राप्त करें । ( मेदः) बलपूर्वक प्राण को (मध्यतः) अपने शरीर के बीच में से ( उद्भुतम् ) उठाया जाय । वे' प्राण और अपान, अपने ग्राह्य सूक्ष्म अंगों को (द्वेषोभ्यः पुरा, पौरुषेय्याः गृभः पुरा) अप्रीति जनक, बाधक व्यसनों, रोगों और पुरुष देह पर आने वाली विपत्तियां के द्वारा उन अंशों को नष्ट होने के पहले ही, ( नूनं घस्ताम् ) देह के उन अंशों को अवश्य ग्रहण करे, वंश करे। वे सूक्ष्मः अंश कैसे हों ? (घासे अज्राणाम् ) अन्नरस खाने में कभी नष्ट न होने वाले, सदा बलवान्, ( यवसं - प्रथमानाम् ) मिश्रण अमिश्रण, उचित अंश के- ग्रहण और हानिकारक अंश को त्यागने में श्रेष्ठ, ( सुमत्क्षराणाम् ) उत्तम हर्षजनक, (शतरुद्रियाणां सैकड़ों प्राणों के स्वरूप में प्रकट, ( अग्निस्वात्तानाम्) जठराग्नि द्वारा उत्तम रीति से सुपाचित, (पीवोपवसनानाम् )पुष्टिकारी आवरण में सुरक्षित, (पार्श्वतः) कोखों से, (श्रोणितः) कटि भाग से, (शितामतः) गुह्यांग से और ( उत्सादतः अङ्गाद् अवत्तानाम् ) हानि प्राप्त करने वाले प्रत्येक मर्म अंग से उन प्राणों के सूक्ष्म अंशों को (करत: एव) वे प्राण और अपान क्रिया शक्ति से ही ( जुषताम् ) संचालित करे । (होत: हविः यज) हे साधक ! तू प्राण की अपान में और अपान की प्राण में हवि को प्रदान कर । अर्थात् इसी विधि से प्राणायामः का अभ्यास कर । इस मन्त्र का उवट और महीधर ने बकरे के कोख, कमर, लिंग, गुदा आदि भागों से मांस काट-काट कर अश्वि देवताओं के निमित्त आहुति करने परक अर्थ किया है । सो असंगत है । वस्तुतः इसमें नाम व्यापक अधिकार वाले लोगों को नियुक्त करने और सेना- बल के निमित्त सैनिक लेने एवं अध्यात्म में, प्राणापान द्वारा शरीर को पुष्ट करने के नियमों का उपदेश किया है । 'छागस्य' – छयतेश्छेदनार्थाद् धातोरौणादिको गन् प्रत्ययः । छ्यति छिनत्ति इति छागः । इति दया० उणादि० । छापखडिभ्यः कित् । उणादिसूत्रम् । १ । १२४ ॥ छो छेदने । दिवादिः । छो गुग ह्रस्वश्च इति कलप्रत्यये गुगागमो ह्रस्वश्च । उणादि० ।" १ । ११३ ॥ छ्यति छिनत्तीति छगल: छागः बर्करो वा इति दया० 'उणादि० । 'अजः ' – न जायते इत्यजः । अजति गच्छति व्याप्नोतिः इत्यजः । अथ यः सः कपाले रसो लिन आसीदेष सोऽअजः । श० ६ । ३ । १ । २८ ॥ ब्रह्म वा अजः । श० ७ । ५ । २ । २१ ॥ प्रजापतिर्वा एष यदजर्षभः । श० ५ । १ । २४ ॥ 'मेद: ' - मिह मेह मेधाहिंसनयोः । भ्वादि: । मेदो वा मेधः | श० ३ । ८ । ४ । ६ ॥ मेधाय अन्नायेत्येतत् । श० ७ । ५ । २ । ३२ ॥ ते मेधं (देवाः) खनन्त इवान्वीयुस्तमन्वविन्दन् ताविमौ ब्रीहियवौ । मेधो वा आज्यम् । तै० ३।१।१२।१ ॥ 'अज्राणां' यैरजितं स्वेच्छया, न्यायजराणि वा इत्युवटः ।

    टिप्पणी

    १ ' होता॑ २ 'ह॒विष ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ( १ ) याजुषी पंक्तिः । पंचमः । ( २ ) उत्कृतिः षड्जः ॥

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    विषय

    'अजमोद' का प्रयोग व यजन

    पदार्थ

    १. (होता) = यह यज्ञशील पुरुष (अश्विनौ) = प्राणापान को (यक्षत्) = अपने साथ सङ्गत करे। इस उद्देश्य से ये प्राणापान (छागस्य) = अजमोद ओषधि के (हविषः) = हवि का (आत्ताम्) = सेवन करें, अर्थात् इस ओषधि को मुख से भी ग्रहण करें और इसे अग्निकुण्ड में आहुत करके हविरूप में हुई - हुई इस औषध को श्वासवायु के साथ ग्रहण करें। २. (अद्य) = आज इस ओषधि के (मध्यतः) = मध्य से (मेदः) = इसका औषध-गुणसम्पन्न चिकना भाग, अर्थात् गूदा (उद्भृतम्) = बाहर निकाला है। (पुरा) = पूर्व इसके कि (द्वेषोभ्यः) = [द्विष अप्रीतौ] यह वायुमण्डल के प्रभाव से अप्रीतिजनक हो जाए, अर्थात् इसके रस का स्वाद कुछ विकृत हो जाए तथा (पुरा) = पूर्व इसके कि (पौरुषेय्या गृभः) = इसे कोई पुरुषों में होनेवाला रोग पकड़ ले, अर्थात् मक्खियों आदि के कारण इसमें किन्हीं रोगकृमियों का प्रवेश होने से पूर्व ही (घस्ताम्) = प्राणापान इसका भक्षण करें। सामान्यतः सेब को काटें तो कुछ देर रखने पर उसका वह चमकता हुआ सफेद रंग जाता रहता है, कुछ देर पड़े रहने पर उसके स्वाद में भी विकार आ जाता है, अतः सामान्य नियम यही ठीक है कि काटा और खाया । यहाँ भी 'ओषधि का गूदा निकाला और उसका प्रयोग किया' यही नियम रखना चाहिए। ३. (नूनम्) = निश्चय से (घासे) = खाने पर (अज्राणाम्) = [अज गतिक्षेपणयोः] रोगों को दूर फेंकनेवाली अथवा [ भोजने अग्रे प्राप्तव्यानाम् - द०] भोजन में सबसे प्रथम प्रयोग करने योग्य [अज्राणां=अजराणां नवानां रुचिजनकानाम् - म० ] भोजन में अधिकाधिक रुचि पैदा करनेवाली (यवसप्रथमानाम्) = अन्नों में मुख्य (सुमत् क्षराणाम्) = [सुष्ठु मदां क्षरः सञ्चलनं येषां - द०] उत्तम आनन्दों के देनेवाली (शतरुद्रियाणाम्) = सैकड़ों रोगों को रुलानेवाली, अर्थात् रोगों का विद्रावण करनेवाली अथवा [बहुमन्त्रैः सुतानाम् - म०] मन्त्रों से स्तवन की गई (अग्निष्वात्तानाम्) = [पाककाले पूर्वमग्निना सुशृतानाम् -म० ] जिनका अग्नि पर ठीक परिपाक हुआ है, (पीवोपवसनानाम्) = [पवी: उपवसनं यै: ] शरीर में स्थूल उपवसन का निर्माण करनेवाली, अर्थात् त्वचा के साथ-साथ सारे शरीर पर चर्बी के वस्त्र को प्राप्त करानेवाली, तथा (पार्श्वतः) = पार्श्वों के दृष्टिकोण से [कोख प्रदेशों के स्वास्थ्य के विचार से] (श्रोणितः) = कटिप्रदेश के स्वास्थ्य के विचार से, (शितामतः) = बाहुप्रदेश के स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अथवा आमाशय के स्वास्थ्य के विचार से, (उत्सादत:) = छेदनवाले प्रदेश के ठीक करने के उद्देश्य से, जहाँ कोई कटाव हो गया है, उसको ठीक करने के लिए, (अंगात् अंगात्) = एक-एक अङ्ग के दृष्टिकोण से (अवत्तानाम्) = काटे हुए अजमोद ओषधि के अंशों का (करतः) = ये प्राणापान सेवन करते हैं । ४. (एव) = इस प्रकार (अश्विना) = ये प्राणापान (हविः) = उस अजमोद ओषधि का, जिसे कि अग्नि में डाला गया है और अतएव जो हविरूप हो गई है, उसका (जुषताम्) = सेवन करें । ५. (होतः) = हे यज्ञशील पुरुष ! तू (यज) = इस ओषधि का यजन करनेवाला बन।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्राणापान के उत्कर्ष के लिए अजमोद ओषधि के मध्य से उद्धृत गूदे का ग्रहण करें। गूदे के पड़े रहने से उसके रस को विकृत न होने दें, उसपर रोगकृमियों का आक्रमण भी न होने दें। इसके प्रयोग से हमारे सब अङ्ग स्वस्थ होंगे। हम इससे हवन करें और इसे हविरूप में लेने का प्रयत्न करें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे शेळी वगैरे पशूंचे रक्षण करून त्यांचे दूध संस्कारित करून भोजन करतात व वैर करणाऱ्या पुरुषांपासून दूर राहतात आणि चांगल्या वैद्याच्या सल्ल्याने भोजन व वस्रे वापरतात, ते रोगांचे दूर करून सर्व दृष्टीने सुखी होतात.

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    विषय

    पुनश्च, तोच विषय पुढील मंत्रात -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (होतः) (ज्ञान वा धनाचे) दान देणाऱ्या मनुष्या, ज्याप्रमाणे एक (होता) (ज्ञान वा धन) ग्रहण करणारा (जिज्ञासू) मनुष्य (अश्विनौ) अध्यापन आणि उपदेश देणाऱ्या मनुष्यांची (यक्षत्‌) संगती करतो (त्यांच्याकडे जातो) तसेच (अद्य) आज (छागस्य) बकरा आदी पशूं (मध्यतः) पासून (हविषः) हवि देण्यास अथवा उपभोग करण्यासाठी योग्य अशा (मेदः) चिकट वा स्निग्ध भाग म्हणजे तूप आणि दूध आदी पदार्थ (उद्भृतम्‌) काढून (आत्ताम्‌) प्रपात करतात (वा सेवन करतात) (तद्वत्‌ हे याज्ञिक वा दाता मनुष्या, तूदेखील देत जा व सेवन करीत जा) तसेच (द्वेषोभ्यः) दुष्ट वा स्वार्थी मनुष्यांनी (त्या पदार्थांचे सेवन करावे, त्या) (पुरा) आधीच (गृभः) ग्रहण वा सेवन करण्यास योग्य त्या तूप, दूध आदी पदार्थांचे (पौरुषेय्याः) पुरुषसमूहात श्रेष्ठ अशा स्त्रीच्या (पुरा) आधी (नूनम्‌) अवश्यमेव (घस्ताम्‌) सर्वांनी सेवन करावे (नंतर त्या श्रेष्ठ स्त्रीने सेवन करावे) (कुशल वैद्यांनी अशा सर्व लोकांच्या शरिरातील अंगांचे दोष दूर करावेत की) ज्यांचे (यवसप्रथमानाम्‌) यव वा सातू हे प्रथम अन्न आहे (अर्थात जे पथ्याहार करतात) (घासे अज्राणाम्‌) भोजनाच्या आधी जे विशिष्ट (भूक वाढविणारे रस वा पदार्थ) सेवन करतात, तसेच (सुमत्क्षराणाम्‌) ज्यांचे चालणे सुंदर व मोहक आहे (अशा स्वस्थ पुष्ट शरिराच्या माणसांच्या आणि (शतरुद्रियाणाम्‌) दुष्टांना रडविणारे असे शेकडो रूद्र (वीर सैनिक वा सेनापती) ज्यांचे रक्षक आहेत (त्या दुर्बळ जनांच्या) (शरीराच्या आणि शरीरावयवांचे कार्य वैद्यांनी उत्तम ठेवावे) तसेच (पीवोपवसानानाम्‌) जे जाड पांघरूण (वा लोकरीची वस्त्रें नेसतात, पांघरतात, अशा लोकांच्या) वा (अग्निष्वात्तानाम्‌) ज्यांनी अग्निविद्येचे उत्तम ज्ञान प्राप्त केले आहे अशा (वैज्ञानिकांच्या व ऊर्जा, यज्ञक्रिया जाणणाऱ्यांच्या) अशा वर्णित सर्व प्राण्यांच्या (पार्श्वतः) पाठीमागील (भागांच्या) अथवा (श्रोणितः) कटिप्रदेशातील आणि (शितामतः) ज्या अंगांमधे दाहक अथवा अपरिपक्व अन्न थांबले आहे, (अशा पचनसंस्थांच्या) भागांतील (उत्सादतः) दोष शोधून काढून (वैद्यांनी निपटून काढावेत) वरील लोकांच्या (अङ्गादङ्गात्‌) प्रत्येक अंगाचे कार्य व्यवस्थित ठेवावे अथवा (अवत्तानाम्‌) बलवान कार्यक्षम अवयवांना (एव) मात्र (अश्विना) वैद्यांनी (एव) अवश्यमेव सुस्थितीत (करतः) ठेवावे (जर शरीर आणि शारीरिक) अवयवांतील दोष वा रोग दूर करता येत नसतील, तर किमान वैद्यांनी शरिरातील कार्यक्षम अवयवांचे रक्षण करावे. चुकीची औषधे देऊन अंगांची हानी करू नये) तसेच वरील सर्व लोकांनी (हविः) खाण्यास योग्य अशा पदार्थांचे (जुषन्ताम्‌) सेवन करावे. (हे याज्ञिक पुरूषा) तूही त्यांच्या प्रमाणे (यज) उक्त पदार्थांचा संग्रह करीत जा. त्यांच्याप्रमाणे व्यवहार औषधीसेवनादी तसेच त्यांचा संग करीत जा. ॥43॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे लोक शेळी आदी पशूंचे पालन-रक्षण करून त्यांच्या दूध आदी पदार्थांवर चांगले संस्कार (शुद्धी व निवड करून) सेवन करतात, त्याचबरोबर वैर बाळगणाऱ्या स्वार्थी दुष्ट पुरूषांचे दमन करून वा त्यांना दूर ठेऊन निष्णात वैद्यांचा मात्र संग करतात, आणि खाणे, पांघरणे, नेसणे आदी कार्यें उत्तम पणे करतात, त्यांच्या प्रत्येक अंगातील रोग नाश पावतात व ती माणसें सदा सुखी राहतात. ॥43॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as a learned person keeps company with the teacher and the preacher, who ever derive in a nice manner the useful things like milk and greasy butter from a goat, and surely eat them before they are snatched by the wicked, and asked for by chaste beggar women; just as they utilise rough and refined meals, chiefly of barley, delicious, chasers of hundreds of ailments, prepared in fire, just as good physicians remove ills from the sides, from the thighs, from the stomach, from each limb causing pain, and from vital organs of the patients, and partake of eatable foods, so shouldst thou, O sacrificer, use all these substances.

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    Meaning

    Let the man of yajna perform the yajna in honour of Ashvinis, prana and apana powers of nature and the physicians with the milk and ghee of the goat. Let the Ashvinis partake of the holy food. Let them eat and raise the pranic vitality from the middle part of the body, for sure, before the anti-system forces of ailments take hold of the body and make their home there. And may the Ashvinis delight in protecting and promoting the subtle vitality of the pranas which are ever active in the digestion of food, first in assimilating the assimilable and eliminating the waste, exhilarating, creating a hundred currents of energy, living heat of the system, and essential strength of the body free from obesity. May the Ashvinis protect and promote the vitality expressive from the sides, the back, hyperactive vital parts, weaker and delicate parts, in short, from every vital part of the body system. Man of yajna, offer the holy food in the yajna. 44. (Vidvanso Devata, Svastyatreya Rshi)

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    Translation

    Let the priest offer oblations to the twin healers. May both of them enjoy today the sacred food prepared with the milk and butter taken from goats, before the malicious people come and before the hordes of snatching men arrive. May both of them eat the delicious foods in which the barley is the first and the foremost, so tasty that these slip down the gullet of their own, worthy of hundreds of praises, well-cooked in the fire, covered with a thick layer (of melted butter), taken from the side, from the middle and from the shoulders and from the deepest parts as well. Thus with the portions, taken from each and every part, may these twin healers make their repast and enjoy the sacrificial food. O priest, offer oblations. (1)

    Notes

    Medaḥ, marrow. Also, fat in the form of milk and butter. Purã dveṣobhyaḥ, before the malicious people or evil spir its come to disturb. Purā pauruṣeyyā gṛbhaḥ, before the hordes of snatching men come, Ghase ajrāṇām, ग्रासे रुचिजनकानां, pleasing to eat; more pleasing more you eat; delicious. Yavasa-prathamānām, in which barley is the first and foremost (Dayā. ). According to Mahidhara and Uvata, foremost among foods, i. e. meats. एतद् वै परममन्नाद्यं यन्मांसम् l' Sumatkşarānām, स्वयमेव यानि क्षरन्ति अदितानि, which slip down the gullet of their own; no effort is needed to swallow them. Śatarudriyāṇām, worthy of hundreds of praises. Agnişvāttānām, well cooked in the fire. Pivopavasanānām, पीवभिः स्थूलैः उपोषितानां निकटस्थितानां, covered with thick layers (of butter). Pārsvataḥ, from sides. Śronitaḥ, from the middle. कटि प्रदेशात् Sitāmataḥ, from shoulders. Angādangādavattänām, taken from each and every part. Utsādataḥ, from the deepest part; from the back.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (হোতঃ) দাতা ! যেমন (হোতা) গ্রহীতা (অশ্বিনৌ) অধ্যাপনা ও উপদেশকারীদেরকে (য়ক্ষৎ) সংগতি করিবে এবং তাহারা (অদ্য) আজ (ছাগস্য) ছাগাদি পশুদিগের (মধ্যতঃ) মধ্য হইতে (হবিষা) গ্রহণীয় পদার্থের (মেদঃ) স্নিগ্ধ অংশ অর্থাৎ ঘৃত দুগ্ধ ইত্যাদি (উদ্ভৃতম্) উদ্ধার কৃত (আত্তাম্) গ্রহণ করিবে অথবা যেমন (দ্বেষোভ্যঃ) দুষ্টদিগের হইতে (পুরা) প্রথম (গৃভঃ) গ্রহণীয় (পৌরুষেভ্যঃ) পুরুষদিগের সমূহে উত্তম স্ত্রীর (পুরা) প্রথমে (নূনম্) নিশ্চয় করিয়া (ঘস্তাম্) আহার করিবে অথবা যেমন (য়বসপ্রথমানাম্) যব যাহার প্রথম অন্ন (ঘাসে অজ্রাণাম্) যাহা খাইতে প্রথম উপস্থিত করিবার যোগ্য (সুমৎক্ষরাণাম্) যাহার উত্তম উত্তম আনন্দের কম্পন আগমন (শতরুদ্রিয়াণাম্) দুষ্টদিগকে রোদনকারী শত শত রুদ্র যাহাদের দেবতা (পীবোপবসনানাম্) বা যাহাদের মোটা মোটা বস্ত্র সমূহের আচ্ছাদন-পরিধান করা (অগ্নিষ্বাত্তানাম্) অথবা যাহারা ভালমত অগ্নিবিদ্যার গ্রহণ করিয়াছে, এই সব প্রাণিদিগের (পার্শ্বতঃ) পার্শ্বভাগ (শ্রোণিতঃ) কটিপ্রদেশ (শিতামতঃ) তীক্ষ্ন যাহাতে অপক্বঅন্ন সেই প্রদেশ (উৎসাদতঃ) উৎপাটিত অঙ্গ এবং (অঙ্গাদঙ্গাৎ) প্রত্যেক অঙ্গ দ্বারা ব্যবহার বা (অবত্তানাম্) নম্র উত্তম অঙ্গ সকল (এব) ইর ব্যবহার (অশ্বিনা) সুবৈদ্য (করতঃ) করিবে এবং (হবিঃ) উক্ত পদার্থ দ্বারা খাইবার যোগ্য পদার্থের (জুষেতাম্) সেবন করিবে তদ্রূপ (য়জ) সকল পদার্থ বা ব্যবহারের সংগতি করিতে থাক ॥ ৪৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যাহারা ছাগাদি পশুসমূহের রক্ষা করিয়া তাহাদের দুগ্ধাদির সুসংস্কার এবং আহার করিয়া বৈরভাবযুক্ত পুরুষদিগের নিবারণ করিয়া এবং সুবৈদ্যদিগের সঙ্গ করিয়া উত্তম আহার-পরিধান করে, তাহারা প্রত্যেক অঙ্গ দ্বারা রোগসমূহকে দূরীভূত করিয়া সুখী হয় ॥ ৪৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    হোতা॑ য়ক্ষদ॒শ্বিনৌ॒ ছাগ॑স্য হ॒বিষ॒ऽআত্তা॑ম॒দ্য ম॑ধ্য॒তো মেদ॒ऽউদ্ভৃ॑তং পু॒রা দ্বেষো॑ভ্যঃ পু॒রা পৌর॑ুষেয়্যা গৃ॒ভো ঘস্তাং॑ নূ॒নং ঘা॒সেऽঅ॑জ্রাণাং॒ য়ব॑সপ্রথমানাᳬं সু॒মৎক্ষ॑রাণাᳬं শতরু॒দ্রিয়া॑ণামগ্নিষ্বা॒ত্তানাং॒ পীবো॑পবসনানাং পার্শ্ব॒তঃ শ্রো॑ণি॒তঃ শি॑তাম॒তऽউ॑ৎসাদ॒তোऽঙ্গা॑দঙ্গা॒দব॑ত্তানাং॒ কর॑তऽএ॒বাশ্বিনা॑ জু॒ষেতা॑ᳬं হ॒বির্হোত॒র্য়জ॑ ॥ ৪৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    হোতেত্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । হোত্রাদয়ো দেবতাঃ । আদ্যস্য য়াজুষী পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ । হবিষ ইত্যুত্তরস্যোৎকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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