यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 45
ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः
देवता - यजमानर्त्विजो देवताः
छन्दः - भुरिक् प्राजापत्योष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
112
होता॑ यक्ष॒दिन्द्र॑मृष॒भस्य॑ ह॒विष॒ऽआव॑यद॒द्य म॑ध्य॒तो मेद॒ऽउद्भृ॑तं पु॒रा द्वेषो॑भ्यः पु॒रा पौरु॑षेय्या गृ॒भो घस॑न्नू॒नं घा॒सेऽअ॑ज्राणां॒ यव॑सप्रथमाना सु॒मत्क्ष॑राणा शतरु॒द्रिया॑णामग्निष्वा॒त्तानां॒ पीवो॑पवसनानां पार्श्व॒तः श्रो॑णि॒तः शि॑ताम॒तऽउ॑त्साद॒तोऽङ्गा॑दङ्गा॒दव॑त्तानां॒ कर॑दे॒वमिन्द्रो॑ जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑॥४५॥
स्वर सहित पद पाठहोता॑। य॒क्ष॒त्। इन्द्र॑म्। ऋ॒ष॒भस्य॑। ह॒विषः॑। आ। अ॒व॒य॒त्। अ॒द्य। म॒ध्य॒तः। मेदः॑। उद्भृ॑त॒मित्युत्ऽभृ॑तम्। पु॒रा। द्वेषो॑भ्य॒ इति॒ द्वेषः॑ऽभ्यः। पु॒रा। पौरु॑षेय्याः। गृ॒भः। घस॑त्। नू॒नम्। घा॒सेऽअ॑ज्राणा॒मिति॑ घा॒सेऽअ॑ज्राणाम्। यव॑सप्रथमाना॒मिति॒ यव॑सऽप्रथमानाम्। सु॒मत्क्ष॑राणा॒मिति॑ सु॒मत्ऽक्ष॑राणाम्। श॒त॒रु॒द्रिया॑णा॒मिति॑ शतऽरु॒द्रिया॑णाम्। अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्ताना॑म्। अ॒ग्नि॒स्वा॒त्ताना॒मित्य॑ग्निऽस्वा॒त्ताना॑म्। पीवो॑पवसनाना॒मिति॒ पीवः॑ऽउपवसनानाम्। पा॒र्श्व॒तः श्रो॒णि॒तः। शि॒ता॒म॒तः। उ॒त्सा॒द॒त इत्यु॑त्ऽसाद॒तः। अङ्गा॑दङ्गा॒दित्यङ्गा॑त्ऽअङ्गात्। अव॑त्तानाम्। कर॑त्। ए॒वम्। इन्द्रः॑। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
होता यक्षदिन्द्रमृषभस्य हविषऽआवयदद्य मध्यतो मेद उद्भृतम्पुरा द्वेषोभ्यः पुरा पौरुषेय्या गृभो घसन्नूनङ्घासेऽअज्राणाँयवसप्रथमानाँ सुमत्क्षराणाँ शतरुद्रियाणामग्निष्वात्तानाम्पीवोपवसानाम्पार्श्वतः श्रोणितः शितामतऽउत्सादतोङ्गादङ्गादवत्तानाङ्करदेवमिन्द्रो जुषताँ हविर्हातर्यज ॥
स्वर रहित पद पाठ
होता। यक्षत्। इन्द्रम्। ऋषभस्य। हविषः। आ। अवयत्। अद्य। मध्यतः। मेदः। उद्भृतमित्युत्ऽभृतम्। पुरा। द्वेषोभ्य इति द्वेषःऽभ्यः। पुरा। पौरुषेय्याः। गृभः। घसत्। नूनम्। घासेऽअज्राणामिति घासेऽअज्राणाम्। यवसप्रथमानामिति यवसऽप्रथमानाम्। सुमत्क्षराणामिति सुमत्ऽक्षराणाम्। शतरुद्रियाणामिति शतऽरुद्रियाणाम्। अग्निष्वात्तानाम्। अग्निस्वात्तानामित्यग्निऽस्वात्तानाम्। पीवोपवसनानामिति पीवःऽउपवसनानाम्। पार्श्वतः श्रोणितः। शितामतः। उत्सादत इत्युत्ऽसादतः। अङ्गादङ्गादित्यङ्गात्ऽअङ्गात्। अवत्तानाम्। करत्। एवम्। इन्द्रः। जुषताम्। हविः। होतः। यज॥४५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे होतर्यथा होता घासेअज्राणां यवसप्रथमानां सुमत्क्षराणामग्निष्वात्तानां पीवोपवसनानां शतरुद्रियाणामवत्तानां पार्श्वतः श्रोणितः शितामत उत्सादतोऽङ्गादङ्गाद्धविरिन्द्रं च करदिन्द्रो जुषतां यथाऽद्यर्षभस्य हविषो मध्यतो मेद उद्भृतमावयत् द्वेषोभ्यः पुरा गृभः पौरुषेय्याः पुरा नूनं यक्षदेवं घसत् तथा त्वं यज॥४५॥
पदार्थः
(होता) आदाता (यक्षत्) सत्कुर्यात् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (ऋषभस्य) उत्तमस्य (हविषः) आदातुमर्हस्य (आ) (अवयत्) व्याप्नुयात् (अद्य) (मध्यतः) मध्ये भवात् (मेदः) स्निग्धम् (उद्भृतम्) उत्कृष्टतया पोषितम् (पुरा) पुरस्तात् (द्वेषोभ्यः) विरोधिभ्यः (पुरा) (पौरुषेय्याः) पुरुषसम्बन्धिन्या विद्यायाः (गृभः) ग्रहीतुं योग्यायाः (घसत्) अद्यात् (नूनम्) (घासेअज्राणाम्) (यवसप्रथमानाम्) यवसस्य विस्तारकाणाम् (सुमत्क्षराणाम्) सुष्ठु प्रमादनाशकानाम् (शतरुद्रियाणाम्) शतानां रुद्राणां दुष्टरोदकानाम् (अग्निष्वात्तानाम्) अग्निना जाठराग्निना सुष्ठु गृहीतान्नानाम् (पीवोपवसनानाम्) स्थूलदृढाऽच्छादनानाम् (पार्श्वतः) इतस्ततोङ्गात् (श्रोणितः) क्रमशः (शितामतः) तीक्ष्णत्वेनोछिन्नरोगात् (उत्सादतः) त्यागमात्रात् (अङ्गादङ्गात्) प्रत्यङ्गात् (अवत्तानाम्) उदारचेतसाम् (करत्) कुर्यात् (एवम्) (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (जुषताम्) सेवताम् (हविः) रोगनाशकं वस्तु (होतः) (यज)॥४५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या विदुषां संगेन दुष्टान् निवार्य्य श्रेष्ठान् सत्कृत्य ग्रहीतव्यं गृहीत्वाऽन्यान् ग्राहयित्वा सर्वानुन्नयन्ति, ते पूज्या जायन्ते॥४५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (होतः) देने हारे! जैसे (होता) लेने हारा पुरुष (घासेअज्राणाम्) भोजन करने में प्राप्त होने (यवसप्रथमानाम्) जौ आदि अन्न वा मिले हुए पदार्थों को विस्तार करने और (सुमत्क्षराणाम्) भलीभांति प्रमाद का विनाश करने वाले (अग्निष्वात्तनाम्) जाठराग्नि अर्थात् पेट में भीतर रहने वाली आग से अन्न ग्रहण किये हुए (पीवोपवसनानाम्) मोटे-पोढ़े उड़ाने-ओढ़ने (शतरुद्रियाणाम्) और सैकड़ों दुष्टों को रुलाने हारे (अवत्तानाम्) उदारचित्त विद्वानों के (पार्श्वतः) और पास के अंग वा (श्रोणितः) क्रम से वा (शितामतः) तीक्ष्णता के साथ जिससे रोग छिन्न-भिन्न हो गया हो, उस अंग वा (उत्सादतः) त्यागमात्र वा (अङ्गादङ्गात्) प्रत्येक अंग से (हविः) रोगविनाश करने हारी वस्तु और (इन्द्रम्) परमैश्वर्य को सिद्ध (करत्) करे और (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य वाला राजा उस का (जुषताम्) सेवन करे तथा वह राजा जैसे (अद्य) आज (ऋषभस्य) उत्तम (हविषः) लेने योग्य पदार्थ के (मध्यतः) बीच में उत्पन्न हुआ (मेदः) चिकना पदार्थ (उद्भृतम्) जो कि उत्तमता से पुष्ट किया गया अर्थात् सम्हाला गया हो उस को (आ, अवयत्) व्याप्त हो सब ओर से प्राप्त हो (द्वेषोभ्यः) वैरियों से (पुरा) प्रथम (गृभः) ग्रहण करने योग्य (पौरुषेय्याः) पुरुषसम्बन्धिनी विद्या के सम्बन्ध से (पुरा) पहिले (नूनम्) निश्चय के साथ (यक्षत्) सत्कार करे वा (एवम्) इस प्रकार (घसत्) भोजन करे वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की संगति किया कर॥४५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य विद्वानों के संग से दुष्टों को निवारण तथा श्रेष्ठ उत्तम जनों का सत्कार कर लेने योग्य पदार्थ को लेकर और दूसरों को ग्रहण करा सब की उन्नति करते हैं, वे सत्कार करने योग्य होते हैं॥४५॥
विषय
अधिकारदान, उनके सहायकों के कर्तव्य । महीधर आदि के किये बकरे की बलिपरक अर्थ का सप्रमाण खण्डन । सरस्वती नाम विद्वत्सभा को अधिकार, उसके सहायकों का कर्तव्य । छाग, मेष, ऋषभ और उनके हवि, मद, तथा उनके पार्श्व, कटि, प्रजनन आदि अंगों के अवदान करने का रहस्य ।
भावार्थ
( होता इन्द्रं यक्षत् ) पूर्वोक्त अधिकार प्रदाता पुरुष इन्द्र नाम पदाधिकारी सेनानायक या राजा को नियुक्त करे । वह इन्द्र नाम पदाधिकारी (ऋषभस्य) ज्ञानवान्, सर्वश्रेष्ठ पुरुष के ( हविषः) ग्रहण योग्य अधिकार और अन्नादि भृति को ( आवयत् ) प्राप्त करे । ( अद्य मध्यतः ० यज० । इत्यादि) पूर्ववत् ।
टिप्पणी
१ होता २ हविष ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
( १ ) भुरिक् प्राजापत्या उष्णिक् । ( २ ) भुरिगभिकृतिः । ऋषभः ॥
विषय
'ऋषभक' का प्रयोग व यजन
पदार्थ
१. (होता) = यज्ञशील पुरुष (इन्द्रम्) = आत्मशक्ति को (यक्षत्) = अपने साथ सङ्गत करता है और इसी उद्देश्य से वह इन्द्र (ऋषभस्य) = ऋषभ का भक्षण करता है। २. (अद्य) = आज इस ऋषभक के (मध्यत:) = मध्य से (मेदः) = औषध-गुणयुक्त चिकना गूदा (उद्धृतम्) = निकाला गया है । (पुरा) = पूर्व इसके कि (द्वेषोभ्यः) = यह विकृतरस होकर अप्रीतिजनक हो जाए और (पुरा) = पूर्व इसके कि (पौरुषेय्या गृभः) = मनुष्य को ग्रहण कर [पकड़] लेनेवाली कोई बीमारी के कृमि इसमें आ जाएँ, (घसत्) = इन्द्र इसका भक्षण करे। ३. (नूनम्) = निश्चय से (घासे अज्राणाम्) = भोजन में सबसे प्रथम प्रयोग करने योग्य, (यवसप्रथमानाम्) = अन्नों में मुख्य (सुमत्क्षराणाम्) = उत्तम आनन्दों को देनेवाली (शतरुद्रियाणाम्) = सैकड़ों रोगों को दूर करनेवाली, (अग्निष्वात्तानाम्) = आग पर पकाई गई, (पीवोपवसनानाम्) = त्वचा के साथ-साथ स्थूल चर्बी के वस्त्र को प्राप्त करानेवाली, (पार्श्वतः) = पाश्र्व के दृष्टिकोण से (श्रोणितः) = कटिप्रदेश के दृष्टिकोण से (शितामतः) = बाहुओं के दृष्टिकोण से अथवा आमाशय के दृष्टिकोण से, (उत्सादतः) = कटे हुए अङ्ग के दृष्टिकोण से (अङ्गात् अङ्गात्) = एक-एक अङ्ग के दृष्टिकोण से अवत्तानाम्-काटी हुई इस ऋषभक ओषधि के गूदे का (करत्) = यह इन्द्र सेवन करे। ४. (एवम्) = इस प्रकार (इन्द्रः) = आत्मशक्ति का विकास करनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष (हविः) = अग्निहोत्र में हवन की गई इस औषधि का (जुषताम्) = सेवन करे। ५. (होतः) = हे यज्ञशील पुरुष ! (यज) = तू इस ऋषभक ओषधि का यज्ञ करनेवाला बन ।
भावार्थ
भावार्थ- आत्मशक्ति के विकास के लिए हम ऋषभक ओषधि का यज्ञ करें। हविरूप में उसका ग्रहण करें। उसका मुख से भी प्रयोग करें। यह ध्यान रक्खें कि वह पड़ी पड़ी विकृत - रसवाली व रोगकृमियों से आक्रान्त न हो जाए। इसके प्रयोग से हमारा शरीर सर्वांग सुन्दर बनेगा।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे विद्वानांच्या संगतीने दुष्टांचा नाश व श्रेष्ठ लोकांचा सन्मान करण्यासाठी योग्य पदार्थांचे चयन करून इतरांनाही त्याप्रमाणे चयन करावयास लावून सर्वांची उन्नती करतात ते सन्माननीय ठरतात.
विषय
पुनश्च, त्याच विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (होतः) दान देणाऱ्या मनुष्या, ज्याप्रमाणे (होता) घेणारा मनुष्य (घासेअज्राणाम्) भोजनासाठी प्राप्तव्य (आवश्यक) अशा (यवसप्रथमानाम्) यव आदी धान्यांचा अथवा शुद्ध वा मिश्रत धान्यांचा विस्तार करतो (त्यापासून वेगवेगळे भोज्य पदार्थ निर्मितो) आणि (सुमत-क्षराणां) प्रमाद वा आलस्याचा नाश करणाऱ्या (अग्निष्वात्ताम्) जाठराग्नीद्वारे त्या पदार्थांचा उपभोग घेतो (मनसोक्त जेवतो) (तसे हे होता, तूही जेवत जा) याशिवाय (पीवोपवसानानाम्) जाडजूड पांघरून घेणाऱ्या (जाडे-भरडे वस्त्र नेसणाऱ्या आणि (आपल्या ज्ञानाद्वारे) (शतरुद्रियाणाम्) शेकडो वा अनेक (ज्ञानगर्विष्ठ) दुष्टांना रडविणाऱ्या (अवत्तानाम्) उदारचेता विद्वानांच्या (पार्श्वतः) जवळ राहून अथवा (श्रोणितः) क्रमाक्रमाने (शितामतः) त्या विद्वानांच्या ज्या ज्या अंगातून रोग नष्ट झाला असेल, त्या त्या नीरोग अवयवातून (उत्सादतः) आपल्या अंगातील रोग नष्ट करीत जो तो विद्वान जसा) अङ्गअङ्गात्) प्रत्येक अंगापासून (हविः) रोगविनाशक वस्तू आणि (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य (करत्) प्राप्त करतो (तसे तूही कर) या सर्व हितकारी वस्तूचे (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यशाली राजाने (जुषताम्) सवेन करावे. (अघ) आज (ऋषभस्य) उत्तम आणि (हीवषः) घेण्यास चांगले अशा (दूध आदी) पदार्थाच्या (मध्यतः) मधून निघणाऱ्या (मेदः) स्निग्ध (तूप, लोणी आदी) पदार्थ की जे (उद्भृतम्) योग्य व उत्तम पद्धतीद्वारे काढण्यात आले आहेत अथवा काढून सांभाळून ठेवण्यात आले आहेत, त्या (तूप आदी) पदार्थांना (आ, अवयत्) सर्व दिशांतून राजाने प्राप्त करावे आणि (द्वेषोभ्यः) शत्रूंच्या (युस) आदी (म्हणजे शत्रू त्या पदार्थांचे हरण करतील, त्या आधी) (गृभः) ग्रहणीय (पौरुषेय्याः) पुरुष विद्या आणि (त्या विद्या शोधणाऱ्या विद्वानांचा) (पुरा) सर्वप्रथम (नूनम्) अवश्यमेव (यक्षत्) सत्कार करावा. अशाप्रकारे जसे (राजा, होता अथवा विद्वान) या पदार्थांचे भोजनात (घसत्) सेवन करतात, त्याप्रमारे हे होता, तू देखील (यज) आपले सर्व व्यवहार करीत जा (त्या उपयुक्त पदार्थाचे सेवन करीत जा) ॥45॥
भावार्थ
भावार्थ - मंत्रात वाचकलुप्तोपमा आहे. जे लोक विद्वानांच्या संगतीत राहून दुष्टांपासून आपले रक्षण करतात आणि श्रेष्ठ जनांच्या सत्काराकरिता (त्यांच्या गुणांचा आणि जीवनकार्याचा गौरव करण्याकरिता) योग्य पदार्थ एकत्रित करतात आणि इतरांनाही तसे कार्य करण्याची प्रेरणा देऊन सर्वांची उन्नती घडवून आणतात, ते अवश्य सत्कारणीय वा प्रशंसनीय असतात. ॥45॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as a learned person, attains to supremacy, and uses a medicine which cures ills of the sides, of the thighs, of a limb suffering acute pain, of excretory organ, nay of each organ, of persons, . beautiful to sit for dinner, cultivators of barley, showerers of happiness, digesters of meals, wearers of rough, ungaudy clothes, chastisers of hundreds of the wicked, magnanimous in spirit and which the king uses, and just as the king daily acquires well protected nice greasy substance derived out of oblation, certainly respects and eats it before it is snatched by the enemies or a respectable woman asks for it, so shouldst thou, O sacrificer be conversant with all dealings.
Meaning
Let the man of yajna perform the yajna in honour of Indra, wonder and glory of the power of nature and the nation, with the most powerful holy foods of the strength of the bull and the rishabha plant. May Indra partake of the food and raise the pranic vitality of the body-system from the middle of the body, for sure, before the anti-system forces of ailments take hold of the body and make their home there. And may Indra delight in protecting and promoting the subtle vitality of the pranas which are ever active in the digestion of food, first in assimilating the assimilable and eliminating the waste, exhilarating, creating a hundred forms of energy, vital fire of the system, and essential strength of the body free from obesity. May Indra protect and promote the vitality expressed and perceptible from the sides, the back, hyperactive parts, weaker and delicate parts, in short, from every vital part of the body system. Man of yajna, offer the holy food of yajna for Indra.
Translation
Let the priest offer oblations to Indra (the resplendent one). May he enjoy today the sacred food prepared from the milk and butter taken from the cow, before the malicious people come and the hordes of snatching men arrive. May he eat the delicious foods, in which the barley is the first and the foremost, so tasty that these slip down the gullet of their own, worthy of hundreds of praises, well-cooked in the fire, covered with a thick layer (of melted butter), taken out from the side, from the middle, from the shoulders and from the deepest part as well. Thus with the portions taken from each and every part, may the resplendent one make his repast and enjoy the sacrificial food. O priest, offer oblations. (1)
Notes
Same as 44, the only change being Indra and rṣabha in place of Sarasvati and meșa.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (হোতঃ) দাতা ! যেমন (হোতা) গ্রহীতা পুরুষ (ঘাসেঅজ্রাণাম্) ভোজন করিতে প্রাপ্তিকারী (য়বসপ্রথমানাম্) যবাদি অন্ন অথবা মিশ্রিত পদার্থগুলিকে বিস্তারকারী এবং (সুমৎক্ষরাণাম্) ভালমত প্রমাদ নষ্টকারী (অগ্নিষ্বাত্তানাম্) জঠরাগ্নি অর্থাৎ পেটের ভিতর নিবাসকারী অগ্নি দ্বারা গৃহীত অন্ন (পীবোপবসনানাম্) স্থূল ও দৃঢ় আচ্ছাদন (শতরুদ্রিয়াণাম্) এবং শত শত দুষ্টদিগকে রোদনকারী (অবত্তানাম্) উদারচিত্ত বিদ্বান্দিগের (পর্শ্বতঃ) এবং পাশের অঙ্গ অথবা (শ্রোণিতঃ) ক্রমপূর্বক অথবা (শিতামতঃ) তীক্ষ্নতাসহ যদ্দ্বারা রোগ ছিন্ন-ভিন্ন হইয়া গিয়াছে সেই অঙ্গ অথবা (উৎসাদতঃ) ত্যাগমাত্র অথবা (অঙ্গাদঙ্গাৎ) প্রত্যেক অঙ্গ দ্বারা (হবিঃ) রোগ বিনাশকারী বস্তু এবং (ইন্দ্রম্) পরমৈশ্বর্য্যকে সিদ্ধ (করৎ) করিবে এবং (ইন্দ্রঃ) পরম ঐশ্বর্য্যযুক্ত রাজা তাহার (জুষতাম্) সেবন করিবে তথা সেই রাজা যেমন (অদ্য) আজ (ঋষভস্য) উত্তম (হবিষঃ) গ্রহণীয় পদার্থের (মধ্যতঃ) মধ্যে উৎপন্ন (মেদঃ) স্নিগ্ধ পদার্থ (উদ্ভৃতম্) যাহা উত্তমতাপূর্বক পুষ্ট করা হইয়াছে অর্থাৎ সামলানো হইয়াছে তাহাকে (আ, অজয়ৎ) ব্যাপ্ত হউক (দ্বেষোভ্যঃ) শত্রুদের দ্বারা (পুরা) প্রথম (গৃভঃ) গ্রহণীয় (পৌরুষেয়্যাঃ) পুরুষ সম্পর্কীয় বিদ্যা দ্বারা (পুরা) প্রথমে (নূনম্) নিশ্চয় সহ (য়ক্ষৎ) সৎকার করিবে অথবা (এবম্) এই প্রকার (ঘসৎ) ভোজন করিবে, সেইৱূপ তুমি (য়জ) সকল ব্যবহারের সঙ্গতি করিতে থাক ॥ ৪৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্য বিদ্বান্দিগের সঙ্গ দ্বারা দুষ্টদিগের নিবারণ তথা শ্রেষ্ঠ উত্তম ব্যক্তিদিগের সৎকার করিবার যোগ্য পদার্থকে লইয়া এবং অন্যান্যকে গ্রহণ করাইয়া সকলের উন্নতি করে তাহারা সৎকার করিবার যোগ্য হয় ॥ ৪৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
হোতা॑ য়ক্ষ॒দিন্দ্র॑মৃষ॒ভস্য॑ হ॒বিষ॒ऽআব॑য়দ॒দ্য ম॑ধ্য॒তো মেদ॒ऽউদ্ভৃ॑তং পু॒রা দ্বেষো॑ভ্যঃ পু॒রা পৌর॑ুষেয়্যা গৃ॒ভো ঘস॑ন্নূ॒নং ঘা॒সেऽঅ॑জ্রাণাং॒ য়ব॑সপ্রথমানাᳬं সু॒মৎক্ষ॑রাণাᳬं শতরু॒দ্রিয়া॑ণামগ্নিষ্বা॒ত্তানাং॒ পীবো॑পবসনানাং পার্শ্ব॒তঃ শ্রো॑ণি॒তঃ শি॑তাম॒তऽউ॑ৎসাদ॒তোऽঙ্গা॑দঙ্গা॒দব॑ত্তানাং॒ কর॑দে॒বমিন্দ্রো॑ জু॒ষতা॑ᳬं হ॒বির্হোত॒র্য়জ॑ ॥ ৪৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
হোতেত্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । য়জমানর্ত্বিজো দেবতাঃ । পূর্বস্য ভুরিক্প্রাজাপত্যোষ্ণিক্ ছন্দঃ । আবয়দিত্যুত্তরস্য ভুরিগভিকৃতিশ্ছন্দঃ ।
ঋষভঃ স্বরঃ ।
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