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यजुर्वेद अध्याय - 21

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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 58
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - आद्यस्याऽत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः
    57

    दे॒वोऽअ॒ग्निः स्वि॑ष्ट॒कृद्दे॒वान् य॑क्षद् यथाय॒थꣳ होता॑रा॒विन्द्र॑म॒श्विना॑ वा॒चा वा॒चꣳ सर॑स्वतीम॒ग्निꣳ सोम॑ स्विष्ट॒कृत् स्वि॑ष्ट॒ऽइन्द्रः॑ सु॒त्रामा॑ सवि॒ता वरु॑णो भि॒षगि॒ष्टो दे॒वो वन॒स्पतिः॒ स्विष्टा दे॒वाऽआ॑ज्य॒पाः स्वि॑ष्टोऽअ॒ग्निर॒ग्निना॒ होता॑ हो॒त्रे स्वि॑ष्ट॒कृद् यशो॒ न दध॑दिन्द्रि॒यमूर्ज॒मप॑चिति स्व॒धां व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥५८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वः। अ॒ग्निः। स्वि॒ष्ट॒कृदिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत्। दे॒वान् य॒क्ष॒त्। य॒था॒य॒थमिति॑ यथाऽय॒थम्। होता॑रौ। इन्द्र॑म्। अ॒श्विना॑। वा॒चा। वाच॑म्। सर॑स्वतीम्। अ॒ग्निम्। सोम॑म्। स्वि॒ष्ट॒कृदिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत्। स्वि॑ष्ट॒ इति॒ सुऽइ॑ष्टः। इन्द्रः॑। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। स॒वि॒ता। वरु॑णः। भि॒षक्। इ॒ष्टः। दे॒वः। वन॒स्पतिः॑। स्वि॑ष्टा॒ इति॒ सुऽइ॑ष्टाः। दे॒वाः। आ॒ज्य॒पा इत्या॑ज्य॒ऽपाः। स्वि॑ष्ट॒ इति॒ सुऽइ॑ष्टः। अ॒ग्निः। अ॒ग्निना॑। होता॑। हो॒त्रे। स्वि॒ष्ट॒कृदिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत्। यशः॑। न। दध॑त्। इ॒न्द्रि॒यम्। ऊर्ज॑म्। अप॑चिति॒मित्यप॑ऽचितिम्। स्व॒धाम्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवोऽअग्निः स्विष्टकृद्देवान्यक्षद्यथायथँ होताराविन्द्रमश्विना वाचा वाचँ सरस्वतीमग्निँ सोमँ स्विष्टकृत्स्विष्ट इन्द्रः सुत्रामा सविता वरुणो भिषगिष्टो देवोवनस्पतिः स्विष्टा देवाऽआज्यपाः स्विष्टोऽअग्निरग्निना होता होत्रे स्विष्टकृद्यशो न दधदिन्द्रियमूर्जमपचितिँ स्वधाँ वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवः। अग्निः। स्विष्टकृदिति स्विष्टऽकृत्। देवान् यक्षत्। यथायथमिति यथाऽयथम्। होतारौ। इन्द्रम्। अश्विना। वाचा। वाचम्। सरस्वतीम्। अग्निम्। सोमम्। स्विष्टकृदिति स्विष्टऽकृत्। स्विष्ट इति सुऽइष्टः। इन्द्रः। सुत्रामेति सुऽत्रामा। सविता। वरुणः। भिषक्। इष्टः। देवः। वनस्पतिः। स्विष्टा इति सुऽइष्टाः। देवाः। आज्यपा इत्याज्यऽपाः। स्विष्ट इति सुऽइष्टः। अग्निः। अग्निना। होता। होत्रे। स्विष्टकृदिति स्विष्टऽकृत्। यशः। न। दधत्। इन्द्रियम्। ऊर्जम्। अपचितिमित्यपऽचितिम्। स्वधाम्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। व्यन्तु। यज॥५८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 58
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे विद्वन्! यथा वसुधेयस्य वसुवने स्विष्टकृद्देवोऽग्निर्देवान् यथायथं यक्षद् यथा होतारावश्विनेन्द्रं वाचा सरस्वतीं वाचमग्निं सोमं च यथायथं गमयतो यथा स्विष्टकृत् स्विष्टः सुत्रामेन्द्रः सविता वरुणो भिषगिष्टो देवो वनस्पतिः स्विष्टा आज्यपा देवा अग्निना स्विष्टो होता स्विष्टकृदग्निर्होत्रे यशो नेन्द्रियमूर्जमपचितिं स्वधां यथायथं दधद् यथैतानेतानि व्यन्तु तथा यथायथं यज॥५८॥

    पदार्थः

    (देवः) दिव्यः (अग्निः) पावकः (स्विष्टकृत्) यः शोभनमिष्टं करोति सः (देवान्) दिव्यगुणकर्मस्वभावान् पृथिव्यादीन् (यक्षत्) यजेत् संगच्छेत् (यथायथम्) यथायोग्यम् (होतारौ) आदातारौ (इन्द्रम्) सूर्य्यम् (अश्विना) वायुविद्युतौ (वाचा) वाण्या (वाचम्) वाणीम् (सरस्वतीम्) विज्ञानयुक्ताम् (अग्निम्) पावकम् (सोमम्) चन्द्रम् (स्विष्टकृत्) सुष्ठु सुखकारी (स्विष्टः) शोभनश्चासाविष्टश्च सः (इन्द्रः) परमेश्वर्ययुक्तो राजा (सुत्रामा) सुष्ठु पालकः (सविता) सूर्य्यः (वरुणः) जलसमुदायः (भिषक्) रोगविनाशकः (इष्टः) संगन्तुमर्हः (देवः) दिव्यस्वभावः (वनस्पतिः) पिप्पलादिः (स्विष्टाः) शोभनमिष्टं येभ्यस्ते (देवाः) दिव्यस्वरूपाः (आज्यपाः) य आज्यं पातुमर्हं रसं पिबन्ति ते (स्विष्टः) शोभनमिष्टं यस्मात्सः (अग्निः) वह्निः (अग्निना) विद्युता (होता) दाता (होत्रे) दात्रे (स्विष्टकृत्) शोभनेष्टकारी (यशः) कीर्तिकरं धनम् (न) इव (दधत्) धरेत् (इन्द्रियम्) इन्द्रस्य लिङ्गं श्रोत्रादि (ऊर्जम्) बलम् (अपचितिम्) सत्कृतिम् (स्वधाम्) अन्नम् (वसुवने) ऐश्वर्य्यसेवकाय (वसुधेयस्य) संसारस्य (व्यन्तु) (यज)॥५८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्या ईश्वरनिर्मितानेतन्मन्त्रोक्तयज्ञादीन् पदार्थान् विद्ययोपयोगाय दधति, ते स्विष्टानि सुखानि लभन्ते॥५८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन्! जैसे (वसुधेयस्य) संसार के बीच में (वसुवने) ऐश्वर्य को सेवने वाले सज्जन मनुष्य के लिए (स्विष्टकृत्) सुन्दर चाहे हुए सुख का करने हारा (देवः) दिव्य सुन्दर (अग्निः) आग (देवान्) उत्तम गुण-कर्म-स्वभावों वाले पृथिवी आदि को (यथायथम्) यथायोग्य (यक्षत्) प्राप्त हो वा जैसे (होतारा) पदार्थों के ग्रहण करने हारे (अश्विना) पवन और बिजुलीरूप अग्नि (इन्द्रम्) सूर्य (वाचा) वाणी से (सरस्वतीम्) विशेष ज्ञानयुक्त (वाचम्) वाणी से (अग्निम्) अग्नि (सोमम्) और चन्द्रमा को यथायोग्य चलाते हैं वा जैसे (स्विष्टकृत्) अच्छे सुख का करने वाला (स्विष्टः) सुन्दर और सब का चाहा हुआ (सुत्रामा) भलीभांति पालने हारा (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्त राजा (सविता) सूर्य (वरुणः) जल का समुदाय (भिषक्) रोगों का विनाश करने हारा वैद्य (इष्टः) संग करने योग्य (देवः) दिव्यस्वभाव वाला (वनस्पतिः) पीपल आदि (स्विष्टाः) सुन्दर चाहा हुआ सुख जिनसे होवे (आज्यपाः) पीने योग्य रस को पीने हारे (देवाः) दिव्यस्वरूप विद्वान् (अग्निना) बिजुली के साथ (स्विष्टः) (होता) देने वाला कि जिससे सुन्दर चाहा हुआ काम हो (स्विष्टकृत्) उत्तम चाहे हुए काम को करने वाला (अग्निः) अग्नि (होत्रे) देने वाले के लिए (यशः) कीर्ति करने हारे धन के (न) समान (इन्द्रियम्) जीव के चिह्न कान आदि इन्द्रियां (ऊर्जम्) बल (अपचितिम्) सत्कार और (स्वधाम्) अन्न को (दधत्) प्रत्येक को धारण करे वा जैसे उन उक्त पदार्थों को ये सब (व्यन्तु) प्राप्त हों, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की संगति किया कर॥५८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य ईश्वर के बनाये हुए इस मन्त्र में कहे यज्ञ आदि पदार्थों को विद्या से उपयोग के लिए धारण करते हैं, वे सुन्दर चाहे हुए सुखों को पाते हैं॥५८॥

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    विषय

    उक्त अधिकारियों के स्थान, मान, पद और उनका ऐश्वर्यवृद्धि का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( स्विष्टकृत् ) उत्तम रीति से अधिकार प्रदान करने वाला (देव: अभिः) विद्वान् अग्रणी पुरुष ( देवान् यक्षत् ) अन्य विद्वान्, विजयशील, पुरुषों को नियुक्त करे । (होतारौ ) अधिकार प्रदान करने वाले (अश्विना) अश्वी नामक व्यापक अधिकार वाले पुरुष (वाचा) अपनी आज्ञा वाणी से ( इन्द्रम् ) इन्द्र ऐश्वर्यवान्, शत्रुनाशक पुरुष को नियुक्त करते हैं । वे ही ( वाचम् ) व्यवस्था, वाणी का विधान करते हैं । वे ही ( सरस्वतीम् ) विद्वत्-सभा को, ( अग्निम् ) अग्रणी सेनापति को और ( सोमम् ) ऐश्वर्यवान् राजा को, नियुक्त करते हैं । (स्विष्टकृत् स्विष्टः ) उत्तम शासक पुरुष भी उत्तम आदर के पद को प्राप्त हो । (सुत्रामा इन्द्रः) उत्तम रक्षक इन्द्र नामक पदाधिकारी, (सविता, वरुणः भिषग्) सविता, वरुण और चिकित्सक, (देवः वनस्पतिः) वनस्पति नामक विजेता सेनापति ये सब (इष्टः) उचित आदर प्राप्त करें । (आज्यपाः देवाः) बल वीर्य के रक्षक विद्वान् पुरुष (स्विष्टाः) उत्तम आदर प्राप्त करें। (अग्निना) अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष द्वारा ही (अग्निः) उसी प्रकार का तेजस्वी पुरुष (स्विष्टः) उत्तम आदर पद प्राप्त करे । और (होता) अधिकार दाता पुरुषं(होत्रे) अन्य अधिकार दाता पुरुष को ( स्विष्टकृत् ) उत्तम आदर मान दे । और वह (यशः) यश, (इन्द्रियम् ) ऐश्वर्य ( ऊर्जम् ) बल, पराक्रम, ( अपचितिम् ) आदर पूजा, ( स्वधाम् ) अन्न वेतनादि ( दधत् ) प्रदान करे । ये सभी ( वसुवने ) ऐश्वर्य के अधिकारी बड़े राजा के कार्य के लिये ( वसुधेयस्य व्यन्तु ) उचित धनैश्वर्य प्राप्त करें । हे होत: ! (यज) उन सबको अधिकार और वेतनादि प्रदान कर ।

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    विषय

    स्विष्टकृद् अग्निः

    पदार्थ

    १. (देवः) = दिव्य गुणोंवाला (अग्निः) = यह यज्ञ का अग्नि (स्विष्टकृत्) = उत्तम इष्टों को पूर्ण करनेवाला है। वस्तुतः यज्ञाग्नि सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाली है ('एष वोऽस्त्विष्टकामधुक्')। २. इस यज्ञाग्नि को अपनानेवाला व्यक्ति (यथायथम्) = ठीकरूप से (देवान् यक्षत्) = देवों का (यजन) = अपने साथ मेल करता है। ३. (होतारौ) = मित्र और वरुण का अपने साथ मेल करता है, (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली परमात्मा का अपने साथ मेल करता है। वस्तुतः मित्र और वरुण के साथ मेल परमात्मा से मेल का साधन होता है। सबके साथ स्नेह करनेवाला तथा द्वेष के अभाववाला व्यक्ति ही परमात्म-प्राप्ति का अधिकारी बनता है। ४. यह यज्ञशील पुरुष (अश्विना) = प्राणापान का अपने साथ मेल करता है। यज्ञ से प्राणापान की शक्ति बढ़ती है । ५. (वाचा) = [मन्त्रेण-म०] ज्ञान की वाणियों के द्वारा (वाचम्) = वाणी की शक्ति को बढ़ाता है तथा (सरस्वती) = इस मन्त्रों की वाणी से ज्ञानाधिदेवता का भी आराधन करता है। ६. इस यज्ञ से (अग्निं सोमम्) = अग्नितत्त्व तथा सोमतत्त्व का भी अपने साथ मेल करता है। अग्नितत्त्व तेजस्विता का प्रतीक है तो सोम शान्ति का । एवं इस यज्ञशील पुरुष में 'शक्ति व शान्ति' दोनों का समन्वय होता है। ७. इस प्रकार इन देवताओं से अपना मेल करता हुआ यह यज्ञशील पुरुष (स्विष्टकृत्) = अपने उत्तम इष्टों को सिद्ध करनेवाला होता है। इसके द्वारा (सुत्रामा) = उत्तम त्राण करनेवाला वह (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (स्विष्टः) उत्तमता से अपने साथ सङ्गत किया जाता है। सविता निर्माण की देवता, (वरुणः) = द्वेष निवारण की देवता जो (भिषक्) = सब रोगों की चिकित्सक है, वह (इष्ट:) = अपने साथ सङ्गत की जाती है। वस्तुतः प्रभु स्मरणपूर्वक मनुष्य निर्माण के कामों में लगा रहे और किसी से द्वेष न करे तो वह रोगों का शिकार नहीं हो सकता। बीमार वही पड़ा करते हैं जो [क] प्रभु को भूल जाते हैं। [ख] आलसी बने रहकर उत्तम कार्यों में अपने को व्यापृत नहीं रखते तथा [ग] औरों से द्वेष करते रहते हैं, औरों की उन्नति से ईर्ष्या के कारण जलते रहते हैं। ८. इस यज्ञशील पुरुष के द्वारा (देवः) = दिव्य गुणोंवाला (वनस्पतिः) = यह वानस्पतिक भोजन ही (स्विष्ट:) = अपने साथ सङ्गत किया जाता है। ९. साथ ही (आज्यपाः देवा:) = घृत आदि सात्त्विक पदार्थों का सेवन करनेवाले विद्वान् पुरुष (स्विष्टः) = उत्तमता से अपने साथ सङ्गत किये जाते हैं, अर्थात् यह यज्ञशील पुरुष उत्तम सात्त्विक भोजन करता है तथा विद्वानों के साथ अपना मेल बढ़ाता है । १०. इसी यज्ञशील पुरुष से अग्निना इस यज्ञिय अग्नि के द्वारा (अग्निः) = वह परमात्मा (स्विष्टः) = उत्तमता से अपने साथ सङ्गत किया जाता है और यह (होता) = सब पदार्थों को देनेवाला या संसारयज्ञ को चलानेवाला प्रभु (होत्रे) = इस दानपूर्वक अदन करनेवाले के लिए (स्विष्टकृत्) = सब उत्तम इष्टों को सिद्ध करनेवाला होता है। यह सृष्टियज्ञ का होता प्रभु (यशः) = यश का (न) = और (इन्द्रियम्) = इन्द्रियों की शक्ति को, (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति को (अपचितिम्) = पूजा को तथा (स्वधाम्) = शरीर के धारण करनेवाले अन्न को (दधत्) = धारण करता है। ११. (वसुवने) = निवासक तत्त्वों की प्राप्ति के लिए (वसुधेयस्य) = वीर्य का (व्यन्तु) = तुम शरीर में व्यापन करो और इस सबके लिए (यज) = यज्ञशील बनो ।

    भावार्थ

    भावार्थ-यज्ञशील पुरुष सब अच्छाइयों को अपने साथ सङ्गत करनेवाला बनता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जी माणसे ईश्वराने निर्माण केलेल्या, या मंत्रात सांगितल्याप्रमाणे (अग्नी, सूर्य, चंद्र, विद्यूत, वायू, जल, ज्ञानयुक्त वाणी, वैद्य, अन्न इत्यादी) यज्ञीय पदार्थांचा उपयोग करून घेतात ती इच्छित सुख प्राप्त करतात.

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    विषय

    पुढील मंत्रात तोच विषय -

    शब्दार्थ

    (पूर्ण मंत्र मूळ पुस्तकात पहावा)^शब्दार्थ - हे विद्वान, ज्याप्रमाणे (वसुधेयस्य) या जगामध्ये (वसुवने) ऐश्वर्य सेवन करणाऱ्या, सज्जन मनुष्यासाठी (स्विष्टकृत्‌) आनंददायी आणि सर्वांसाठी सुख इच्छिणारा (देवः) दिव्य, सुंदर (अग्निः) (देवान्‌) उत्तम गुण, कर्म आणि स्वभाव असलेल्या पृथ्वी आदी लोकांना (यथायथम्‌) यथोचित रूपाने (यक्षत्‌) प्राप्त होतो (अग्नी सर्वांना इच्छित सुख मिळवून देतो) (तसे हे विद्वान, तूही त्या अग्नीपासून सुख प्राप्त कर) अथवा जसे (होतारा) सर्व पदार्थांना प्राप्त असणारे (सर्वत्रव्याप्त) (अश्विना) वायू व विद्युतरूप अग्नी आणि (इन्द्रम्‌) सूर्य (पदार्थांना गती वा प्ररणा देतात) तसेच (वाचा) (सरस्वतीम्‌) एका विदुषी स्त्रीला (वाचम्‌) वाणी देते तसेच पवन, विद्युत व सूर्य जसे (अग्निम्‌) अग्नी आणि (सोमम्‌) चन्द्र यांना यथोचितपणे चालवतात, (त्यांच्या कक्षेत गती देतात) (तसे हे विद्वान्‌, तुम्हालाही उत्तम कर्म करण्यास प्रेरणा देवो) अथवा ज्याप्रमाणे (स्विष्टकृत्‌) प्रिय आनंद देणारा (स्विष्टः) सर्वांना प्रिय वा सर्वव्हांछित (सुत्रामा) चांगल्याप्रकारे (प्रजेचे) पालन करणारा (इन्द्रः) एक परम ऐश्वर्यशाली राजा (प्रजेला) प्रिय असतो) जसा (सविता) सूर्य (वरूणः) जलाला (चाहतो) (जलाचे शोषण करून त्याला आत्मसात करतो) आणि जसा (भिषक्‌) रोगनिवारक वैद्य (इष्टः) सर्वांना प्रिय असतो, (देवः) दिव्य गुणवान (वनस्पितिः) पिंपळ आदी वृक्ष (सर्वांचे हितकारक गुणधारण करतात, तसे हे विद्वान तू गूण धारण कर) तसेच ज्याप्रमाणे (स्विष्टाः) ज्यांच्यामुळे इच्छित सुख प्राप्त होते, असे ते (आज्यपाः) उत्तम पेय रसांचे पान करणारे (देवाः) दिव्य विद्वान (वैज्ञानिक) (अग्निना) विद्युत (शक्ती) द्वारा (स्विष्टः) वांछित फळ (धारण करतात) तसेच (होता) देणारा प्रिय कामाची इच्छा करतो त्या (स्विष्टकृत्‌) इच्छित कामनेची पूर्ती करणारा (अग्नीः) अग्नी (होत्रे) देणाऱ्यासाठी (यशः) (न) कीर्ती देणारे धन (धारण करतो, अग्नी योग्य पद्धतीने वापरल्यास वांछित यश वा धन देतो, हे विद्वान, तू यजनकर) (इन्द्रियम्‌) जसे जीवाचे लक्षण असलेली इंद्रियें (ऊर्जम्‌) (शक्तीधारण करतात) आणि (अपरिचितम्‌) (एक गृहस्थ अतिथीकरिता (स्वधाम्‌) अन्न (धारण करतो, अन्नादीद्वारे त्याला संतुष्ट करतो) हे विद्वान ज्याप्रमाणे वरील सर्व व्यक्ती वा पदार्थ वरील सर्व गुण (दधत) दारण करतात आणि (सर्वांना ते ते) पदार्थ (व्यन्तु) प्राप्त होतात, त्याप्रमाणे तुम्ही दखील (यज) आपल्या सर्व कामांमधे संगती करीत जा. (प्राप्तव्य ते ते प्राप्त करीत जा) ॥58॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोमा अलंकार आहेत. जे लोक या मंत्रात सांगितलेल्या, ईश्वराने निर्मित केलेल्या यज्ञ आदी पदार्थांचा (विज्ञान, मंत्र तंत्रविद्या आदीद्वारे) आपल्या कल्याणासाठी उपयोग करतात, ते अवश्यमेव वांछित सुख व आनंद प्राप्त करतात ॥58॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, just as in this world, for a person aspiring after wealth, beautiful fire, the giver of desired happiness rightly diffuses itself on planets like the Earth etc ; just as sacrificers with the aid of air, electricity, sun, speech and learned discourse derive benefit from fire and moon ; just as a benign ruler, giver of happiness, liked by all, a nice protector, the sun, the storer of water, a physician, the desired, beautiful banyan tree give us desired happiness ; just as handsome lovable scholars, drinkers of drinkable juice, worshippers, and fire the accomplisher of desired act, like wealth the bringer of fame, bring for the sacrificer physical strength, energy, honour and food ; just as these obtain these things, so shouldst thou be conversant with all dealings.

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    Meaning

    For the man of yajnic endeavour in search of honour and success in the world, the Divine Agni, lord of light and life, generous giver of all round success, does universal yajna with the divinities of nature such as the earth in appropriate manner. The Ashvinis, wind and electric energy, both high-priests of nature, act in yajna with Indra, the sun. With the energy of universal sound, they work with Sarasvati, the dynamics of nature. They work on agni, fire, and soma, the moon, both powers of universal success. Indra, lord protector of the world, Savita, the sun, Varuna, universal waters, the physician, the generous and all-loved tree, the dear powers of nature which feed on the food of yajna, and all-loved vital heat—all these work with the universal fire for the creation of wealth and energy. Thus any versatile performer of yajna (individual, social and natural) has the secret of success and creates honour, glory, energy and fame for the dedicated souls. May all the powers of yajna create and carry the wealth of the world for the man of yajnaMan of yajna, carry on with the sacrifice.

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    Translation

    Agni (the adorable leader), and the Svistakrt-devas (performers of pleasing actions), entertain the enlightened ones, as is due and proper for each—the two divine priests, the resplendent self and the twin healers; with pleasing speech, he reciprocates the good speech of the divine Doctress, of the adorable leader and of the pacifier and of the Svistakrt. The good protector, the resplendent self, the impeller, the venerable, and the physicians are entertained; the sporting Vanaspati (Lord of vegetation) is entertained; the enlightened ones, fond of drinking purified butter, have been entertained; the adorable leader has worshipped well the adorable Lord; the cosmic priest has bestowed on the priest, performer of good actions, fame, strength, vigour, honour, and food supplies. Аt the time of distribution of wealth, may they obtain store of wealth (for us). Offer oblations. (1)

    Notes

    Yathayatham, as is due and proper. Apacitim, पूजां, honour. Svadhām, supplies.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বিদ্বন্ ! যেমন (বসুধেয়স্য) সংসারের মধ্যে (বসুবনে) ঐশ্বর্য্যকে সেবনকারী সজ্জন মনুষ্যের জন্য (স্বিষ্টকৃৎ) সুন্দর কাম্য সুখকারী (দেবঃ) দিব্য সুন্দর (অগ্নিঃ) অগ্নি (দেবান্) উত্তম গুণ কর্ম স্বভাব যুক্ত পৃথিবী আদিকে (য়থায়থম্) যথাযোগ্য (য়ক্ষৎ) প্রাপ্ত হউক অথবা যেমন (হোতারৌ) পদার্থগুলির গ্রহণকারী (অশ্বিনঃ) পবন ও বিদ্যুৎরূপ অগ্নি (ইন্দ্রম্) সূর্য্য (বাচা) বাণী দ্বারা (সরস্বতীম্) বিশেষ জ্ঞানযুক্ত (বাচম্) বাণী দ্বারা (অগ্নিম্) অগ্নি (সোমম্) এবং চন্দ্রকে যথাযোগ্য চালনা করে অথবা যেমন (স্বিষ্টকৃৎ) উত্তম সুখকারক (স্বিষ্টঃ) সুন্দর এবং সকলের কাম্য (সুত্রামা) ভালমত পালনকারী (ইন্দ্রঃ) পরমৈশ্বর্য্যযুক্ত রাজা (সবিতা) সূর্য্য (বরুণঃ) জলের সমুদয় (ভিষক্) রোগ-বিনাশক বৈদ্য (ইষ্টঃ) সঙ্গ করিবার যোগ্য (দেবঃ) দিব্যস্বভাবযুক্ত (বনস্পতিঃ) অশ্বত্থাদি (স্বিষ্টাঃ) সুন্দর কাম্য সুখ যদ্দ্বারাই তাহারা (আজ্যপাঃ) পান করিবার যোগ্য রস পানকারী (দেবাঃ) দিব্যস্বরূপ বিদ্বান্ (অগ্নিনা) বিদ্যুৎ সহ (স্বিষ্টঃ) (হোতা) দাতা যাহাতে সুন্দর কাম্য কর্ম্ম হউক (স্বিষ্টকৃৎ) উত্তম কাম্য কর্ম করে যে, (অগ্নিঃ) অগ্নি (হোত্রে) দাতার জন্য (য়শঃ) কীর্তিকারী ধনের (ন) সমান (ইন্দ্রিয়ম্) জীবের চিহ্ন কর্ণাদি ইন্দ্রিয়গুলি (ঊর্জম্) বল (অপচিতিম্) সৎকার ও (স্বধাম্) অন্নকে (দধৎ) প্রত্যেককে ধারণ করিবে বা যেমন সেই সব উক্ত পদার্থগুলিকে এই সমস্ত (ব্যন্তু) প্রাপ্ত হইবে সেইরূপ তুমি (য়জ) সকল ব্যবহারের সংগতি করিতে থাক ॥ ৫৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমা ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্য ঈশ্বর নির্মিত এই মন্ত্রে কথিত যজ্ঞ আদি পদার্থগুলিকে বিদ্যা দ্বারা উপযোগ হেতু ধারণ করে, তাহারা সুন্দর কাম্য সুখ লাভ করে ॥ ৫৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দে॒বোऽঅ॒গ্নিঃ স্বি॑ষ্ট॒কৃদ্দে॒বান্ য়॑ক্ষদ্ য়থায়॒থꣳ হোতা॑রা॒বিন্দ্র॑ম॒শ্বিনা॑ বা॒চা বাচ॒ꣳ সর॑স্বতীম॒গ্নিꣳ সোম॑ᳬं স্বিষ্ট॒কৃৎ স্বি॑ষ্ট॒ऽইন্দ্রঃ॑ সু॒ত্রামা॑ সবি॒তা বর॑ুণো ভি॒ষগি॒ষ্টো দে॒বো বন॒স্পতিঃ॒ স্বি᳖ষ্টা দে॒বাऽআ॑জ্য॒পাঃ স্বি॑ষ্টোऽঅ॒গ্নির॒গ্নিনা॒ হোতা॑ হো॒ত্রে স্বি॑ষ্ট॒কৃদ্যশো॒ ন দধ॑দিন্দ্রি॒য়মূর্জ॒মপ॑চিতিᳬं স্ব॒ধাং ব॑সু॒বনে॑ বসু॒ধেয়॑স্য ব্যন্তু॒ য়জ॑ ॥ ৫৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দেবো অগ্নিরিত্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । অশ্ব্যাদয়ো দেবতাঃ । আদ্যস্যাऽত্যষ্টিশ্ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ । স্বিষ্টোऽঅগ্নিরিত্যুত্তরস্য নিচৃৎ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ॥
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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