यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 38
ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः
देवता - अश्व्यादयो देवताः
छन्दः - भुरिक् कृतिः
स्वरः - निषादः
56
होता यक्षत्सु॒रेत॑समृष॒भं नर्या॑पसं॒ त्वष्टा॑र॒मिन्द्र॑म॒श्विना॑ भि॒षजं॒ न सर॑स्वती॒मोजो॒ न जू॒तिरि॑न्द्रि॒यं वृको॒ न र॑भ॒सो भि॒षग्यशः॒ सुर॑या भेष॒जꣳ श्रि॒या न मास॑रं॒ पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥३८॥
स्वर सहित पद पाठहोता॑। य॒क्ष॒त्। सु॒रेत॑स॒मिति॑ सु॒ऽरेत॑सम्। ऋ॒ष॒भम्। नर्या॑पस॒मिति॒ नर्य॑ऽअपसम्। त्वष्टा॑रम्। इन्द्र॑म्। अ॒श्विना॑। भि॒षज॑म्। न। सर॑स्वतीम्। ओजः॑। न। जू॒तिः। इ॒न्द्रि॒यम्। वृकः॑। न। र॒भ॒सः। भि॒षक्। यशः॑ सुर॑या। भे॒ष॒जम्। श्रि॒या। न। मास॑रम्। पयः॑। सोमः॑। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
होता यक्षत्सुरेरसमृषभन्नर्यापसन्त्वष्टारमिन्द्रमश्विना भिषजन्न सरस्वतीमोजो न जूतिरिन्द्रियँवृको न रभसो भिषग्यशः सुरया भेषजँ श्रिया न मासरम्पयः सोमः परिस्रुता घृतम्मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज ॥
स्वर रहित पद पाठ
होता। यक्षत्। सुरेतसमिति सुऽरेतसम्। ऋषभम्। नर्यापसमिति नर्यऽअपसम्। त्वष्टारम्। इन्द्रम्। अश्विना। भिषजम्। न। सरस्वतीम्। ओजः। न। जूतिः। इन्द्रियम्। वृकः। न। रभसः। भिषक्। यशः सुरया। भेषजम्। श्रिया। न। मासरम्। पयः। सोमः। परिस्रुतेति परिऽस्रुता। घृतम्। मधु। व्यन्तु। आज्यस्य। होतः। यज॥३८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे होतस्त्वं यथा होता सुरेतसमृषभं नर्यापसं त्वष्टारमिन्द्रमश्विना भिषजं न सरस्वतीमोजो न यक्षद् भिषग् वृको न जूतिरिन्द्रियं रभसो यशः सुरया भेषजं श्रिया न क्रियया मासरं यक्षत् तया परिस्रुता पयः सोमो घृतं मधु च व्यन्तु तैः सह वर्त्तमानस्त्वमाज्यस्य यज॥३८॥
पदार्थः
(होता) आदाता (यक्षत्) प्राप्नुयात् (सुरेतसम्) सुष्ठु वीर्यम् (ऋषभम्) बलीवर्दम् (नर्यापसम्) नृषु साध्वपः कर्म यस्य तम् (त्वष्टारम्) दुःखच्छेत्तारम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तम् (अश्विना) वायुविद्युतौ (भिषजम्) वैद्यवरम् (न) इव (सरस्वतीम्) बहुविज्ञानयुक्तां वाचम् (ओजः) बलम् (न) इव (जूतिः) वेगः (इन्द्रियम्) मनः (वृकः) वज्रः। वृक इति वज्रनामसु पठितम्॥ निघं॰२।२०॥ (न) (रभसः) वेगम्। द्वितीयार्थे प्रथमा। (भिषक्) वैद्यः (यशः) धनमन्नं वा (सुरया) जलेन (भेषजम्) औषधम् (श्रिया) लक्ष्म्या (न) इव (मासरम्) संस्कृतभोज्यमन्नम् (पयः) पातुं योग्यम् (सोमः) ऐश्वर्यम्। (परिस्रुता) सर्वतोभिगतेन पुरुषार्थेन (घृतम्) (मधु) (व्यन्तु) (आज्यस्य) (होतः) (यज)॥३८॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा विद्वांसो ब्रह्मचर्येण धर्माचरणेन विद्यया सत्सङ्गादिना चाऽखिलं सुखं प्राप्नुवन्ति, तथा मनुष्यैः पुरुषार्थेन लक्ष्मी प्राप्तव्या॥३८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (होतः) लेने हारे जैसे (होता) ग्रहण करने वाला (सुरेतसम्) अच्छे पराक्रमी (ऋषभम्) बैल और (नर्यापसम्) मनुष्यों में अच्छे कर्म करने तथा (त्वष्टारम्) दुःख काटने वाले (इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्त जन को (अश्विना) वायु और बिजुली वा (भिषजम्) उत्तम वैद्य के (न) समान (सरस्वतीम्) बहुत विज्ञानयुक्त वाणी को (ओजः) बल के (न) समान (यक्षत्) प्राप्त करे (भिषक्) वैद्य (वृकः) वज्र के (न) समान (जूतिः) वेग (इन्द्रियम्) मन (रभसः) वेग (यशः) धन वा अन्न को (सुरया) जल से (भेषजम्) औषध को (श्रिया) धन के (न) समान क्रिया से (मासरम्) अच्छे पके हुए अन्न को प्राप्त करें, वैसे (परिस्रुता) सब ओर से प्राप्त पुरुषार्थ से (पयः) पीने योग्य रस और (सोमः) ऐश्वर्य (घृतम्) घी और (मधु) सहत (व्यन्तु) प्राप्त होवें, उनके साथ वर्त्तमान तू (आज्यस्य) घी का (यज) हवन कर॥३८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे विद्वान् लोग ब्रह्मचर्य, धर्म के आचरण, विद्या और सत्संगति आदि से सब सुख को प्राप्त होते हैं, वैसे मनुष्यों को चाहिये कि पुरुषार्थ से लक्ष्मी को प्राप्त होवें॥३८॥
विषय
अधिकार प्रदान और नाना दृष्टान्तों से उनके और उनके सहायकों के कर्तव्यों का वर्णन । अग्नि, तनूनपात्, नराशंस, बर्हि, द्वार, सरस्वती, उषा, नक्ता, दैव्य होता, तीन देवी, त्वष्टा, वनस्पति, अश्विद्वय इन पदाधिकारियों को अधिकारप्रदान ।
भावार्थ
(होता) उचित पदों पर उचित व्यक्तियों को नियुक्त करने वाला अधिकारी ( सुरेतसम् ) उत्तम वीर्यवान्, ( ऋषभम् ) सेचने में समर्थ वृषभ के समान उत्तम भूमि में उत्तम बीज वपन करने में समर्थ, एवं मेघ के समान उत्तम जलरूप उत्पादक सामर्थ्य से युक्त, (नर्यापसम् ) लोकोपकारी (त्वष्टारम्) एन्ञ्जीनीयर और ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् धनाढ्य पुरुष को और (अश्विनौ) दो मुख्य अधिकारियों को (भिपजम् ) सब दोषों को दूर करने वाले वैद्य के समान ( सरस्वतीम् ) उत्तम ज्ञान और ज्ञानी 'पुरुषों से युक्त विद्वत्सभा को ( यक्षत् ) राष्ट्र में नियुक्त करे । वे सब लोग क्रम से ( ओजः ) पराक्रम (न) और (जूतिः) वेग से, चुस्ती से -कार्य सञ्चालन, (इन्द्रियम् ) राजा के उचित ऐश्वर्य और इन्द्रियों के तीव्र सामर्थ्य को उत्पन्न करते हैं । ( वृकः न ) जिस प्रकार - भेड़िया छुपकर अपने से निर्बल जीव को पर वेग से जा पड़ता है उसी प्रकार वह राजा अपने ओज और शीघ्रकारिता से निर्बल शत्रु पर आक्रमण करने में समर्थ हो और ( रभसः भिषग) अति कार्यकुशल वैद्य जैसे (सुरया) उचित ओषधि से या सुरा 'लिकर' के योग से ( भिषजम् ) रोगहारी ओषधि को बनाता और प्रयोग करता है और (यशः) धन और यश प्राप्त करता है और मरणासन्न रोगी को भी बचा लेता है उसी प्रकार (सुरया) उत्तम - राज्यलक्ष्मी या उत्तम सुव्यवस्था से राजा राष्ट्र शरीर में उठी अव्यवस्था - का उपाय करता है और (यशः) ऐश्वर्य और ख्याति प्राप्त करता है और ( श्रियात् ) अपने ऐश्वर्य से ही ( मासरम् ) अपने राष्ट्र और परराष्ट्र को परिपक्क भात के समान भोग करता है, अथवा लक्ष्मी के बल से सब. को प्रति मास वेतन भी देता है । ( पयः सोमः ० इत्यादि) पूर्ववत् ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भुरिक् कृतिः । निषादः ॥
विषय
सुरेतसः यजन
पदार्थ
१. (होता) = त्यागपूर्वक अदन करनेवाला (यक्षत्) = सङ्गत करता है। किसको? (सुरेतसम्) = उत्तम रेतस्वाले को, उत्तम वीर्यशक्तिवाले को और अतएव (ऋषभम्) = [ऋष गतौ] गतिशील को, (नर्यापसम्) = सदा नरहितकारी कर्म करनेवाले को, और (त्वष्टारम्) = देवशिल्पी को, अर्थात् अपने जीवन में दिव्य गुणों के निर्माण करनेवाले को, अर्थात् जो होता बनता है वह अपने जीवन में उत्तम वीर्य की रक्षा करनेवाला, गतिशील, नरहितकारी कार्यों में तत्पर तथा दिव्य गुणों का निर्माता बनता है। २. यह (होता इन्द्रम्) = इन्द्र को (यक्षत्) = अपने साथ सङ्गत करता है, (अश्विनौ) = प्राणापान को (यक्षत्) = अपने साथ सङ्गत करता है, अर्थात् जितेन्द्रिय बनता है और इस जितेन्द्रियता के द्वारा बढ़ी हुई प्राणापान शक्तिवाला होता है। ३. यह होता (भिषजं न सरस्वतीम्) - उस ज्ञानाधिदेवता को भी अपने साथ सङ्गत करता है जो ज्ञानाधिदेवता उसके लिए वैद्य सिद्ध होती है। उसके सब रोगों का इलाज हो जाती है। वस्तुतः अविद्या सब क्लेशों का उत्पत्ति क्षेत्र है तो विद्या सब क्लेशों को दूर करनेवाली है । ४. यह होता (ओजः) = ओजस्विता को (न) = [न=च] तथा (जूतिः) = क्रियाशीलता को (इन्द्रियम्) = प्रत्येक इन्द्रिय की शक्ति को अपने साथ सङ्गत करता है। ५. यह होता (वृकः) = [ वृक आदाने] उत्तम गुणों का आदान करनेवाला (न) = और (रभसः) = शक्तिशाली [ Robust] तथा (भिषक्) = सब रोगों का प्रतीकार करनेवाला बनकर (यशः) = यश को, सुरया आत्मशासन के द्वारा (भेषजम्) = सब रोगों के प्रतीकार को, (न) = और (श्रिया) = श्री के साथ, शोभा के साथ (मासरम्) = सब मासों में रमण-आनन्द की भावना को अपने साथ सङ्गत करता है और ६. यही चाहता है कि (पयः सोम:) = दूध और सोमरस तथा (परिस्रुता) = फलों के रस के साथ (घृतं मधु) = घृत और मधु (व्यन्तु) = उसे प्राप्त हों । ७. इस प्रार्थना करनेवाले को प्रभु कहते हैं कि हे (होतः) = दानपूर्वक अदन करनेवाले ! तू (आज्यस्य) = इस घृत का (यज) = यज्ञ करनेवाला बन ।
भावार्थ
भावार्थ- होता पुरुष उत्तम वीर्यवाला, गतिशील, नरहितकारी कर्मों में लगा हुआ होता है। यह दूध आदि सात्त्विक पदार्थों का सेवन करता है, परन्तु इस बात का ध्यान रखता है कि इन घृत आदि भोज्य पदार्थों से वह अग्निहोत्र अवश्य करता रहे।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक ब्रह्मचर्य, धमाचे आचरण, विद्या व सत्संग इत्यादींमुळे सुख प्राप्त करतात तसे सर्व माणसांनी पुरुषार्थांने लक्ष्मी प्राप्त करावी.
विषय
पुढील मंत्रात त्याच विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (होतः) देणाऱ्या दानी मनुष्या, ज्याप्रमाणे (होता) ग्रहण करणारा माणूस (सुरेतसम्) (ऋषभम्) स्वस्थ शक्तिमान बैलाची आणि (नर्याषसम्) मनुष्यमात्राला चांगली सेवा देणाऱ्या व्यक्तीचा (संग्रह करतो) तसेच (त्वष्टारम्) दुःखनाशक (इन्द्रम्) ऐवर्यवान मनुष्य जसा (अश्विना) वायू आणि विद्युत प्रमाणे व (भिषजम्) (न) उत्तम वैद्याप्रमाणे तसेच (सरस्वतीम्) विज्ञानयुक्त वाणी जशी (ओजः) (न) शक्ती (यक्षत्) देते त्याप्रमाणे (जो माणूस यत्न करतो, त्याप्रमाणे तूही कर) तसेच एक (भिषक्) वैद्य (वृकः) (न) वज्राप्रमाणे (जूतिः) वेग धारण करून (शीघ्रपणे) (इन्द्रियम्) मनाच्या (रभसः) वेगाला (संयत करतो) आणि (यशः) धन वा धान्याशी (सुरया) जलाचा व (भेषजम्) औषधाचा (संयोग करतो) तसेच (श्रिया) आणि (न) धन प्राप्ती करून (मासरम्) उत्तम पक्व भोजन प्राप्त करतो, तद्वत जो (परिस्रुता) सर्व प्रकारे पुरूषार्थ करून (पयः) पिण्यास योग्य असे विविध रस (सोमः) ऐश्वर्य, (घृतम्) घृत आणि (मधु) मध या सर्व पदार्थांचा (व्यन्तु) संग्रह करतो, त्यांच्याजवळ राहून, हे ?? मनुष्या, तूही (आज्यस्य) तुपाने (यज) हवन करीत जा ॥38॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा आणि वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहेत. ज्याप्रमाणे विद्वान विचारवंत माणसें ब्रह्मचर्यपालन, धर्माचरण, विद्याप्राप्ती आणि सत्संगतीद्वारे सर्वप्रकारचे सुख प्राप्त करतात, तसे सर्व मनुष्यांनी त्यांच्याप्रमाणे आचरण करून व पुरूषार्थाद्वारे धनसंपदा प्रपात करावी. ॥38॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as a learned person utilises a powerful bull, and a noble person f the remover of miseries, and doer of good deeds amongst his fellows, and avails of air and lightning as a physician, and didactic speech for strength, just as an intelligent person acquires vigour, mental force, and speed like a destructive weapon, derives wealth and corn from water, considers medicine a^ a valuable thing, and receives well cooked meals, so shouldst thou acquire with exertion, juices worth drinking, supremacy, butter and honey, and perform Havan with them and specially butter.
Meaning
Let the man of yajna perform the yajna and invoke the virile, powerful, noble maker and creator Tvashta, destroyer of suffering, Indra, lord of power and majesty, Ashvinis, nature’s energy of wind and electricity, Sarasvati, universal intelligence as well as the physician, all creators and harbingers of health and growth. And like an expert of health he would attain brilliance of health as well as the drive and splendour for living, ardour of movement as well as the lightning of the thunderbolt, honour and reputation as tonics, medicaments with curative waters, and holy food with beauty and grace. And further, delicious drinks and milk, soma distilled as the essence of herbal juices, butter and nectars of waters, and honey would follow and flow upon the earth. Man of yajna, perform the yajna with the best of ghee.
Translation
Let the priest offer oblations to Tvastr, the prolific, the mighty, active for the benefit of men, and to the resplendent Lord, to the twin healers and to the divine Doctress. The physician, active as a wolf, gives power, speed, manly vigour and glory with splendour to the aspirant with fermented drink and rice-gruel as a medicine. Let them enjoy milk, pressed out curejuice, butter and honey. O priest, offer oblations of melted butter. (1)
Notes
Suretasain, rṣabham, naryāpasam,शोभनं रेत: वीर्यं यस्य, prolific, showerer (or mighty), नरेभ्यो हितं कर्म कर्तारं whose actions are beneficial for men. Jūtiḥ, जव:, speed. Vṛko na rabhasaḥ, quick as a wolf. Surayā, with fermented drink; with liquor.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (হোতঃ) দানকারী ! যেমন (হোতা) গ্রহণকারী (সুরেতসম্) উত্তম পরাক্রমী (ঋষভম্) বৃষ ও (নর্য়াপসম্) মনুষ্যদিগের মধ্যে সুকর্ম করিবার তথা (ত্বষ্টারম্) দুঃখ অতিক্রম কারী (ইন্দ্রম্) পরমৈশ্বর্য্যযুক্ত ব্যক্তিকে (অশ্বিনা) বায়ু ও বিদ্যুৎ অথবা (ভিষজম্) উত্তম বৈদ্যর (ন) সমান (সরস্বতীম্) বহু বিজ্ঞানযুক্ত বাণীকে (ওজঃ) বলের (ন) সমান (য়ক্ষৎ) প্রাপ্ত করিবে (ভিষক্) বৈদ্য (বৃকঃ) বজ্রের (ন) সমান (জূতিঃ) বেগ (ইন্দ্রিয়ম্) মন (রমসঃ) বেগ (য়শঃ) ধন বা অন্নকে (সুরয়া) জল দ্বারা (ভেষজম্) ঔষধকে (শ্রিয়া) ধনের (ন) সমান ক্রিয়া দ্বারা (মাসরম্) সুপক্ব অন্ন প্রাপ্ত করিবে । সেইরূপ (পরিস্রুতা) সব দিক্ দিয়া প্রাপ্ত পুরুষার্থ দ্বারা (পয়ঃ) পান করিবার যোগ্য রস ও (সোমঃ) ঐশ্বর্য্য (ঘৃতম্) ঘৃত এবং (মধু) মধু (ব্যন্তু) প্রাপ্ত হইবে, তৎসহ বর্ত্তমান তুমি (আজ্যস্ব) ঘৃতের (য়জ) হবন কর ॥ ৩৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমা ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন বিদ্বান্গণ ব্রহ্মচর্য্য, ধর্মের আচরণ, বিদ্যা ও সৎসঙ্গতি আদি দ্বারা সব সুখকে প্রাপ্ত হইয়া থাকে, তদ্রূপ মনুষ্যদিগের উচিত যে, পুরুষার্থ দ্বারা লক্ষ্মীকে প্রাপ্ত হউক ॥ ৩৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
হোতা॑ য়ক্ষৎসু॒রেত॑সমৃষ॒ভং নর্য়া॑পসং॒ ত্বষ্টা॑র॒মিন্দ্র॑ম॒শ্বিনা॑ ভি॒ষজং॒ ন সর॑স্বতী॒মোজো॒ ন জূ॒তিরি॑ন্দ্রি॒য়ং বৃকো॒ ন র॑ভ॒সো ভি॒ষগ্যশঃ॒ সুর॑য়া ভেষ॒জꣳ শ্রি॒য়া ন মাস॑রং॒ পয়ঃ॒ সোমঃ॑ পরি॒স্রুতা॑ ঘৃ॒তং মধু॒ ব্যন্ত্বাজ্য॑স্য॒ হোত॒র্য়জ॑ ॥ ৩৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
হোতেত্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । অশ্ব্যাদয়ো দেবতাঃ । ভুরিক্কৃতিশ্ছন্দঃ ।
নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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