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यजुर्वेद अध्याय - 21

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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 10
    ऋषिः - आत्रेय ऋषिः देवता - ऋत्विजो देवताः छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    54

    शन्नो॑ भवन्तु वा॒जिनो॒ हवे॑षु दे॒वता॑ता मि॒तद्र॑वः स्व॒र्काः।ज॒म्भय॒न्तोऽहिं॒ वृक॒ꣳ रक्षा॑सि॒ सने॑म्य॒स्मद्यु॑यव॒न्नमी॑वाः॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शम्। नः॒। भ॒व॒न्तु॒। वा॒जिनः॑। हवे॑षु। दे॒वता॒तेति॑ दे॒वऽता॑ता। मि॒तद्र॑व॒ इति॑ मि॒तऽद्र॑वः। स्व॒र्का इति॑ सुऽअ॒र्काः। ज॒म्भय॑न्तः। अहि॑म्। वृक॑म्। रक्षा॑सि। सने॑मि। अ॒स्मत्। यु॒य॒व॒न्। अमी॑वाः ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शन्नो भवन्तु वाजिनो हवेषु देवताता मितद्रवः स्वर्काः । जम्भयन्तो हिँवृकँ रक्षाँसि सनेम्यस्मद्युयवन्नमीवाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शम्। नः। भवन्तु। वाजिनः। हवेषु। देवतातेति देवऽताता। मितद्रव इति मितऽद्रवः। स्वर्का इति सऽअर्काः। जम्भयन्तः। अहिम्। वृकम्। रक्षासि। सनेमि। अस्मत्। युयवन्। अमीवाः॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे स्वर्का! मितद्रवो देवताता वाजिनो हवेषु विद्वांसो भवन्तोऽहिं सूर्य इव वृकं रक्षांसि च जम्भयन्तो नः सनेमि शं भवन्तु। अस्मदमीवा युयवन्॥१०॥

    पदार्थः

    (शम्) सुखकारकाः (नः) अस्मभ्यम् (भवन्तु) (वाजिनः) प्रशस्तविज्ञानयुक्ताः (हवेषु) दानाऽदानेषु (देवताता) देवता विद्वांस इव वर्त्तमानाः (मितद्रवः) ये मितं द्रवन्ति ते (स्वर्काः) सुष्ठ्वर्का अन्नानि वज्रो वा येषान्ते (जम्भयन्तः) विनाशयन्तः (अहिम्) मेघं सूर्य इव (वृकम्) स्तेनम् (रक्षांसि) दुष्टान् जीवान् (सनेमि) सनातनं पुराणम्। सनेमि इति पुराणनाम॥ निघं॰३।२७॥ (अस्मत्) (युयवन्) पृथक्कुर्वन्तु (अमीवाः) रोगान्॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्योऽन्धकारं निवर्त्त्य सर्वान् सुखयति, तथा विद्वांसः प्राणिनां सर्वान् शरीरात्मरोगान् निवार्य्यानन्दयेयुः॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (स्वर्काः) अच्छे अन्न वा वज्र से युक्त और (मितद्रवः) प्रमाणित चलने और (देवताता) विद्वानों के समान वर्त्तने हारे (वाजिनः) अति उत्तम विज्ञान से युक्त (हवेषु) लेने-देने में चतुर आप लोग (अहिम्) मेघ को सूर्य के समान (वृकम्) चोर और (रक्षांसि) दुष्ट जीवों का (जम्भयन्तः) नाश करते हुए (नः) हमारे लिए (सनेमि) सनातन (शम्) सुख करने हारे (भवन्तु) होओ और (अस्मत्) हमारे (अमीवाः) रोगों को (युयवन्) दूर करो॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य अन्धकार को हटा के सब को सुखी करता है, वैसे विद्वान् लोग प्राणियों के शरीर और आत्मा के सब रोगों को निवृत्त करके आनन्दयुक्त करें॥१०॥

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    विषय

    अश्वों, अश्वारोहियों और ज्ञानवान् पुरुषों के लक्षण ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो भ० ९ । १६, १८ ॥

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    विषय

    विद्वान् 'आत्रेय'

    पदार्थ

    १. अब इस अध्याय में समाप्ति तक मन्त्रों का ऋषि 'आत्रेय' है। 'आत्रेय' वह है जो अत्रि'-' काम, क्रोध व लोभ' तीनों से रहित है। यह 'आत्रेय' ही वस्तुतः गतमन्त्र का वसिष्ठ है। उत्तम निवासवाला है। यह प्रार्थना करता है कि (हवेषु) = जब-जब हम पुकारें तब (वाजिन:) = शक्तिशाली (देवताता) = [देवान् तन्यन्ति] दिव्य गुणों का विस्तार करनेवाले, (मितद्रवः) = बड़ी मपी- तुली गतिवाले, प्रत्येक कर्म में युक्त चेष्टावाले, (स्वर्का:) = [अर्कम् अन्नम् ] उत्तम अन्न का सेवन करनेवाले अथवा [अर्क = स्तोत्र] उत्तम स्तोत्रोंवाले, उत्तम स्तवनवाले विद्वान् लोग (नः) = हमारे लिए शं भवन्तु शान्ति व सुख के देनेवाले हों। २. (अहिम्) = [आहन्तीति] हिंसा व घातपात की वृत्ति को अथवा सर्पवत् कुटिलता को, (वृकम्) = [ वृक आदाने] लोभवृत्ति को तथा रक्षांसि अपने रमण के लिए औरों के क्षय की वृत्ति को (जम्भयन्तः) = नष्ट करते हुए ये (अस्मत्) = हमसे (अमीवाः) = रोगों को (सनेमि) = शीघ्र (युयवन्) = पृथक् करें। इनके उपदेश हमारे जीवनों में हिंसा के स्थान में प्रेम को, कुटिलता के स्थान में सरलता को, लोभ के स्थान में सन्तोष को, राक्षसीवृत्तियों के स्थान में दैवीवृत्तियों को जन्म देते हुए शरीर व मानस नीरोगता प्राप्त करानेवाले हों। इनके उपदेशों से हम भी इनकी भाँति 'शक्तिशाली, दिव्य गुणों का विस्तार करनेवाले, युक्तचेष्ट तथा उत्तमाहार-सेवी' बनें तो अवश्य ही कुटिलता - लोभ - हिंसा आदि को छोड़कर पूर्ण आरोग्य का साधन कर पाएँगे और तब सचमुच 'आत्रेय' होंगे - त्रिविध कष्टों से ऊपर उठ जाएँगे ।

    भावार्थ

    भावार्थ-विद्वान् का लक्षण है कि वह 'शक्तिशाली, दिव्य वृत्तिवाला, युक्तचेष्ट, सात्त्विक आहारी व उत्तम उपासक' होता है। इनके उपदेश लोगों को अहिंसक, सन्तोषी व यशस्वी बनाते हैं और लोगों को नीरोगता प्राप्त कराते हैं।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सूर्य जसा अंधःकार हटवून सर्वांना सुखी करतो तसे विद्वान लोकांनी प्राण्यांच्या शरीराचे व आत्म्याचे सर्व रोग दूर करून आनंदित करावे.

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    विषय

    पुन्हा तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (स्वर्काः) उत्तम अन्न सेवन करणाऱ्या आणि वज्र-शस्त्र धारण करणाऱ्या (बलवान) आणि (मितद्रवः) योग्य प्रमाणात वागणाऱ्या (देवताता) आणि विद्वानांना वागणे जसे उचित तसेच वागणाऱ्या (वाजिनः) उत्तम विज्ञानवान (हवेषु) आदान-प्रदान कार्यात कुशल (आपण विशिष्ट प्रतिष्ठित) विद्वज्जन, (अहिम्‌) सूर्य जसा ढगांना, तसे (वृकम्‌) चोर आणि (रक्षांसि) दुष्ट प्राण्यांना (जम्भयन्तः) नष्ट करीत (नः) आम्हा (सामान्यजनांनासाठी, विद्यार्थी वा उपासनेसाठी) (सनेमिः) सनातन (स्थायी) (शम्‌) सुख देणारे (भवन्तु) व्हा आणि (अस्मत्‌) आमचे (अमीवाः) रोग (युयवन्‌) दूर करा (अशी आम्ही प्रार्थना करतो) ॥10॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. सूर्य जसा अंधकाराचा नाश करतो, तद्वत विद्वज्जनांनी सर्व प्राण्यांच्या शारीरिक व आत्मिक रोग (दोषादी) निवारित करावेत आणि त्यायोगे सर्वांना आनंदित करावे ॥10॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O highly learned person, possessing arms and foodstuffs, slow mover, behaving like scholars, wordly wise, crushing the thief and ignoble souls, as sun crushes the cloud, become for us an ancient pie a suregiver, and completely banish our afflictions.

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    Meaning

    May the brilliant men of science and power of arms, noble and generous, moving at a balanced speed, be always good and auspicious to us in our projects. As the sun breaks down the clouds, so, destroying the serpents, wolves and demons of the society, may they remove our wants and ailments and give us peace and prosperity.

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    Translation

    May the speedy horses (of the sun) be for our comfort at our call. Moving pleasantly in the sacrifice, beautiful in appearance, destroying snakes, wolves and pests, may they quickly banish all the calamities from us. (1)

    Notes

    and 11. Repeated from IX. 16 and 18.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (স্বর্কাঃ) উত্তম অন্ন বা বজ্র দ্বারা যুক্ত এবং (মিতদ্রবঃ) প্রমাণ সহ গমণকারী এবং (দেবতাতা) বিদ্বান্দিগের সমান ব্যবহারকারী (বাজিনঃ) অতি উত্তম বিজ্ঞান দ্বারা যুক্ত (হবেষু) দেওয়া-নেওয়ায় চতুর আপনারা (অহিম্) মেঘকে সূর্য্যের সমান (বৃকম্) চোর এবং (রক্ষাংসি) দুষ্ট জীবদিগের (জম্ভয়ন্তঃ) বিনাশ করতঃ (নঃ) আমাদের জন্য (সনেমি) সনাতন (শম্) সুখকারক (ভবন্তু) হউন, (অস্মৎ) আমাদের (অমীবাঃ) রোগ সকলকে (য়ুয়বন্) দূর করুন ॥ ১০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন সূর্য্য অন্ধকারকে দূরীভূত করিয়া সকলকে সুখী করে সেইরূপ বিদ্বান্গণ প্রাণীদের শরীর ও আত্মার সকল রোগকে নিবৃত্ত করিয়া আনন্দযুক্ত করিবে ॥ ১০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    শন্নো॑ ভবন্তু বা॒জিনো॒ হবে॑ষু দে॒বতা॑তা মি॒তদ্র॑বঃ স্ব॒র্কাঃ ।
    জ॒ম্ভয়॒ন্তোऽহিং॒ বৃক॒ꣳ রক্ষা॑ᳬंসি॒ সনে॑ম্য॒স্মদ্যু॑য়ব॒ন্নমী॑বাঃ ॥ ১০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    শমিত্যস্যাত্রেয় ঋষিঃ । ঋত্বিজো দেবতাঃ । ভুরিক্ পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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