यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 41
ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः
देवता - विद्वांसो देवता
छन्दः - अतिधृतिः
स्वरः - षड्जः
586
होता॑ यक्षद॒श्विनाै॒ छाग॑स्य व॒पाया॒ मेद॑सो जु॒षेता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑। होता॑ यक्ष॒त्सर॑स्वतीं मे॒षस्य॑ व॒पाया॒ मेद॑सो जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑। होता॑ यक्ष॒दिन्द्र॑मृष॒भस्य॑ व॒पाया॒ मेद॑सो जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑॥४१॥
स्वर सहित पद पाठहोता॑। य॒क्ष॒त्। अ॒श्विनौ॑। छाग॑स्य। व॒पायाः॑। मेद॑सः। जु॒षेता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑। होता॑। य॒क्ष॒त्सर॑स्वतीम्। मे॒षस्य॑। व॒पायाः॑। मेद॑सः। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑। होता॑। य॒क्ष॒त्। इन्द्र॑म्। ऋ॒ष॒भस्य॑। व॒पायाः॑। मेद॑सः। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
होता यक्षदश्विनौ च्छागस्य वपाया मेदसो जुषेताँ हविर्हातर्यज । होता यक्षत्सरस्वतीम्मेषस्य वपाया मेदसो जुषताँ हविर्हातर्यज । होता यक्षदिन्द्रमृषभस्य वपाया मेदसो जुषताँ हविर्हातर्यज ॥
स्वर रहित पद पाठ
होता। यक्षत्। अश्विनौ। छागस्य। वपायाः। मेदसः। जुषेताम्। हविः। होतः। यज। होता। यक्षत् सरस्वतीम्। मेषस्य। वपायाः। मेदसः। जुषताम्। हविः। होतः। यज। होता। यक्षत्। इन्द्रम्। ऋषभस्य। वपायाः। मेदसः। जुषताम्। हविः। होतः। यज॥४१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे होतस्त्वं यथा होता यक्षदश्विनौ छागस्य वपाया मेदसो हविर्जुषेताम् तथा यज। हे होतस्त्वं यथा होता मेषस्य वपाया मेदसो हविः सरस्वतीञ्च जुषतां यक्षत् तथा यज। हे होतस्त्वं यथा होतर्षभस्य वपाया मेदसो हविरिन्द्रं च जुषतां यक्षत् तथा यज॥४१॥
पदार्थः
(होता) दाता (यक्षत्) (अश्विनौ) पशुपालकृषीवलौ (छागस्य) अजादेः (वपायाः) बीजतन्तुसन्तानिकायाः क्रियायाः (मेदसः) स्निग्धस्य (जुषेताम्) सेवेताम् (हविः) होतव्यम् (होतः) दातः (यज) (होता) आदाता (यक्षत्) (सरस्वतीम्) विज्ञानवतीं वाचम् (मेषस्य) अवेः (वपायाः) बीजवर्द्धिकायाः क्रियायाः (मेदसः) स्नेहयुक्तस्य पदार्थस्य (जुषताम्) सेवताम् (हविः) प्रक्षेप्तव्यं सुसंस्कृतमन्नादिकम् (होतः) (यज) (होता) (यक्षत्) (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यकारकम् (ऋषभस्य) वृषभस्य (वपायाः) वर्द्धिकाया रीत्याः (मेदसः) स्नेहस्य (जुषताम्) सेवताम् (हविः) दातव्यम् (होतः) (यज)॥४१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः पशुसंख्यां बलं च वर्धयन्ति, ते स्वयमपि बलिष्ठा जायन्ते। ये पशुजं दुग्धं तज्जमाज्यं च स्निग्धं सेवन्ते, ते कोमलप्रकृतयो भवन्ति। ये कृषिकरणाद्यायैतान् वृषभान् युञ्जन्ति, ते धनधान्ययुक्ता जायन्ते॥४१॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (होतः) देने हारे! तू जैसे (होता) और देने हारा (यक्षत्) अनेक प्रकार के व्यवहारों की संगति करे (अश्विनौ) पशु पालने वा खेती करने वाले (छागस्य) बकरा, गौ, भैंस आदि पशुसम्बन्धी वा (वपायाः) बीज बोने वा सूत के कपड़े आदि बनाने और (मेदसः) चिकने पदार्थ के (हविः) लेने-देने योग्य व्यवहार का (जुषेताम्) सेवन करें, वैसे (यज) व्यवहारों की संगति कर। हे (होतः) देने हारे जन! तू जैसे (होता) लेने हारा (मेषस्य) मेढ़ा के (वपायाः) बीज को बढ़ाने वाली क्रिया और (मेदसः) चिकने पदार्थ सम्बन्धी (हविः) अग्नि आदि में छोड़ने योग्य संस्कार किये हुए अन्न आदि पदार्थ और (सरस्वतीम्) विशेष ज्ञान वाली वाणी का (जुषताम्) सेवन करे (यक्षत्) वा उक्त पदार्थों का यथायोग्य मेल करें, वैसे (यज) सब पदार्थों का यथायोग्य मेल कर। हे (होतः) देने हारे! तू जैसे (होता) लेने हारा (ऋषभस्य) बैल को (वपायाः) बढ़ाने वाली रीति और (मेदसः) चिकने पदार्थ सम्बन्धी (हविः) देने योग्य पदार्थ और (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य करनेवाले का (जुषताम्) सेवन करे वा यथायोग्य (यक्षत्) उक्त पदार्थों का मेल करे, वैसे (यज) यथायोग्य पदार्थों का मेल कर॥४१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य पशुओं की संख्या और बल को बढ़ाते हैं, वे आप भी बलवान् होते और जो पशुओं से उत्पन्न हुए दूध और उस से उत्पन्न हुए घी का सेवन करते, वे कोमल स्वभाव वाले हाते हैं और जो खेती करने आदि के लिए इन बैलों को युक्त करते हैं, वे धनधान्ययुक्त होते हैं॥४१॥
विषय
अधिकार प्रदान और नाना दृष्टान्तों से उनके और उनके सहायकों के कर्तव्यों का वर्णन । अग्नि, तनूनपात्, नराशंस, बर्हि, द्वार, सरस्वती, उषा, नक्ता, दैव्य होता, तीन देवी, त्वष्टा, वनस्पति, अश्विद्वय इन पदाधिकारियों को अधिकारप्रदान ।
भावार्थ
(होता) पदों पर योग्य अधिकारियों का नियोजक 'होता' (अश्विनौ यक्षत् ) अश्वी दो अधिकारी पुरुषों को नियुक्त करे। वे दोनों ( छागस्य ) शत्रु और प्रजा के पीड़कों के उच्छेदन करने में समर्थ पुरुष की (वपायाः) उच्छेदन करने वाली शक्ति और (मेदसः) हिंसन या दण्ड देने के सामर्थ्य को ( जुषेताम् ) प्राप्त करें । हे (होता) होतः ! तू उन दोनों को ( हविः) उचित अन्न, वीर्य और अधिकार ( यज्ञ ) प्रदान कर | इसी प्रकार ( होता ) होता नामक विद्वान् ( सरस्वतीम् ) ज्ञान से पूर्ण विद्वत्सभा को ( यक्षत् ) नियुक्त करे । वह ( मेषस्य ) परस्पर प्रतिस्पर्द्धा करने वाले विद्वान्गण के (वपायाः) परस्पर खण्डन मण्डन की शक्ति और (मेदसः) परस्पर स्नेह या परपक्ष के खण्डन की शक्ति का ( जुषेताम् ) सेवा या अभ्यास करें । (होता इन्द्रं यक्षत् ) होता 'इन्द्र' नामक शत्रुनाशक सेनापति को नियुक्त करे । वह ( ऋषभस्य ) सर्वश्रेष्ठ, पुरुष के (वपायाः) - दूसरे की कीर्त्ति के उच्छेदन करने की शक्ति और (मेदसः) स्पर्धा में दूसरे के नाशक वीर्य को ( जुषताम् ) प्राप्त करे । हे (होतः) होत: ! तू इस अधिकारी को (हविः यज) मान, वेतन, अधिकार प्रदान कर ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रयो वपानां प्रैषाः ॥ सप्तलिंगोक्ता देवता: अतिधृतिः । षड्जः ॥
विषय
छाग- मेष- ऋषभ
पदार्थ
१. होता = त्यागपूर्वक अदन करनेवाला अश्विनौ प्राणापान को यक्षत्=अपने साथ सङ्गत करता है और इसी उद्देश्य से प्रभु उससे कहते हैं कि हे होतः = यज्ञशील पुरुष ! तेरे ये प्राणापान छागस्य अजमोद ओषधि के वपाया मेदसः - (वप = मुण्डन- छेदन) रोग का छेदन करनेवाले गूदे के भाग का जुषेताम् = सेवन करें, तथा तू हविः यज-इस अजमोद ओषधि को हविरूप में अग्नि के साथ सङ्गत कर, अर्थात् इस ओषधि की अग्नि में आहुतियाँ दे । २. होता यह दानपूर्वक अदन करनेवाला सरस्वती - ज्ञानाधिदेवता को यक्षत् - अपने साथ सङ्गत करता है और इसी उद्देश्य से प्रभु उससे कहते हैं कि होतः = हे यज्ञशील पुरुष ! तू मेषस्य = मेढासिंगी ओषधि के वपाया मेदसः = रोगछेदक गूदे के भाग को जुषताम् = = सेवन कर तथा हविः यज - हविरूप में अग्नि के साथ इसे सङ्गत कर। इस ओषधि की अग्नि में आहुतियाँ दे । ३. होता यह यज्ञशेष का भोजन करनेवाला पुरुष (इन्द्रम्) = आत्मशक्ति को = (यक्षत्) = अपने साथ सङ्गत करे। इसी उद्देश्य से वह (ऋषभस्य) = ऋषभक ओषधि के वपाया (मेदसः) = रोगछेदन करनेवाले औषध - गुणयुक्त मध्यभाग का (जुषताम्) = सेवन करे। प्रभु कहते हैं कि (होत:) = हे यज्ञशील पुरुष ! तू (हविः यज) = हविरूप में इनका यजन करनेवाला बन ।
भावार्थ
भावार्थ - इस यज्ञमय जीवन में हम अजमोद ओषधि के प्रयोग व यज्ञ से प्राणापान शक्ति का वर्धन करें। मेढ़ासिंगी ओषधि के प्रयोग से हम मस्तिष्क की शक्ति का विकास करें तथा ऋषभक ओषधि का प्रयोग हमारी आत्मशक्ति का विकास करे।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे पशूंची संख्या व बल वाढवितात ती स्वतः बलवान होतात व जी पशूंपासून उत्पन्न झालेले दूध व त्यापासून उत्पन्न झालेल्या तुपाचे सेवन करतात, ती कोमल स्वभावाची असतात व जी माणसे शेतीसाठी बैलांचा वापर करतात ती धनधान्यांनीयुक्त होतात.
विषय
पुनश्च, त्याच विषयी -
शब्दार्थ
हे (होतः) दान देणाऱ्या मनुष्या, तू आणि (होता) (दान देणारा (अन्य मनुष्य) जसे (यक्षत्) अनेक प्रकारचे चांगले व्यवहार (समाजोपयोगी कामें) करता, त्याप्रमाणे (अश्विनौ) पशुपालन करणाऱ्या आणि कृषिकर्म करणाऱ्या लोकांनी (छागस्य) बकरा, गाय, म्हैस आदी पशूं विषयींचे कामें तसेच (वपायाः) बी पेरणे आणि सुती आदी वस्त्र तयार करणे (ही कामें करावीत) या शिवाय (पशुपालक आणि कृषक) यांनी (मेदसः) स्निग्ध पदार्थांचे (घृत, लोणी, दूध आदीचे) (हविः) देण्या-घेण्याचे (जुषन्ताम्) उचित व्यवहार करावेत (तूप, दुध आदी पदार्थ एकमेकाला द्यावेत/घ्यावेत) हे होता, तूही त्यांच्याप्रमाणे (आदान-प्रदानादी) (यज) कर्में करावीत. हे (होतः) देणाऱ्या मनुष्या, ज्याप्रमाणे एक (होता) घेणारा माणूस (मेषस्य) एडक्याच्या (वपायाः) वंशवृद्धी करणारी कामें करतो, तसेच (तुम्ही) (मेदसः) स्निग्ध (तूप आदी) पदार्थांचे केलेले (हविः) अग्नीत आहुती देण्यासाठी तयार केलेले शुद्ध पदार्थ तयार करा (सरस्वतीम्) विशेष ज्ञानपूर्ण वाणीचा (जुषन्ताम्) सेवन करा. (मधुर व माहितीपूर्ण भाषेचा उपयोग करा) हे होता, तुम्हीही तसे (यज) सर्व पदार्थांचे यथोचित मिश्रण करा. हे (होतः) देणाऱ्या माणसा, ज्याप्रमाणे (होता) एखादा घेणारा (चांगले ते स्वीकारणारा) माणूस (ऋषभस्य) बैलाच्या वंशाची (वपायाः) वृद्धी करण्याच्या (योजना व पद्धती आखतो) (मेदसः) स्निग्ध (मेदजन्य) पदार्थ आणि (हविः) देण्यास योग्य पदार्थ (तयार करतो) आणि ते (इन्द्रम्) परमैश्वर्यशाली व्यक्तीशी (जुषन्ताम्) संपर्क करतो, आणि (यक्षत्) उपर्युक्त पदार्थांचे यथोचित मिश्रण करतो, तसे हे होता, तुम्ही (यज) हव्य पदार्थांचे यथोचित मिश्रण कर ॥41॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जी माणसें पशूंची संख्या आणि शक्ती वाढवितात, ते स्वतः देखील शक्तिमान होतात (आणि इतरांनाही बलवान करतात) तसे जे लोक पशूंपासून मिळणाऱ्या दुधाचे आणि त्या दुधापासून निघणाऱ्या तुपाचे सेवन करतात, ते स्वभावाने शांत आणि सहनशील होतात. तसेच जे लोक बैलांचा कृषीसाठी उपयोग करतात, ते धन-धान्याने परिपूर्ण होतात. ॥41॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as a learned person deals in various trades, avails of oily oblations, rears cattle and uses goat, bull, buffalo for purposes of cultivation, for sowing seeds, and grooving cotton for making clothes thereof, so shouldst thou O sacrificer do. Just as a learned person enhances the power of discussion of rival disputants ; puts greasy oblations in the fire, and cultivates scholarly speech, and rightly utilises all these things, so shouldst thou O sacrificer do. Just as a learned person resorts to a device that enhances the strength of the bull, puts into fire oily oblations, and elevates his soul, rightly uses all these substances, so shouldst thou, O sacrificer do.
Meaning
Let the man of yajna, specialized scholar, organize yajna and conferences in the service of the Ashvinis, farmers and cattle breeders. Let them grow by the wool and breeding of goats and the development of rich products such as fats, cream and cheese. May the Ashvinis enjoy the yajna and benefit from it. Man of yajna, carry on the programme with libations of knowledge and investments. Scholar of yajna, organize yajna in the service of Sarasvati, spirit of learning. Let the knowledge of farming and animal husbandry develop with wool and breeding of sheep and the development of fine foods such as cream, butter and ghee. May Sarasvati enjoy and bless the yajna. Man of yajna, carry on the endeavour with rich libations of knowledge and investments. Man of yajna, organize the yajna in the service of Indra, leading power of farming and animal husbandry. Let the breed of the bull and knowledge about dairy farming grow with research on the bull, cows and the development of dairy products such as fat, butter and cheese. May Indra enjoy and bless the yajnaMan of yajna, keep on the yajna with rich libations of knowledge, work and investments.
Translation
Let the priest offer oblations. May the twin healers employ the omentum and the marrow of a male-goat as a curing material. O priest, offer oblations. Let the priest offer oblations. May the divine Doctress employ the omentum and the marrow of a ram as a curing material. O priest, offer oblations. Let the priest offer oblations. May the aspirant employ the omentum and the marrow of a strong bull as a curing material. O priest, offer oblations. (1)
Notes
अश्विनौ छागस्य, सरस्वतीं मेषस्य, इन्द्रं ऋषभस्य, to the Asvins the goat, to Sarasvati the ram, to Indra, the bull. Dayānanda interprets Aśvins as पशुपालकृषीवलौ, cattle breeders and farmers; Sarasvati as विज्ञानवतीं वाचं, the speech full of scientific knowledge; and Indra as परमैश्वर्यकारकं bestower of greatest wealth. Vapā, omentum; or fat. Medas, marrow. Dayānanda interprets vapā as बीजतन्तुसन्तानिका क्रिया, the process of perpetuating and improving the breed; and medas as स्नेहयुक्त पदार्थ, fatty material,
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (হোতঃ) দাতা ! তুমি যেমন (হোতা) অন্যদাতা (য়ক্ষৎ) অনেক প্রকারের ব্যবহারের সঙ্গতি করিবে (অশ্বিনৌ) পশুপালক বা কৃষিকর্মী (ছাগস্য) ছাগ, গাভি, মহিষ আদি পশু সম্পর্কীয় অথবা (বপায়াঃ) বীজ বপন করিবার অথবা সূতার বস্ত্রাদি বয়ন করিবার এবং (মেদসঃ) স্নিগ্ধ পদার্থের (হবিঃ) আদান-প্রদান করিবার যোগ্য ব্যবহারের (জুষেতাম্) সেবন করিবে, তদ্রূপ (য়জ) ব্যবহারের সঙ্গতি করিবে । হে (হোতঃ) দাতা ! তুমি যেমন (হোতা) গ্রহীতা (মেষস্য) মেষের (বপায়াঃ) বীজের বৃদ্ধিকারী ক্রিয়া এবং (মেদসঃ) স্নিগ্ধ পদার্থ সম্পর্কীয় (হবিঃ) অগ্নি আদিতে ত্যাগ করিবার যোগ্য সংস্কার কৃত অন্নাদি পদার্থ এবং (সরস্বতীম্) বিশেষ জ্ঞানযুক্তা বাণীর (জুষতাম্) সেবন করিবে, (য়ক্ষৎ) অথবা উক্ত পদার্থ সমূহের যথাযোগ্য সংগতি করিবে, তদ্রূপ (য়জ) সকল পদার্থগুলির যথাযোগ্য সংগতি করিবে । হে (হোতঃ) দাতা । তুমি যেমন (হোতা) গ্রহীতা (ঋষভস্য) বৃষের (বপায়াঃ) বৃদ্ধি করিবার রীতি এবং (মেদসঃ) স্নিগ্ধ পদার্থ সম্পর্কীয় (হবিঃ) দেওয়ার যোগ্য পদার্থ এবং (ইন্দ্রম্) পরম ঐশ্বর্য্যকারীর (জুষতাম্) সেবন করিবে অথবা যথাযোগ্য (য়ক্ষৎ) উক্ত পদার্থের সঙ্গতি করিবে সেইরূপ (য়জ) যথাযোগ্য পদার্থের সঙ্গতি কর ॥ ৪১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্য পশুদের সংখ্যা ও বলকে বৃদ্ধি করে তাহারা স্বয়ং বলবান হয় এবং যে পশুদের হইতে উৎপন্ন দুধ এবং তাহা হইতে উৎপন্ন ঘৃতের সেবন করে তাহারা কোমল স্বভাবযুক্ত হয় এবং যাহারা কৃষি আদি কর্ম করিবার জন্য এইসব বৃষকে যুক্ত করে, তাহারা ধনধান্যযুক্ত হইয়া থাকে ॥ ৪১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
হোতা॑ য়ক্ষদ॒শ্বিনৌ॒ ছাগ॑স্য ব॒পায়া॒ মেদ॑সো জু॒ষেতা॑ᳬं হ॒বির্হোত॒র্য়জ॑ ।
হোতা॑ য়ক্ষ॒ৎসর॑স্বতীং মে॒ষস্য॑ ব॒পায়া॒ মেদ॑সো জু॒ষতা॑ᳬं হ॒বির্হোত॒র্য়জ॑ ।
হোতা॑ য়ক্ষ॒দিন্দ্র॑মৃষ॒ভস্য॑ ব॒পায়া॒ মেদ॑সো জু॒ষতা॑ᳬं হ॒বির্হোত॒র্য়জ॑ ॥ ৪১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
হোতেত্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । বিদ্বাংসো দেবতাঃ । অতিধৃতিশ্ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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