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यजुर्वेद अध्याय - 21

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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 49
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - ब्राह्म्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः
    63

    दे॒वीर्द्वारो॑ऽअ॒श्विना॑ भि॒षजेन्द्रे॒ सर॑स्वती।प्रा॒णं न वी॒र्य्यं न॒सि द्वारो॑ दधुरिन्द्रि॒यं व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥४९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वीः। द्वारः॑। अ॒श्विना॑। भि॒षजा॑। इन्द्रे॑। सर॑स्वती। प्रा॒णम्। न। वी॒र्य्य᳖म्। न॒सि। द्वारः॑। द॒धुः॒। इ॒न्द्रि॒यम्। व॒सु॒वन इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥४९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवीर्द्वारोऽअश्विना भिषजेन्द्रे सरस्वती । प्राणन्न वीर्यन्नसि द्वारो दधुरिन्द्रियँवसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवीः। द्वारः। अश्विना। भिषजा। इन्द्रे। सरस्वती। प्राणम्। न। वीर्य्यम्। नसि। द्वारः। दधुः। इन्द्रियम्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। व्यन्तु। यज॥४९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 49
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वदुपदेशः कीदृशो भवतीत्याह॥

    अन्वयः

    हे विद्वन्! यथाश्विना सरस्वती भिषजेन्द्रे देवीर्द्वारः प्राप्नुवतो नसि प्राणं न वीर्य्यं द्वारश्च दधुर्वसुवने वसुधेयस्य्द्रन्द्रियं विद्वांसो व्यन्तु तथा त्वं यज॥४९॥

    पदार्थः

    (देवीः) देदीप्यमानाः (द्वारः) प्रवेशनिर्गमार्थानि द्वाराणि (अश्विना) वायुसूर्य्यौ (भिषजा) वैद्यौ (इन्द्रे) ऐश्वर्य्ये (सरस्वती) विज्ञानवती स्त्री (प्राणम्) जीवनहेतुम् (न) इव (वीर्य्यम्) (नसि) नासिकायाम् (द्वारः) (दधुः) (इन्द्रियम्) धनम् (वसुवने) धनसेवनाय (वसुधेयस्य) धनकोशस्य (व्यन्तु) (यज)॥४९॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सूर्य्याचन्द्रप्रकाशो द्वारेभ्यो गृहं प्रविश्यान्तः प्रकाशते तथा विद्वदुपदेशः श्रोत्रान् प्रविश्य स्वान्ते प्रकाशते। एवं ये विद्यया प्रयतन्ते ते श्रीमन्तो जायन्ते॥४९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वानों का उपदेश कैसा होता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन्! जैसे (अश्विना) पवन और सूर्य्य वा (सरस्वती) विशेष ज्ञान वाली स्त्री और (भिषजा) वैद्य (इन्द्रे) ऐश्वर्य के निमित्त (देवीः) अतीव दीपते अर्थात् चमकाते हुए (द्वारः) पैठने और निकलने के अर्थ बने हुए द्वारों को प्राप्त होते हुए प्राणियों की (नसि) नासिका में (प्राणम्) जो श्वास आती उस के (न) समान (वीर्य्यम्) बल और (द्वारः) द्वारों अर्थात् शरीर के प्रसिद्ध नव छिद्रों को (दधुः) धारण करें (वसुवने) वा धन का सेवन करने के लिए (वसुधेयस्य) धनकोश के (इन्द्रियम्) धन को विद्वान् जन (व्यन्तु) प्राप्त हों, वैसे तू (यज) सब व्यवहारों की संगति किया कर॥४९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे सूर्य्य और चन्द्रमा का प्रकाश द्वारों से घर को पैठ घर के भीतर प्रकाश करता है, वैसे विद्वानों का उपदेश कानों में प्रविष्ट होकर भीतर मन में प्रकाश करता है, ऐसे जो विद्या के साथ अच्छा यत्न करते हैं, वे धनवान् होते हैं॥४९॥

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    विषय

    उक्त अधिकारियों के स्थान, मान, पद और उनका ऐश्वर्यवृद्धि का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    (सरस्वती) सुशिक्षिता स्त्री जिस प्रकार (इन्द्रे) अपने सौभाग्यवती पति के लिये (देवी) प्रकाश वाले, उत्तम सजे हुए (द्वार:). द्वारों को खोल देती है उसी प्रकार (सरस्वती) विद्वत्सभा (इन्द्रे) राजा के लिये (देवी: द्वारः) उत्तम द्वारों और विजयशील शत्रुवारक शक्तियों को प्रकट कर । और (अश्विना) प्राण और अपान जिस प्रकार (नसि प्राणं न दधतुः) नासिका में प्राण का स्थापन करते हैं उसी प्रकार ( भिषजा अश्विना) रोग-चिकित्सक, विद्यापारंगत अश्वी नामक वैद्य या पूर्वोक्त राष्ट्र शरीर उपद्रवों को शान्त करने वाले अधिकारी (नसि प्राणं -न) नाक में प्राण के समान ही मुख्य पुरुष में (वीर्य दधुः) वीर्य, इन्द्रिय, राजा के ऐश्वर्यो और बल को धारण कराते हैं । और वे तीनों मिलकर (वसुधेयस्य वसुवने ) कोश के निमित्त धन को धनाभिलाषी राजा के लिये (व्यन्तु) प्राप्त करावें । और हे होतः ! तू उनको (यज) अधिकार प्रदान कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋब्राह्म्युष्णिक् । ऋषभः ॥

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    विषय

    घ्राणेन्द्रिय का बल

    पदार्थ

    १. (इन्द्रे) = जितेन्द्रिय पुरुष में (भिषजा अश्विना) = सब रोगों का प्रतीकार करनेवाले वैद्यभूत प्राणापान तथा सरस्वती ज्ञानाधिदेवता (देवीः द्वार:) = दिव्य द्वारों को (दधुः) = स्थापित करते हैं, अर्थात् प्राणापान की साधना तथा ज्ञान की आराधना करने पर 'मुख, पायु तथा उपस्थ व ब्रह्मरन्ध्र' आदि सब द्वार ठीक से अपना-अपना कार्य करनेवाले होते हैं । २. ये (अश्विना) = प्राणापान तथा (सरस्वती) = ज्ञान (नसि) = घ्राणेन्द्रिय में (प्राणम्) = घ्राणशक्ति को तथा (वीर्यम्) = तेजस्विता को स्थापित करते हैं । ३. नासिका में घ्राणशक्ति व वीर्य की स्थापना के साथ ये प्राणापान व ज्ञान (द्वार:) = सब द्वारों को तथा (इन्द्रियम्) = उन इन्द्रियद्वारों में उस-उस शक्ति को (दधुः) = धारण करते हैं। ४. (वसुवने) = [वसुवननाय] निवासक तत्त्वों की प्राप्ति के लिए (वसुधेयस्य) = वीर्य का (व्यन्तु) पान करें, इसे शरीर में ही व्याप्त करने का प्रयत्न करें। ५. प्रभु कहते हैं कि इस सबके लिए तू (यज) = यज्ञशील बन, तेरी वृत्ति भोगप्रवण न हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणापान की साधना तथा ज्ञान की आराधना से हमारे सब इन्द्रिय-द्वार दिव्य हों। हमारी नासिका में घ्राणेन्द्रिय शक्ति व वीर्य हो। हम निवासक तत्त्वों की प्राप्ति के लिए वीर्य को शरीर में ही व्याप्त करें तथा यज्ञशील बनकर भोगवृत्ति से ऊपर उठें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे सूर्य व चंद्र यांचा प्रकाश दारातून घरात शिरतो, तसेच विद्वानांचा उपदेश कानाने ऐकून माणसांचे मन प्रकाशित होते. अशाप्रकारे जे विद्याप्राप्ती बरोबरच चांगल्याप्रकारे प्रयत्नही करतात ते धनवान होतात.

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    विषय

    विद्वानांचा उपदेश कसा (कशाप्रकारे हितकर) असतो, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान, ज्याप्रमाणे (अश्विना) पवन आणि सूर्य तसेच (सरस्वती) विशेष ज्ञानवती स्त्री आणि (भिषजा) वैद्य (इन्द्रे) ऐवर्य प्राप्ती करिता (देवीः) अत्यंत दीप्तीमान घराच्या (द्वारः) घरातून बाहेर जातांना आणि प्रवेश करतांना सुशोभित अलंकृत द्वारातून (जातात, येतात) (पवन आणि सूर्य, घरात प्रकाश व शुद्धी देण्यासठी घराबाहेर जातात येतात, तशाप्रकारे हे विद्वान, तूही आचरण कर) याशिवाय ज्याप्रमाणे (प्राणम्‌) श्वास (नसि) नासिकेत जाते-येते (न) त्याप्रमाणे विद्वान (वीर्य्यम्‌) शक्ती धारण करतात आणि (द्वारः) शरीराच्या द्वारांना म्हणजे नव छिद्ररूप द्वारांना (दधुः) धारण करतात, (प्राण, अपानादीद्वारे नव द्वारांवर नियंत्रण ठेवतात) (तसे तूही कर) तसेच (वसुवने) धनाचा उपयोग घेण्यासाठी (वसुधेयस्य) कोषातील (इन्द्रियम्‌) धन विद्वज्जन (व्यन्तु) प्राप्त करतात (योग्य त्या कार्यासाठीच कोषातून धन काढतात) त्याप्रमाणे हे विद्वान, तुदेखील आपल्या सर्व व्यवहारांना नियंत्रित वा संयमित कर ॥49॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहेत. जसा सूर्य-चंद्राचा प्रकाश घराच्या द्वारात कानांत प्रविष्ट होऊन अंतर्मनाला प्रकाशित करतो. तसेच जे लोक योग्य पद्धतीने विद्येचा उपयोग करतात, ते धनवान होतात. ॥49॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, just as Air and the Sun, an educated wife, and physicians, for gain of wealth having secured the bright gates meant for going in and coming out, like breath in the nostril, gain strength, and master nine gates of the body, and for enjoying wealth, the wise gain the treasure of riches, so shouldst thou be conversant with all dealings.

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    Meaning

    The doors of divinity, the Ashvinis, nature’s powers of health, the physicians, and Sarasvati, enlightened woman, open the door, create breath in the nose, vigour and virility, and vest it in Indra, man of sacrifice and power. For the blessed man, the powers of divinity create wealth and bestow it on him to enjoy life through yajna. Man of yajna, keep on with the life of sacrifice and enlightenment.

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    Translation

    The Devir-Dvarah, the two healers, ,the physicians, and the divine Doctress give to the aspirant breath and vigour in his nostrils and through the Dvaras, they give him manly vigour. At the time of distribution of wealth, may they obtain store of wealth (for us). Offer oblations. (1)

    Notes

    Prāņam na vīryam, प्राणं वीर्यं च, vital breath and vigour. Also, घ्राणेंद्रियं, sense of smelling (in the nose). Nasi, नासिकायां, in the nose.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্বিদ্বদুপদেশঃ কীদৃশো ভবতীত্যাহ ॥
    পুনঃ বিদ্বান্দিগের উপদেশ কেমন হয়, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বিদ্বন্ ! যেমন (অশ্বিনা) পবন ও সূর্য্য অথবা (সরস্বতী) বিশেষ জ্ঞানবতী নারী এবং (ভিষজা) বৈদ্য (ইন্দ্রে) ঐশ্বর্য্যের নিমিত্ত (দেবীঃ) অতীব দেদীপ্যমান অর্থাৎ চকমক করিয়া (দ্বারঃ) প্রবিষ্ট ও বাহির হওয়ার অর্থ নির্মিত দ্বারগুলিকে প্রাপ্ত হইয়া প্রাণিদিগকে (নসি) নাসিকায় (প্রাণম্) যে শ্বাস আসে তাহার (ন) সমান (বীর্য়্যম্) বল ও (দ্বারঃ) দ্বারগুলি অর্থাৎ শরীরের প্রসিদ্ধ সব ছিদ্রগুলিকে (দধুঃ) ধারণ করিবে (বসুবনে) অথবা ধন সেবন হেতু (বসুধেয়স্ব) ধনকোষের (ইন্দ্রিয়ম্) ধনকে বিদ্বান্ ব্যক্তি (ব্যন্তু) প্রাপ্ত হউক সেইরূপ তুমি (য়জ) সকল ব্যবহারের সঙ্গতি করিতে থাক ॥ ৪ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমা ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন সূর্য্য ও চন্দ্রের প্রকাশ দ্বার দিয়া গৃহে প্রবেশ করিয়া গৃহাভ্যন্তর প্রকাশিত করে, সেইরূপ বিদ্বান্দিগের উপদেশ কর্ণে প্রবিষ্ট হইয়া ভিতর মনে প্রকাশ করে, এমন যে বিদ্যা সহ উত্তম চেষ্টা করে তাহারা ধনবান্ হয় ॥ ৪ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দে॒বীর্দ্বারো॑ऽঅ॒শ্বিনা॑ ভি॒ষজেন্দ্রে॒ সর॑স্বতী । প্রা॒ণং ন বী॒র্য়্যং᳖ ন॒সি দ্বারো॑ দধুরিন্দ্রি॒য়ং ব॑সু॒বনে॑ বসু॒ধেয়॑স্য ব্যন্তু॒ য়জ॑ ॥ ৪ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দেবীর্দ্বার ইত্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । অশ্ব্যাদয়ো দেবতাঃ । ব্রাহ্ম্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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