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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 6/ मन्त्र 16
    सूक्त - शन्तातिः देवता - चन्द्रमा अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    अ॒राया॑न्ब्रूमो॒ रक्षां॑सि स॒र्पान्पु॑ण्यज॒नान्पि॒तॄन्। मृ॒त्यूनेक॑शतं ब्रूम॒स्ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒राया॑न् । ब्रू॒म॒: । रक्षां॑सि । स॒र्पान् । पु॒ण्य॒ऽज॒नान् । पि॒तॄन् । मृ॒त्यून् । एक॑ऽशतम् । ब्रू॒म॒: । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥८.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरायान्ब्रूमो रक्षांसि सर्पान्पुण्यजनान्पितॄन्। मृत्यूनेकशतं ब्रूमस्ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरायान् । ब्रूम: । रक्षांसि । सर्पान् । पुण्यऽजनान् । पितॄन् । मृत्यून् । एकऽशतम् । ब्रूम: । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥८.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 6; मन्त्र » 16

    पदार्थ -

    १. (अरायान्) = अदानवृत्तिवाले, (रक्षांसि) = अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवाले मनुष्यों का हम (ब्रूमः) = व्यक्तरूप से प्रतिपादन करते हैं इनके जीवन का विचार करते हैं। जहाँ (सर्पान्)  कुटिल गतिवाले पुरुषों के जीवन को कहते हैं, वहाँ उनकी तुलना में (पुण्यजनान्) = गुणी शुभकर्म-प्रवृत्त-लोगों का तथा (पितृन्) = रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त लोगों का भी स्तवन करते हैं। इस सब विचार से हम 'अराय, रक्षस् व सर्प' न बनकर पुण्यजन व पितर' बनने का संकल्प करते हैं। २. (एकशतम्) = एक अधिक सौ (मृत्यून) = मृत्यु के कारणभूत रोगों का भी प्रतिपादन व विचार करते हैं। विचार करके उनके कारणभूत अपथ्यों को दूर करने के लिए यन करते हैं। (ते) = वे सब (न:) = हमें (अंहस:) = कष्ट से व पाप से (मुञ्चन्तु) = पृथक् करें।

    भावार्थ -

    हम शुभ व अशुभ प्रवृत्तिवाले लोगों के जीवनों की तुलना करते हुए शुभ प्रवृत्तिवाले बनने के लिए यनशील हों। रोगों के कारणों का विचार करके उन कारणों को दूर करके कष्टों से मुक्त हों।

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