अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 6/ मन्त्र 10
सूक्त - शन्तातिः
देवता - चन्द्रमा अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
दिवं॑ ब्रूमो॒ नक्ष॑त्राणि॒ भूमिं॑ य॒क्षाणि॒ पर्व॑तान्। स॑मु॒द्रा न॒द्यो वेश॒न्तास्ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठदिव॑म् । ब्रू॒म॒: । नक्ष॑त्राणि । भूमि॑म् । य॒क्षाणि॑ । पर्व॑तान् । स॒मु॒द्रा: । न॒द्य᳡: । वे॒श॒न्ता: । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥८.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवं ब्रूमो नक्षत्राणि भूमिं यक्षाणि पर्वतान्। समुद्रा नद्यो वेशन्तास्ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठदिवम् । ब्रूम: । नक्षत्राणि । भूमिम् । यक्षाणि । पर्वतान् । समुद्रा: । नद्य: । वेशन्ता: । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥८.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 6; मन्त्र » 10
विषय - धुलोक, नक्षत्र, भूमि, यक्ष
पदार्थ -
१. (दिवम्) = इस द्योतमान युलोक का हम (ब्रूमः) = स्तवन करते हैं। द्युलोक में आश्रित (नक्षत्राणि) = नक्षत्रों को-जोकि पुण्यकृत् लोगों के धाम हैं [सका वा एतानि ज्योतींषि यन्नक्षत्राणि-तै० अ० ५.५.१.३]. उनका स्तवन करते हैं। (भूमिम्) = भूमि का (यक्षाणि) = भूमि पर स्थित पुण्यक्षेत्रों का [पूज्य स्थानों का], (पर्वतान्) = पर्वतों का गुणस्तवन करते हैं। २. (समुद्रा:) = समुद्रों, (नद्य:) = नदियों व (वेशन्ता:) = जो अल्प सर [तालाब] हैं, उन सबका गुणस्तवन करते हैं। इन सबमें प्रभु की महिमा को देखते हैं। इसप्रकार (ते) = वे सब (न:) = हमें (अंहसः मुञ्चन्तु) = पाप व कष्ट से बचाएँ।
भावार्थ -
द्युलोक, नक्षत्र, भूमि, यक्ष, समुद्र, नदी आदि में सर्वत्र प्रभु-महिमा का अवलोकन करते हुए हम पापों से बचें।
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