अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 6/ मन्त्र 23
सूक्त - शन्तातिः
देवता - चन्द्रमा अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - बृहतीगर्भानुष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
यन्मात॑ली रथक्री॒तम॒मृतं॒ वेद॑ भेष॒जम्। तदिन्द्रो॑ अ॒प्सु प्रावे॑शय॒त्तदा॑पो दत्त भेष॒जम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । मात॑ली । र॒थ॒ऽक्री॒तम् । अ॒मृत॑म् । वेद॑ । भे॒ष॒जम् । तत् । इन्द्र॑: । अ॒प्ऽसु । प्र । अ॒वे॒श॒य॒त् । तत् । आप॑: । द॒त्त॒ । भे॒ष॒जम् ॥८.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्मातली रथक्रीतममृतं वेद भेषजम्। तदिन्द्रो अप्सु प्रावेशयत्तदापो दत्त भेषजम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । मातली । रथऽक्रीतम् । अमृतम् । वेद । भेषजम् । तत् । इन्द्र: । अप्ऽसु । प्र । अवेशयत् । तत् । आप: । दत्त । भेषजम् ॥८.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 6; मन्त्र » 23
विषय - अमृतम् भेषजम्
पदार्थ -
१. (मातली) = इन्द्र [जीवात्मा] के शरीर-रथ का सारथिरूप यह बुद्धि (रथक्रीतम्) = [रथे क्रीत] शरीर-रथ में द्रव्यविनिमय से-[भोजन का विनिमय रस में, रस का रुधिर में, रुधिर का मांस में, मांस का मेदस् में, मेदस् का अस्थि में, अस्थि का मज्जा में व मज्जा का वीर्य में-इसप्रकार विनिमय द्वारा] प्राप्त (यत्) = जिस (अमृतम्) = निरोगता के देनेवाले (भेषजम्) = सब रोगों के औषधभूत वीर्य को वेद-प्राप्त करता है (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय पुरुष (तत्) = उस वीर्य को (अप्सु प्रावेशयत्) = शरीरस्थ रुधिररूप जलों में प्रविष्ट कराता है। जितेन्द्रियता द्वारा वीर्य की ऊर्ध्वगति करता हुआ इन्हें रुधिर में व्याप्त कर देता है, (तत्) = अत: (आप:) = हे रुधिररूप जलो! आप हमारे लिए (भेषजम् दत्त) = यह औषध दो।
भावार्थ -
शरीर में सुरक्षित वीर्य सब रोगों का औषध बनता है। बुद्धिही इसके महत्त्व को समझकर जितेन्द्रिय पुरुष को इसके रक्षण के लिए प्रेरित करती है।
यह वीर्यरक्षण करनेवाला 'इन्द्र' संसार की समाप्ति पर भी बचे रहनेवाले उस 'उच्छिष्ट' प्रभु का स्मरण करता है। प्रभुस्मरण द्वारा अपनी वृत्ति को अन्तर्मुखी करता हुआ 'अथर्वा' [अथ अर्वाङ] बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
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