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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
    सूक्त - शन्तातिः देवता - चन्द्रमा अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    अ॒ग्निं ब्रू॑मो॒ वन॒स्पती॒नोष॑धीरु॒त वी॒रुधः॑। इन्द्रं॒ बृह॒स्पतिं॒ सूर्यं॒ ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । ब्रू॒म॒: । वन॒स्पती॑न् । ओष॑धी: । उ॒त । वी॒रुध॑: । इन्द्र॑म् । बृह॒स्पति॑म् । सूर्य॑म् । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं ब्रूमो वनस्पतीनोषधीरुत वीरुधः। इन्द्रं बृहस्पतिं सूर्यं ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम् । ब्रूम: । वनस्पतीन् । ओषधी: । उत । वीरुध: । इन्द्रम् । बृहस्पतिम् । सूर्यम् । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 6; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. 'पाप' क्या है? एक वस्तु का अयथायोग 'गलत प्रयोग' ही पाप है और इस पाप के कारण ही कष्ट होते हैं। प्रस्तुत मन्त्रों में प्रयुक्त 'अंहस्' शब्द के दोनों ही अर्थ हैं [Sin [पाप] [B] Trouble, anxiety, care, distress [कष्ट]। यदि हम अग्नि आदि देवों का ठीक ज्ञान प्राप्त करके इनका उपयुक्त प्रयोग करेंगे तो पाप व कष्ट से ऊपर उठ पाएँगे, अत: कहते हैं कि (अग्निं ब्रूम:) = अग्नि का व्यक्त [स्पष्ट] प्रतिपादन करते हैं-उसका ठीक ज्ञान प्रास करते हैं। इसी प्रकार (वनस्पतीन् ओषधी: उत वीरुधः) = वनस्पतियों, ओषधियों व लताओं का ठीक प्रकार से प्रतिपादन करते हैं। २. (इन्द्र बृहस्पति सूर्यम्) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले [इन्द्र], ज्ञान के स्वामी [बृहस्पति], सबको कर्मों में प्रेरित करनेवाले [सुवति कर्मणि-सूर्यः] प्रभु को हम स्तुत करते हैं और स्वयं भी जितेन्द्रिय, ज्ञानी व क्रियाशील बनने का प्रयास करते हैं। (ते) = वे सब अग्नि आदि देव (न:) = हमें (अंहसः मुञ्चन्तु) = पाप व कष्ट से मुक्त करें।

    भावार्थ -

    हम अग्नि आदि देवों का ठीक ज्ञान प्राप्त करते हुए उनकी सहायता से पापों व कष्टों से बचें।

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