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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 26
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - मध्येज्योतिरुष्णिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त

    तानि॒ कल्प॑द् ब्रह्मचा॒री स॑लि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे तपो॑ऽतिष्ठत्त॒प्यमा॑नः समु॒द्रे। स स्ना॒तो ब॒भ्रुः पि॑ङ्ग॒लः पृ॑थि॒व्यां ब॒हु रो॑चते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तानि॑ । कल्प॑त् । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । स॒लि॒लस्य॑ । पृ॒ष्ठे । तप॑: । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । त॒प्यमा॑न: । स॒मु॒द्रे । स: । स्ना॒त: । ब॒भ्रु: । पि॒ङ्ग॒ल: । पृ॒थि॒व्याम् । ब॒हु । रो॒च॒ते॒ ॥७.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तानि कल्पद् ब्रह्मचारी सलिलस्य पृष्ठे तपोऽतिष्ठत्तप्यमानः समुद्रे। स स्नातो बभ्रुः पिङ्गलः पृथिव्यां बहु रोचते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तानि । कल्पत् । ब्रह्मऽचारी । सलिलस्य । पृष्ठे । तप: । अतिष्ठत् । तप्यमान: । समुद्रे । स: । स्नात: । बभ्रु: । पिङ्गल: । पृथिव्याम् । बहु । रोचते ॥७.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 26

    पदार्थ -

    १. हे ब्रह्मचर्यात्मक ब्रह्मन्। आप (अस्मासु) = हममें (चक्षुः श्रोत्रम्) = देखने व सुनने की शक्ति को और (यश:) = कीर्ति को (धेहि) = धारण कीजिए। इसी दृष्टिकोण के (अन्नम्) = भोज्य अन्न को, (रेत:) = अन्न से उत्पन्न इस वीर्य को, (लोहितम्) = रुधिर को तथा (उदरम्) = उदर को-उदरोपलक्षित समस्त शरीर को [धेहि-] धारण कीजिए। २. (तानि) = उन चक्षु, श्रोत्र आदि को (कल्पत) = सामर्थ्ययुक्त करता हुआ (ब्रह्मचारी) = वीर्यरक्षक युवक (समुद्रे) = ज्ञान के समुद्र आचार्य के गर्भ में (तपः तप्यमान:) = तप भी करता हुआ (सलिलस्य पृष्ठे) = ज्ञान-जल के पृष्ठ पर (अतिष्ठत्) = स्थिर होता है। इस ज्ञान-जल में (स्नातः) = स्नान करके शुद्ध बना हुआ (स:) = वह ब्रह्मचारी (बभ्रू:) = वीर्य का धारण करनेवाला (पिंगल:) = तेजस्विता से पिंगल वर्णवाला (पृथिव्याम्) = इस पृथिवी पर (बहु रोचते) = बहुत ही चमकता है।

    भावार्थ -

    ब्रह्मचारी अपने में 'चक्षु, श्रोत्र, यश, अन्न, रेत, लोहित व उदर' को धारण करता हुआ आचार्य के गर्भ में तपस्यापूर्वक स्थित होता है। यह ज्ञान-जल में स्नान करके, वीर्यरक्षण से तेजस्वी बना हुआ इस पृथिवी पर खूब ही चमकता है।

    यह निष्पाप जीवनवाला ब्रह्मचारी शान्ति का विस्तार करनेवाला शन्ताति' होता हुआ अगले सूक्त में निष्पापता के लिए प्रार्थना करता है -

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