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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 8
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - पुरोऽतिजागता विराड्जगती सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त

    आ॑चा॒र्यस्ततक्ष॒ नभ॑सी उ॒भे इ॒मे उ॒र्वी ग॑म्भी॒रे पृ॑थि॒वीं दिवं॑ च। ते र॑क्षति॒ तप॑सा ब्रह्मचा॒री तस्मि॑न्दे॒वाः संम॑नसो भवन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽचा॒र्य᳡: । त॒त॒क्ष॒ । नभ॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ । इ॒मे इति॑ । उ॒र्वी इति॑ । ग॒म्भी॒रे इति॑ । पृ॒थि॒वीम् । दिव॑म् । च॒ । ते इति॑ । र॒क्ष॒ति॒ । तप॑सा । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । तस्मि॑न् । दे॒वा: । सम्ऽम॑नस: । भ॒व॒न्ति॒ ॥७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आचार्यस्ततक्ष नभसी उभे इमे उर्वी गम्भीरे पृथिवीं दिवं च। ते रक्षति तपसा ब्रह्मचारी तस्मिन्देवाः संमनसो भवन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽचार्य: । ततक्ष । नभसी इति । उभे इति । इमे इति । उर्वी इति । गम्भीरे इति । पृथिवीम् । दिवम् । च । ते इति । रक्षति । तपसा । ब्रह्मऽचारी । तस्मिन् । देवा: । सम्ऽमनस: । भवन्ति ॥७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. (आचार्य:) = आचार्य[-ब्रह्मचारी को ज्ञान का चारण करानेवाला] (उभे इमे) = इन दोनों (नभसी) = [नह बन्धने] परस्पर सम्बद्ध (उर्वी गम्भीरे) = विशाल व गम्भीर (प्रथिवीं दिवं च) = पृथिवी व युलोक को (ततक्ष) = बनाता है। आचार्य ब्रह्मचारी को अपने गर्भ में सुरक्षित रखता हुआ और वासनाओं से आक्रान्त न होने देता हुआ विस्तृत शक्तिवाले शरीररूप पृथिवीलोक से तथा गम्भीर ज्ञानवाले मस्तिष्करूप धुलोक से युक्त करता है। ब्रह्मचारी में वह शक्ति व ज्ञान को परस्पर सम्बद्ध [नभसी] करने का यत्न करता है। २. (ब्रह्मचारी) = ज्ञान में विचरण करनेवाला यह शिष्य तेउन दोनों शरीररूप पृथिवीलोक को तथा मस्तिष्करूप धुलोक को (तपसा) = तप के द्वारा (रक्षति) = अपने में सुरक्षित करता है। (तस्मिन्) = उस ब्रह्मचारी में (देवा:) = दिव्य वृत्तियाँ (संमनसः) = संगत मनवाली (भवन्ति) = होती हैं। यह ब्रह्मचारी दिव्य वृत्तियों से युक्त जीवनवाला बनता है। अथवा यह 'माता-पिता, आचार्य व अतिथि' आदि देवों का प्रिय बनता है।

     

    भावार्थ -

    आचार्य विद्यार्थी के जीवन में शक्ति व ज्ञान भरने का यत्न करता है। यह विद्यार्थी तप से अपने में ज्ञान व शक्ति का रक्षण करता हुआ देवों का प्रिय बनता है।

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