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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - उरोबृहती सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त

    आ॑चा॒र्य उप॒नय॑मानो ब्रह्मचा॒रिणं॑ कृणुते॒ गर्भ॑म॒न्तः। तं रात्री॑स्ति॒स्र उ॒दरे॑ बिभर्ति॒ तं जा॒तं द्रष्टु॑मभि॒संय॑न्ति दे॒वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽचा॒र्य᳡: । उ॒प॒ऽनय॑मान: । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒रिण॑म् । कृ॒णु॒ते॒ । गर्भ॑म् । अ॒न्त: । तम् । रात्री॑: । ति॒स्र: । उ॒दरे॑ । बि॒भ॒र्ति॒ । तम् । जा॒तम् । द्रष्टु॑म् । अ॒भि॒ऽसंय॑न्ति । दे॒वा: ॥७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः। तं रात्रीस्तिस्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽचार्य: । उपऽनयमान: । ब्रह्मऽचारिणम् । कृणुते । गर्भम् । अन्त: । तम् । रात्री: । तिस्र: । उदरे । बिभर्ति । तम् । जातम् । द्रष्टुम् । अभिऽसंयन्ति । देवा: ॥७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (आचार्य:) = आचार्य (ब्रह्मचारिणम्) = ब्रह्मचारी को (उपनयमान:) = अपने समीप प्राप्त कराता हुआ (अन्त:) = विद्याशरीर के मध्य में (गर्भः कृणुते) = गर्भरूप से स्थापित करता है। (तम्) = उस ब्रह्मचारी को (तिस्त्रा रात्री:) = तीन रात्रियों तक-प्रकृति, जीव व परमात्मा-विषयक अज्ञानान्धकार के दर होने तक (उदरे बिभर्ति) = अपने अन्दर धारण करता है। आजकल की भाषा में प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च शिक्षणालयों में ज्ञान प्राप्त कर लेने तक वह आचार्यकुल में ही रहता है। २. तीन रात्रियों की समाप्ति पर (जातं तम्) = विद्यामय शरीर से प्रादुर्भूत हुए-हुए उस ब्रह्मचारी को-स्रातक को-(द्रष्टुम्) = देखने के लिए (देवाः अभिसंयन्ति) = देव आभिमुख्येन प्रास होते हैं। देव उसे देखने के लिए उपस्थित होते हैं। [स हि विद्यातस्तं जनयति। तच्छ्रेष्ठं जन्म। शरीरमेव मातापितरौ जनयतः । आपस्तम्ब १।१।१५-१७]

    भावार्थ -

    आचार्य विद्यार्थी को अपने समीप अत्यन्त सुरक्षित रूप में रखता है। वहाँ वासनाओं व विलासों से दूर रखता हुआ वह उसे 'विकसित शरीर, मन व मस्तिष्कवाला' बनाता है। इसप्रकार विकसित जीवनवाले विद्यार्थी को देखने के लिए विद्वान् उपस्थित होते हैं।

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