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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 23
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - पुरोबार्हतातिजागतगर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त

    दे॒वाना॑मे॒तत्प॑रिषू॒तमन॑भ्यारूढं चरति॒ रोच॑मानम्। तस्मा॑ज्जा॒तं ब्राह्म॑णं॒ ब्रह्म॑ ज्ये॒ष्ठं दे॒वाश्च॒ सर्वे॑ अ॒मृते॑न सा॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वाना॑म् । ए॒तत् । प॒रि॒ऽसू॒तम् । अन॑भिऽआरूढम् । च॒र॒ति॒ । रोच॑मानम् । तस्मा॑त् । जा॒तम् । ब्राह्म॑णम् । ब्रह्म॑ । ज्ये॒ष्ठम् । दे॒वा: । च॒ । सर्वे॑ । अ॒मृते॑न । सा॒कम् ॥७.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवानामेतत्परिषूतमनभ्यारूढं चरति रोचमानम्। तस्माज्जातं ब्राह्मणं ब्रह्म ज्येष्ठं देवाश्च सर्वे अमृतेन साकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवानाम् । एतत् । परिऽसूतम् । अनभिऽआरूढम् । चरति । रोचमानम् । तस्मात् । जातम् । ब्राह्मणम् । ब्रह्म । ज्येष्ठम् । देवा: । च । सर्वे । अमृतेन । साकम् ॥७.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 23

    पदार्थ -

    १. (देवानाम) = वासनाओं को जीतने की कामनावाले, देववृत्ति के पुरुषों का (एतत्) = यह शरीरस्थ वीर्य (परिषूतम्) = परिगृहीत हुआ-हुआ-शरीर में ही चारों ओर व्यास किया हुआ (अनभ्यारूढम्) = रोग आदि से अनाक्रान्त हुआ-हुआ (रोचमानम्) = ज्ञानदीसि से दीप्त हुआ-हुआ (चरति) = शरीर में गतिवाला होता है। २. (तस्मात्) = उस शरीरस्थ वीर्य से ही (ब्राह्मणम्) = ब्रह्म सम्बन्धी (ज्येष्ठं ब्रह्म) = सर्वोत्कृष्ट ज्ञान, (जातम्) = प्रादुर्भूत हुआ (च) = और (अमृतेन साकम्) = अमृत नीरोगता के साथ (सर्वे देवा:) = सब दिव्य गुण उत्पन्न हुए।

    भावार्थ -

    देववृत्ति के पुरुष वीर्य का शरीर में ही रक्षण करते हैं। यह सुरक्षित वीर्य रोगों से अनाक्रान्त व दीप्त होकर शरीर में गति करता है। इस सुरक्षित वीर्य से 'सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मज्ञान, दिव्य गुणों व नीरोगता' की प्राप्ति होती है।

     

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