अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 13
अ॒ग्नौ सूर्ये॑ च॒न्द्रम॑सि मात॒रिश्व॑न्ब्रह्मचा॒र्यप्सु स॒मिध॒मा द॑धाति। तासा॑म॒र्चींषि॒ पृथ॑ग॒भ्रे च॑रन्ति॒ तासा॒माज्यं॒ पुरु॑षो व॒र्षमापः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नौ । सूर्ये॑ । च॒न्द्रम॑सि । मा॒त॒रिश्व॑न् । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । अ॒प्सुऽसु । स॒म्ऽइध॑म् । आ । द॒धा॒ति॒ । तासा॑म् । अ॒र्चीषि॑ । पृथ॑क् । अ॒भ्रे । च॒र॒न्ति॒ । तासा॑म् । आज्य॑म् । पुरु॑ष: । व॒र्षम् । आप॑: ॥७.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नौ सूर्ये चन्द्रमसि मातरिश्वन्ब्रह्मचार्यप्सु समिधमा दधाति। तासामर्चींषि पृथगभ्रे चरन्ति तासामाज्यं पुरुषो वर्षमापः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नौ । सूर्ये । चन्द्रमसि । मातरिश्वन् । ब्रह्मऽचारी । अप्सुऽसु । सम्ऽइधम् । आ । दधाति । तासाम् । अर्चीषि । पृथक् । अभ्रे । चरन्ति । तासाम् । आज्यम् । पुरुष: । वर्षम् । आप: ॥७.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 13
विषय - सर्वमहान् 'ब्रह्मचारी' प्रभु
पदार्थ -
१. सदा ज्ञान के साथ विचरनेवाले प्रभु सर्वमहान् ‘ब्रह्मचारी हैं। ये (ब्रह्मचारी) = ज्ञानस्वरूप में विचरनेवाले प्रभु (अग्नौ सूर्ये चन्द्रमसि मातरिश्वन् अप्सु) = अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, वायु व जलों में (समिधम्) = दीप्ति को (आदधाति) = स्थापित करता है। अग्नि में तेज, सूर्य-चन्द्रमा में प्रभा, वायु में जीवन-शक्ति व प्रवाह तथा जलों में रस प्रभु ही तो स्थापित करते हैं। २. (तासाम्) = इन जल आदि की (अर्चीषि) = दीतियाँ (पृथक्) = अलग-अलग (अभ्रेचरन्ति) = उदकपूर्ण मेघ में विचरण करती हैं। (तासाम्) = इन जल आदि में स्थापित दीसियों का ही कार्यरूप (आज्यं पुरुषो वर्षम् आप:) = आज्य, पुरुष, वृष्टि व जल हैं। 'आग्य' का अर्थ घृत है। इसके साधनभूत गौ आदि की समृद्धि होती है। गौवों के ठीक होने पर उत्तम सन्तान की समृद्धि 'पुरुष' शब्द से कही जा सकती है। इन मेषों से समय पर ('वर्षम्') = वृष्टि होती है और उससे 'आप', अर्थात् बापी, कूप-तड़ाग आदि की समृद्धि होती है।
भावार्थ -
प्रभु ने 'अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु व जलों' में समिध् [तेज] को स्थापित किया है। इन सबकी दीप्तियों मेघ में एकत्र होती हैं। उनसे गवादि पशुओं, पुरुषों, वृष्टि व जलों की वृद्धि होती है।
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