अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 20
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
ओष॑धयो भूतभ॒व्यम॑होरा॒त्रे वन॒स्पतिः॑। सं॑वत्स॒रः स॒हर्तुभि॒स्ते जा॒ता ब्र॑ह्मचा॒रिणः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठओष॑धय: । भू॒त॒ऽभ॒व्यम् । अ॒हो॒रा॒त्रे इति॑ । वन॒स्पति॑: । स॒म्ऽव॒त्स॒र: । स॒ह । ऋ॒तुऽभि॑: । ते । जा॒ता: । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒रिण॑: ॥७.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
ओषधयो भूतभव्यमहोरात्रे वनस्पतिः। संवत्सरः सहर्तुभिस्ते जाता ब्रह्मचारिणः ॥
स्वर रहित पद पाठओषधय: । भूतऽभव्यम् । अहोरात्रे इति । वनस्पति: । सम्ऽवत्सर: । सह । ऋतुऽभि: । ते । जाता: । ब्रह्मऽचारिण: ॥७.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 20
विषय - 'ओषधियों व काल' का ब्रह्मचर्य
पदार्थ -
१. (ओषधयः) = फलपाकान्त व्रीहि-यव आदि, (भूतभव्यम्) = उत्पन्न और उत्पत्स्यमान चराचरात्मक जगत् (अहोरात्रे) = दिन और रात, (वनस्पति:) = शरीरों में प्रकाश की रक्षक [वनाना पालयिता-वन Light] वनस्पतियाँ, (संवत्सर:) = द्वादश मासात्मक काल (अत्तभिः सह) = वसन्तादि छह ऋतुओं के साथ, ये सब (ब्रह्मचारिणः जाता:) = ब्रह्मचारी के तप की महिमा से ठीक प्रादुर्भाववाले हुए।
भावार्थ -
जिस राष्ट्र में ब्रह्मचर्य का पालन होता है, वहाँ ओषधियों, वनस्पतियों ठीक समय पर प्रादुर्भूत होती हैं। वहाँ ऋतुओं के साथ कालचक्र भी सुचारुरूपेण चलता है।
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