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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 25
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - एकावसानार्च्युष्णिक् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त

    चक्षुः॒ श्रोत्रं॒ यशो॑ अ॒स्मासु॑ धे॒ह्यन्नं॒ रेतो॒ लोहि॑तमु॒दर॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चक्षु॑: । श्रोत्र॑म् । यश॑: । अ॒स्मासु॑ । धे॒हि॒ । अन्न॑म् । रेत॑: । लोहि॑तम् । उदर॑म् ॥७.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चक्षुः श्रोत्रं यशो अस्मासु धेह्यन्नं रेतो लोहितमुदरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चक्षु: । श्रोत्रम् । यश: । अस्मासु । धेहि । अन्नम् । रेत: । लोहितम् । उदरम् ॥७.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 25

    पदार्थ -

    १. हे ब्रह्मचर्यात्मक ब्रह्मन्। आप (अस्मासु) = हममें (चक्षुः श्रोत्रम्) = देखने व सुनने की शक्ति को और (यश:) = कीर्ति को (धेहि) = धारण कीजिए। इसी दृष्टिकोण के (अन्नम्) = भोज्य अन्न को, (रेत:) = अन्न से उत्पन्न इस वीर्य को, (लोहितम्) = रुधिर को तथा (उदरम्) = उदर को-उदरोपलक्षित समस्त शरीर को [धेहि-] धारण कीजिए। २. (तानि) = उन चक्षु, श्रोत्र आदि को (कल्पत) = सामर्थ्ययुक्त करता हुआ (ब्रह्मचारी) = वीर्यरक्षक युवक (समुद्रे) = ज्ञान के समुद्र आचार्य के गर्भ में (तपः तप्यमान:) = तप भी करता हुआ (सलिलस्य पृष्ठे) = ज्ञान-जल के पृष्ठ पर (अतिष्ठत्) = स्थिर होता है। इस ज्ञान-जल में (स्नातः) = स्नान करके शुद्ध बना हुआ (स:) = वह ब्रह्मचारी (बभ्रू:) = वीर्य का धारण करनेवाला (पिंगल:) = तेजस्विता से पिंगल वर्णवाला (पृथिव्याम्) = इस पृथिवी पर (बहु रोचते) = बहुत ही चमकता है।

    भावार्थ -

    ब्रह्मचारी अपने में 'चक्षु, श्रोत्र, यश, अन्न, रेत, लोहित व उदर' को धारण करता हुआ आचार्य के गर्भ में तपस्यापूर्वक स्थित होता है। यह ज्ञान-जल में स्नान करके, वीर्यरक्षण से तेजस्वी बना हुआ इस पृथिवी पर खूब ही चमकता है।

    यह निष्पाप जीवनवाला ब्रह्मचारी शान्ति का विस्तार करनेवाला शन्ताति' होता हुआ अगले सूक्त में निष्पापता के लिए प्रार्थना करता है -

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