अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 128/ मन्त्र 11
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
वा॑वा॒ता च॒ महि॑षी स्व॒स्त्या च यु॒धिंग॒मः। श्वा॒शुर॑श्चाया॒मी तो॒ता कल्पे॑षु सं॒मिता॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवा॒वा॒ता । च॒ । महि॑षी । स्व॒स्त्या । च । युधिंगम: ॥ श्वा॒शुर॑: । च । अया॒मी । तो॒ता । कल्पे॑षु । सं॒मिता ॥१२८.११॥
स्वर रहित मन्त्र
वावाता च महिषी स्वस्त्या च युधिंगमः। श्वाशुरश्चायामी तोता कल्पेषु संमिता ॥
स्वर रहित पद पाठवावाता । च । महिषी । स्वस्त्या । च । युधिंगम: ॥ श्वाशुर: । च । अयामी । तोता । कल्पेषु । संमिता ॥१२८.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 128; मन्त्र » 11
विषय - स्वस्त्या च युधिंगमः
पदार्थ -
१. (वावाता च) = [वा गतिगन्धनयोः] उत्तम पुण्य सुगन्ध-[सम्बन्ध]-युक्त-सुखपूर्वक पति के साथ संगत (महिषी) = कुलीन स्त्री जैसे आदरणीय होती है, (च) = उसी प्रकार (च) = उसी प्रकार स्वस्त्या स्वस्थ कल्याणयुक्त होता हुआ (युधिंगमः) = युद्ध में जानेवाला वीर आदरणीय होता है। २. (शु आसुर:) = शीघ्रता से [शु] मार्ग को व्यापनेवाला-कार्यों को करनेवाला, (आयामी च) = शासक भी उसी प्रकार आदरणीय होता है। (ता उता ता) = वे सब और निश्चय से वे सब (कल्पेषु) = शास्त्र विधानों में (संमिता) = समान माने गये हैं।
भावार्थ - पतिसंगत कुलीन स्त्री, युद्ध में वीरतापूर्वक अग्रसर होनेवाला स्वस्थ योद्धा तथा शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त होनेवाला शासक-ये सब शास्त्र-विधानों में समानरूप से आदरणीय माने गये हैं।
इस भाष्य को एडिट करें