अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 128/ मन्त्र 3
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
यद्भ॒द्रस्य॒ पुरु॑षस्य पु॒त्रो भ॑वति दाधृ॒षिः। तद्वि॒प्रो अब्र॑वीदु॒ तद्ग॑न्ध॒र्वः काम्यं॒ वचः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । भ॒द्रस्य॒ । पुरु॑षस्य । पु॒त्र: । भ॑वति । दाधृ॒षि: ॥ तत् । वि॒प्र: । अब्र॑वीत् । ऊं॒ इति॑ । तत् । ग॑न्ध॒र्व: । काम्य॒म् । वच॑: ॥१२८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्भद्रस्य पुरुषस्य पुत्रो भवति दाधृषिः। तद्विप्रो अब्रवीदु तद्गन्धर्वः काम्यं वचः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । भद्रस्य । पुरुषस्य । पुत्र: । भवति । दाधृषि: ॥ तत् । विप्र: । अब्रवीत् । ऊं इति । तत् । गन्धर्व: । काम्यम् । वच: ॥१२८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 128; मन्त्र » 3
विषय - उदग्
पदार्थ -
१. (यत्) = जब (भद्रस्य पुरुषस्य) = [भदि कल्याणे सुखे च] कल्याण-कर्मों को करनवाले पुरुष का (पुत्र:) = सन्तान (दाधृषिः) = शत्रुओं का-काम, क्रोध, लोभ का-धर्षण करनेवाला होता है? (तत्) = तब (गन्धर्व:) = ज्ञान की वाणियों का धारण करनेवाला (विप्रः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाला ज्ञानी पुरुष इस दाधृषि के लिए (काम्यं वच:) = कमनीय सुन्दर वेदवाणियों को (अब्रवीत्) = उपदिष्ट करता है। २. विद्यार्थी कुलीन हो, 'काम' आदि शत्रुओं का धर्षण करनेवाला हो, ऐसा होने पर उत्कृष्ट जीवनवाला ज्ञानी आचार्य ज्ञान की वाणियों को उपदिष्ट करता है। यह विद्यार्थी (उदग्)-ऊर्ध्वगतिवाला होता है [उत् अञ्च]-सदा उन्नति-पथ पर आगे बढ़ता है।
भावार्थ - उत्तम माता व पिता का सन्तान भी सामान्यतः उत्तम होता है-यह काम, क्रोध का शिकार नहीं होता रहता। इसे सदाचारी, ज्ञानी आचार्य ज्ञान की बाणियों का उपदेश करते हैं और यह सदा उन्नत होता चलता है।
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