अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 128/ मन्त्र 15
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - विराडनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
पृ॒ष्ठं धाव॑न्तं ह॒र्योरौच्चैः॑ श्रव॒सम॑ब्रुवन्। स्व॒स्त्यश्व॒ जैत्रा॒येन्द्र॒मा व॑ह सु॒स्रज॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒ष्ठम् । धाव॑न्तम् । ह॒र्यो: । औच्चै॑:ऽश्रव॒सम् । अ॑ब्रुवन् ॥ स्व॒स्ति । अश्व॒ । जैत्रा॒य । इन्द्र॒म् । आ । व॑ह । सु॒स्रज॑म् ॥१२८.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
पृष्ठं धावन्तं हर्योरौच्चैः श्रवसमब्रुवन्। स्वस्त्यश्व जैत्रायेन्द्रमा वह सुस्रजम् ॥
स्वर रहित पद पाठपृष्ठम् । धावन्तम् । हर्यो: । औच्चै:ऽश्रवसम् । अब्रुवन् ॥ स्वस्ति । अश्व । जैत्राय । इन्द्रम् । आ । वह । सुस्रजम् ॥१२८.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 128; मन्त्र » 15
विषय - 'अश्व-पृष्ठ-धावन'
पदार्थ -
२. (हर्योः) = इन्द्रियाश्वों के-ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों के (पृष्ठम्) = पृष्ठ [Surface] को (धावन्तम्) = शुद्ध करते हुए, अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को शुद्ध बनाते हुए (उचैः श्रवसम्) = उत्कृष्ट कीर्तिवाले इस जितेन्द्रिय पुरुष को सब देव [माता, पिता व आचार्य] (आ अब्रुवन्) = सब प्रकार से यही कहते हैं कि हे (स्वस्त्यश्व) = [सु अस्ति अश्व] कल्याणकर इन्द्रियाश्वोंवाले जीव! तू (जैत्राय) = विजय-प्राप्ति के लिए (सुस्त्रजम्) = उत्तमताओं का निर्माण करनेवाले-तेरे जीवन को उत्तम बनानेवाले (इन्द्रम) = सब शत्रुओं के विद्रावक प्रभु को (आवह) = अपने समीप प्रात करा। प्रभु का सान्निध्य ही तेरे जीवन को शत्रु-विजय द्वारा पवित्र बनाएगा।
भावार्थ - इन्द्रियों को पवित्र बनाने के लिए यत्नशील मनुष्य यशस्वी होता है। माता, पिता व आचार्य आदि सब देव इसे यही उपदेश करते हैं कि तू जीवन में शत्रुओं को जीतने के लिए प्रभुका उपासन कर।
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