अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 128/ मन्त्र 7
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
य आ॒क्ताक्षः॑ सुभ्य॒क्तः सुम॑णिः॒ सुहि॑र॒ण्यवः॑। सुब्र॑ह्मा॒ ब्रह्म॑णः पु॒त्रस्तो॒ता कल्पे॑षु सं॒मिता॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । आ॒क्ताक्ष॑: ।सुभ्य॒क्त: । सुम॑णि॒: । सुहि॑र॒ण्यव॑: ॥ सुब्र॑ह्मा॒ । ब्रह्म॑ण: । पु॒त्र: । तो॒ता । कल्पे॑षु । सं॒मिता॑ ॥१२८.७॥
स्वर रहित मन्त्र
य आक्ताक्षः सुभ्यक्तः सुमणिः सुहिरण्यवः। सुब्रह्मा ब्रह्मणः पुत्रस्तोता कल्पेषु संमिता ॥
स्वर रहित पद पाठय: । आक्ताक्ष: ।सुभ्यक्त: । सुमणि: । सुहिरण्यव: ॥ सुब्रह्मा । ब्रह्मण: । पुत्र: । तोता । कल्पेषु । संमिता ॥१२८.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 128; मन्त्र » 7
विषय - सुमणिः सुहिरण्यवः
पदार्थ -
१. (यः आक्ताक्ष:) = अञ्जन से अँजी आँखवाला है, (सुअध्यक्त:) = जिसने स्नान आदि के बाद सम्यक् तेल मला है, (सुमणि:) = उत्तम मणियों को धारण किये हुए है, (सुहिरण्यवः) = उत्तम स्वर्ण आदि धनों से युक्त है। (सुब्रह्मा) = उत्तम वेदज्ञाता है। वह भी (ब्रह्मणः पुत्रः) = उस ब्रह्म का ही पुत्र है। २. (ता उता ता) = वे सब और निश्चय से वे सब (कल्पेषु संमिता) = यज्ञानुष्ठानों में समान रूप से सम्मिलित होने के योग्य माने गये हैं।
भावार्थ - सुस्नात, सुन्दर शरीरवाला, धनी तथा ज्ञानी भी यज्ञानुष्ठान उसी प्रकार करे जैसे कि अस्नात, न सुन्दर शरीरवाला, निर्धन व अल्पज्ञ करता है। यज्ञानुष्ठान सभी को करना ही चाहिए। ज्ञानी होकर इन अनुष्ठानों की उपेक्षा न करे।
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