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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 128

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 128/ मन्त्र 14
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    यः पर्व॑ता॒न्व्य॑दधा॒द्यो अ॒पो व्य॑गाहथाः। इन्द्रो॒ यो वृ॑त्र॒हान्म॒हं तस्मा॑दिन्द्र॒ नमो॑ऽस्तु ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । पर्व॑ता॒न् । अ॑दधा॒त् । य: । अ॒प: । वि । अ॑गा॒हथा: ॥ इन्द्र॒: । य: । वृ॑त्र॒हा । आत् । म॒हम् । तस्मा॑त् । इन्द्र॒ । नम॑: । अ॒स्तु॒ । ते॒ ॥१२८.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः पर्वतान्व्यदधाद्यो अपो व्यगाहथाः। इन्द्रो यो वृत्रहान्महं तस्मादिन्द्र नमोऽस्तु ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । पर्वतान् । अदधात् । य: । अप: । वि । अगाहथा: ॥ इन्द्र: । य: । वृत्रहा । आत् । महम् । तस्मात् । इन्द्र । नम: । अस्तु । ते ॥१२८.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 128; मन्त्र » 14

    पदार्थ -
    १. (यः) = जो (पर्वतान्) = [पर्व पूरणे] पूरणों को-कमियों के दूरीकरण को-(व्यदधात्) = विशेष रूप से करता है, अर्थात् सब न्यूनताओं को दूर करके जीवन को उत्तम गुणों से परिपूर्ण बनाता है। (य:) = जो (अप:) = ज्ञान-जलों व कर्मों का (व्यगाहथा:) = आलोडन करता है, अर्थात् खूब ज्ञानी व क्रियाशील बनता है। इसप्रकार (य:) = जो (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय बनकर (वृत्रहा) = वासनारूप वृत्र का विनाश करता है। २. (आत्) = अब हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष (तस्मात्) = उस कारण से चूँकि तूने कमियों को दूर किया है, चूँकि तू ज्ञानी व क्रियाशील बना है, चूंकि तूने वासनारूप वृत्र का विनाश किया है, अतः ते-तुझे महम्-[मह पूजायाम्] महनीय [आदरभाव से परिपूर्ण] (नमः अस्तु) = नमस्कार हो।

    भावार्थ - हम उस व्यक्ति को आदर दें जो [क] अपनी न्यूनताओं को दूर करने के लिए यत्नशील होता है, [ख] जो ज्ञानी व क्रियाशील बनता है, और [ग] जो वासनारूप वृत्र का विनाश करता है।

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