अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 128/ मन्त्र 1
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
यः स॒भेयो॑ विद॒थ्य: सु॒त्वा य॒ज्वाथ॒ पूरु॑षः। सूर्यं॒ चामू॑ रि॒शादस॒स्तद्दे॒वाः प्राग॑कल्पयन् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । स॒भेय॑: । विद॒थ्य॑: । सु॒त्वा । य॒ज्वा । अथ॒ । पूरु॒ष: ॥ सूर्य॒म् । च॒ । अमू॑ । रि॒शादस॒: । तत् । दे॒वा: । प्राक् । अ॑कल्पयन् ॥१२८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यः सभेयो विदथ्य: सुत्वा यज्वाथ पूरुषः। सूर्यं चामू रिशादसस्तद्देवाः प्रागकल्पयन् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । सभेय: । विदथ्य: । सुत्वा । यज्वा । अथ । पूरुष: ॥ सूर्यम् । च । अमू । रिशादस: । तत् । देवा: । प्राक् । अकल्पयन् ॥१२८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 128; मन्त्र » 1
विषय - 'सभेय-विदथ्य-सुत्वा-यज्वा'
पदार्थ -
१. वस्तुतः (पूरुषः) = पुरुष वह है (य:) = जोकि (सभेयः) = सभा में उत्तम है-अपने ज्ञान व शिष्टाचार के कारण सभा में (प्रशस्य) = होता है। (विदथ्य:) = [Knowledge, sacrifice, battle] ज्ञान, यज्ञ व संग्राम में उत्तम है। (सुत्वा) = सोम का सम्पादन करता है, शरीर में शक्ति [सोम] का रक्षण करता है। (अथ) = और (यज्वा) = यज्ञशील बनता है। २. (च) = और (तत्) = ऐसा बनने के लिए (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (अमुम्) = उस (सूर्यम्) = सुर्यसम ज्योति ब्रह्म को [ब्रह्म सूर्यसमं ज्योति:] (प्राक्) = आगे अपने सामने (अकल्पयन्) = [to believe, consider, think, imagine] सोचते हैं। प्रभु का ध्यान करते हुए प्रभु-जैसा ही बनने का प्रयत्न करते हैं। प्रभु ही (रिशादसम्) = सब हिंसक वृत्तियों को समास करनेवाले हैं। प्रभु-स्मरण करते हुए ये उपासक 'ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध व द्रोह' आदि वृत्तियों से ऊपर उठ जाते हैं।
भावार्थ - मनुष्य तो वही है जो कि सभा में प्रशस्य होता है-ज्ञान में उत्तम है-सोम का सम्पादन करता है और यज्ञशील है। ये देववृत्ति के पुरुष सदा प्रभु का स्मरण करते हैं। प्रभु इनकी अशुभवृत्तियों को विनष्ट कर देते हैं।
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