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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 128

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 128/ मन्त्र 13
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    त्वं वृ॑षा॒क्षुं म॑घव॒न्नम्रं॑ म॒र्याकरो॒ रविः॑। त्वं रौ॑हि॒णं व्यास्यो॒ वि वृ॒त्रस्याभि॑न॒च्छिरः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । वृ॑षा । अ॒क्षुम् । म॑घव॒न् । नम्र॑म् । म॒र्य । आक॒र: । रवि॑: ॥ त्वम् । रौ॑हि॒णम् । व्या॑स्य॒: । वि । वृ॒त्रस्य॑ । अभि॑न॒त् । शिर॑: ॥१२८.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं वृषाक्षुं मघवन्नम्रं मर्याकरो रविः। त्वं रौहिणं व्यास्यो वि वृत्रस्याभिनच्छिरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । वृषा । अक्षुम् । मघवन् । नम्रम् । मर्य । आकर: । रवि: ॥ त्वम् । रौहिणम् । व्यास्य: । वि । वृत्रस्य । अभिनत् । शिर: ॥१२८.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 128; मन्त्र » 13

    पदार्थ -
    १. हे (मघवन्) = [मघ-मख] यज्ञशील (मर्य) = मनुष्य! (त्वम्) = तू (वृषा) = शक्तिशाली-अपने में सोमशक्ति का सेचन करनेवाला व (रवि:) = अज्ञानान्धकार को नष्ट करनेवाला सूर्यसम ज्ञानदीप्त बना है। तू अपने सन्तानों को भी (अक्षुम्) = [अश] कर्मों में (व्याप्त) = खूब क्रियाशील (व नमम्) = ज्ञान से विनीत (अकरो:) = बनाता है। २. (त्वम्) = तू (रौहिणम्) = उपभोग से निरन्तर वृद्धि को प्रास होनेवाले इस कामासुर को [न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥] (व्यास्य:) = विशेषरूप से दूर फेंकता है और (वृत्रस्य) = ज्ञान पर पर्दे के रूप में आ जानेवाले 'वृत्र' [लोभ] के (शिर:) = सिर को (वि अभिनत्) = विशेषरूप से विदीर्ण करता है, काम व लोभ को नष्ट करके ही यह यज्ञशील बनता है। स्वयं शक्तिशाली व ज्ञानी बनता हुआ यह सन्तानों को भी क्रियाशील व नम्र बनाता है।

    भावार्थ - हम यज्ञशील बनकर शक्तिशाली व ज्ञानी बनें। हमारे सन्तान भी क्रियाशील व नम्न हों। हम काम व लोभ को विनष्ट कर पाएँ।

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