अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 128/ मन्त्र 16
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
ये त्वा॑ श्वे॒ता अजै॑श्रव॒सो हार्यो॑ यु॒ञ्जन्ति॒ दक्षि॑णम्। पूर्वा॒ नम॑स्य दे॒वानां॒ बिभ्र॑दिन्द्र महीयते ॥
स्वर सहित पद पाठये । त्वा॑ । श्वे॒ता: । अजै॑श्रव॒स: । हार्य॑: । यु॒ञ्जन्ति॒ । दक्षि॑णम् ॥ पूर्वा॒ । नम॑स्य । दे॒वाना॒म् । बिभ्र॑त् । इन्द्र । महीयते ॥१२८.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
ये त्वा श्वेता अजैश्रवसो हार्यो युञ्जन्ति दक्षिणम्। पूर्वा नमस्य देवानां बिभ्रदिन्द्र महीयते ॥
स्वर रहित पद पाठये । त्वा । श्वेता: । अजैश्रवस: । हार्य: । युञ्जन्ति । दक्षिणम् ॥ पूर्वा । नमस्य । देवानाम् । बिभ्रत् । इन्द्र । महीयते ॥१२८.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 128; मन्त्र » 16
विषय - शुद्ध कर्मों में व्यापृत्ति
पदार्थ -
१. हे (नमस्य) = नमस्कार के योग्य (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (ये) = जो (श्वेता:) = सब मिलनताओं के विनाश से श्वेता [शुद्ध] अतएव (अजैश्रवस:) = अजेय कीर्तिवाले-अत्यन्त प्रशंसनीय (हार्य:) = इन्द्रियाश्व (त्वा) = तुझे (दक्षिणं युञ्जन्ति) = सदा सीधे [वाम से विपरीत] उन्नति के साधक [दक्ष to grow] कर्मों में प्रेरित करते हैं-लगाते हैं तो उस समय आप (देवानाम्) = सब इन्द्रियों के (पूर्वा) = पालन व पूरणात्मक कर्मों को (बिभ्रत्) = धारण करते हुए (महीयते) = महिमावाले होते हैं सब लोग आपका आदर करते हैं।
भावार्थ - जब हम इन्द्रियों से सदा उत्तम कार्यों को करने में तत्पर होते हैं तब शुद्ध जीवनवाले बनकर हम महिमा को प्राप्त करते हैं।
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