अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 128/ मन्त्र 4
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
यश्च॑ प॒णि रघु॑जि॒ष्ठ्यो यश्च॑ दे॒वाँ अदा॑शुरिः। धीरा॑णां॒ शश्व॑ताम॒हं तद॑पा॒गिति॑ शुश्रुम ॥
स्वर सहित पद पाठय: । च॑ । प॒णि । रघु॑जि॒ष्ठ्य: । य: । च॑ । दे॒वान् । अदा॑शुरि: ॥ धीरा॑णा॒म् । शश्व॑ताम् । अ॒हम् । तत् । अ॑पा॒क् । इति॑ । शुश्रुम ॥१२८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यश्च पणि रघुजिष्ठ्यो यश्च देवाँ अदाशुरिः। धीराणां शश्वतामहं तदपागिति शुश्रुम ॥
स्वर रहित पद पाठय: । च । पणि । रघुजिष्ठ्य: । य: । च । देवान् । अदाशुरि: ॥ धीराणाम् । शश्वताम् । अहम् । तत् । अपाक् । इति । शुश्रुम ॥१२८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 128; मन्त्र » 4
विषय - धन तथा दानशीलता
पदार्थ -
१. (य: च) = और जो (पणि:) = वणिक् वृत्तिवाला होता हुआ (रघुजिष्टयः) = औरों का पालन करनेवाला नहीं। (यः च) = और जो (देवान् अदाशुरि:) = देवों के प्रति देने की वृत्तिवाला नहीं अथवा (देवान्) = धनी होता हुआ [अदाशुरिः] न देने की वृत्तिवाला है। वह (शश्वतां धीराणाम्) = प्लुतगतिवाले क्रियाशील धीर पुरुषों में (अपाग्) = [अप अञ्च्] निम्न गतिवाला है। (अहम् इति शुश्रुम) = मैंने ऐसा सुना है अथवा सदा से धीर पुरुषों से हमने ऐसा सुना है कि वह अदानशील पुरुष नीच गतिवाला है।
भावार्थ - धन की शोभा दान में है। धनी होते हुए न देना निम्न गति का कारण बनता है।
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