अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 12
सूक्त -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - निचृत्ककुबुष्णिक्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
सुदे॑वस्त्वा म॒हान॑ग्नी॒र्बबा॑धते मह॒तः सा॑धु खो॒दन॑म्। कु॒सं पीव॒रो न॑वत् ॥
स्वर सहित पद पाठसुदे॑व: । त्वा । म॒हान् । अ॑ग्नी॒: । बबाध॑ते॒ । मह॒त: । सा॑धु । खो॒दन॑म् ॥ कु॒सम् । पीव॒र: । नव॑त् ॥१३६.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
सुदेवस्त्वा महानग्नीर्बबाधते महतः साधु खोदनम्। कुसं पीवरो नवत् ॥
स्वर रहित पद पाठसुदेव: । त्वा । महान् । अग्नी: । बबाधते । महत: । साधु । खोदनम् ॥ कुसम् । पीवर: । नवत् ॥१३६.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 12
विषय - अग्नि-विबाधन व खोदन
पदार्थ -
१. हे प्रजे! यह (सुदेव:) = उत्तम ज्ञान की ज्योतिवाला व उत्तम व्यवहारवाला (महान्) = महनीय राजा (त्वा) = तेरा लक्ष्य करके-तेरी स्थिति को अच्छा बनाने के उद्देश्य से (अग्नी:) = आग लगाने आदि उपद्रवों को (बबाधते) = खुब ही रोकता है। राष्ट्र में उत्पन्न होनेवाले उपद्रवों को रोकने का पूर्ण प्रयत्न करता है। इस (महत:) = महनीय राजा का-इसके द्वारा किया हुआ (खोदनम्) = [खुद् भेदने] शत्रुओं का विदारण साधुः उत्तम है। यह राष्ट्र को शत्रुओं के आक्रमण से सुरक्षित करता है। २. यह (पीवर:) = प्रजा-रक्षण द्वारा परिपुष्ट राज्यांगोंवाला राजा (कुसं नवत्) = प्रभु के संश्लेषण को प्राप्त करता है [नवतिर्गतिकर्मा] राजा को प्रभु-प्राप्ति तभी होती है जबकि वह प्रजा का सम्यक् रक्षण करता है। प्रजापालन ही राजा का प्रभु-पूजन है।
भावार्थ - उत्तम राजा अन्तः व बाह्य उपद्रवों से प्रजा का रक्षण करता है। इसप्रकार प्रजापालन करता हुआ राजा प्रभु का सच्चा पूजन करता है और प्रभु-प्राति का पात्र बनता है।
इस भाष्य को एडिट करें