अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 9
म॑हान॒ग्न्युप॑ ब्रूते स्वसा॒वेशि॑तं॒ पसः॑। इ॒त्थं फल॑स्य॒ वृक्ष॑स्य॒ शूर्पे॑ शूर्पं॒ भजे॑महि ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हा॒न् । अ॒ग्नी इति॑ । उप॑ । ब्रू॒ते॒ । स्व॑सा॒ । आ॒ऽवेशि॑त॒म् । पस: ॥ इ॒त्थम् । फल॑स्य॒ । वृक्ष॑स्य॒ । शूर्पे॑ । शूर्प॒म् । भजे॑महि ॥१३६.९॥
स्वर रहित मन्त्र
महानग्न्युप ब्रूते स्वसावेशितं पसः। इत्थं फलस्य वृक्षस्य शूर्पे शूर्पं भजेमहि ॥
स्वर रहित पद पाठमहान् । अग्नी इति । उप । ब्रूते । स्वसा । आऽवेशितम् । पस: ॥ इत्थम् । फलस्य । वृक्षस्य । शूर्पे । शूर्पम् । भजेमहि ॥१३६.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 9
विषय - उत्तम गति व दीप्तिवाला राष्ट्र
पदार्थ -
१. (महान्) = महनीय राजा (अग्नी उपब्रूते) = राष्ट्र को आगे ले चलनेवाली सभा व समिति के सदस्यों से कहता है कि अब आप लोगों के श्रम से (पस:) = [पस: राष्ट्रम्। श०] (स्वसा) = [स अस गतिदीप्त्यादानेषु]-उत्तम गति व दीप्ति से (आवेशितम्) = आवेशित हो गया है। राष्ट्र में सब लोग ठीक गतिवाले-ठीक कौवाले व उत्तम ज्ञानदीप्तिवाले किये गये हैं। २. (इत्थम्) = इसप्रकार अब हम फलस्य वृक्षस्य फले हुए इस राष्ट्रवृक्ष के (शूर्पे शूर्पम्) = शूर्प में शूर्प को [प्रदर्ष to measure] (शूर्पे) = माप के निमित्त प्रजा में अच्छे व बुरों को जानने के निमित्त छाज में छाज को (भजेमहि) = सेवित करें। जिस प्रकार छाज अन्न को भूसी से पृथक्कर देता है, उसी प्रकार हम इस राष्ट्र में आयों को दस्युओं से पृथक् कर लें 'विजानीहि आर्यान् ये च दस्यवः' [मा ते राष्ट्रे याचनका भवेयुर्मा च दस्यवः] । दस्युओं को राष्ट्र से पृथक् करते हुए हम सदा राष्ट्र के कल्याण की वृद्धि करनेवाले हों।
भावार्थ - राजा ने सभ्यों से मिलकर राष्ट्र को उत्तम गति व दीप्सिवाला बनाना है। अब राष्ट्र में आर्यों ब दस्युओं का ध्यान करते हुए, दस्युओं को पृथक् करके राष्ट्र को सदा कल्याणयुक्त करना है।
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