अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 16
यः कु॑मा॒री पि॑ङ्गलि॒का वस॑न्तं पीव॒री ल॑भेत्। तैल॑कुण्ड॒मिमा॑ङ्गु॒ष्ठं रोद॑न्तं शुद॒मुद्ध॑रेत् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । कु॑मा॒री । पि॑ङ्गलि॒का । वस॑न्तम् । पीव॒री । ल॑भेत् ॥ तैल॑कुण्ड॒म्ऽइम । अ॑ङ्गु॒ष्ठम् । रोदन्तम् । शुद॒म् । उद्ध॑रेत् ॥१३६.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
यः कुमारी पिङ्गलिका वसन्तं पीवरी लभेत्। तैलकुण्डमिमाङ्गुष्ठं रोदन्तं शुदमुद्धरेत् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । कुमारी । पिङ्गलिका । वसन्तम् । पीवरी । लभेत् ॥ तैलकुण्डम्ऽइम । अङ्गुष्ठम् । रोदन्तम् । शुदम् । उद्धरेत् ॥१३६.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 16
विषय - 'यः वसन्, तैलकुण्ड, अंगुष्ठ, रोदन'
पदार्थ -
१. (कुमारी) = शत्रओं को बुरी तरह से मारनेवाली [कु-मार] (पिंगलिका) = तेजस्विनी (पीवरी) = हष्ट पुष्ट सेना जब (यः वसन्तम्) = [यस् प्रयत्ने भावे क्विप्] सदा प्रयत्न में निवास करनेवाले, (तैल कुण्डम्) = राग की चिकनाई का दहन कर देनेवाले-परिवार के राग में ही न फंसे हुए-इम [इमम्]-इस (अंगष्टम) = सदा गति में निवास करनेवाले-क्रियामय जीवनवाले, (रोदन्तम्) = प्रजा के कष्टों पर रोदन करनेवाले [Shedding tears] (शु-दम्) = शीन ही वेतन दे देनेवाले राजा को (लभेत्) = प्राप्त करती है तो उद्धरेत्-यह राष्ट्र का उद्धार करनेवाली होती है। २. राजा सदा प्रजा कल्याण के प्रयत्नों में लगा हुआ [यः वसन्], परिवार के राग में न फंसा हुआ [तैल-कुण्ड] गतिशील [अंगु-8], प्रजा के कष्टों को अनुभव करनेवाला [रोदन] तथा समय पर सेना को वतेन देनेवाला [शु-द] होना चाहिए। सेना भी शत्रुसंहार करनेवाली [कु-मारी], तेजस्विनी [पिंगलिका] तथा सबल [पीवरी] होनी चाहिए। ऐसा होने पर ही राष्ट्र का उत्थान होता है।
भावार्थ - राजा व सेना दोनों के उत्तम होने पर राष्ट्र का उत्थान सम्भव होता है।
सूचना - इति कुन्तापसूक्तानि यहाँ कन्ताप सक्तों की समाप्ति होती है। इनमें बुराई के विनाश का उपदेश था [कु+तप] अन्तिम सूक्त में राजा राष्ट्र के सब मलों का विनाश करके राष्ट्र का उत्थान करता है। इस राष्ट्र में लोग 'शिरिम्बिठि'-[बिठम् अन्तरिक्ष, श] हृदयान्तरिक्ष से वासनाओं को विनष्ट करनेवाले होते हैं [१३७.१] 'बुध'-ज्ञानी बनते हैं [१३७.२] 'वामदेव'-सुन्दर दिव्यगुणोंवाले होते हैं [१३७.३], 'पयाति:'-खूब ही यत्नशील होते हैं [१३७.४-६], 'तिरश्ची-अंगिरसः द्युतान:'-[तिरः अञ्च] हृदय-गुहा में तिरोहित प्रभु की ओर चलनेवाले, अंग-प्रत्यंग में रसमय, ज्ञान-ज्योति का विस्तार करनेवाले होते हैं [१३७.७-११]। ये "सुकक्ष'-लक्ष्य तक पहुँचने के लिए उत्तमता से कटिबद्ध होते हैं [१३७.१२-१४]। अगले सूक्त में ये ही मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं -
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