अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 5
म॑हान॒ग्न्यतृप्नद्वि॒ मोक्र॑द॒दस्था॑नासरन्। शक्ति॑का॒नना॑ स्वच॒मश॑कं सक्तु॒ पद्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हा॒न् । अ॒ग्नी इति॑ । अ॑तृप्नत् । वि । मोक्र॑द॒त् । अस्था॑ना । आसरन् ॥ श॑क्तिका॒नना: । स्व॑च॒मश॑कम् । सक्तु॒ । पद्य॑म् ॥१३६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
महानग्न्यतृप्नद्वि मोक्रददस्थानासरन्। शक्तिकानना स्वचमशकं सक्तु पद्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठमहान् । अग्नी इति । अतृप्नत् । वि । मोक्रदत् । अस्थाना । आसरन् ॥ शक्तिकानना: । स्वचमशकम् । सक्तु । पद्यम् ॥१३६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 5
विषय - राजा व सभ्यों का परस्पर प्रेममय व्यवहार
पदार्थ -
१. (महान्) = [मह पूजायाम्] महिमा-सम्पन्न-पूजनीय राजा (अग्नी) = सभा व समितिरूप राष्ट्र की दोनों अग्नियों को राष्ट्र को आगे ले-चलनेवाली सभाओं को (वि अतृप्नत्) = अपने मधुर व्यवहार से प्रीणित करनेवाला होता है। यह राजा (अस्थाना) = दुर्गम स्थानों में कठिन [विषम] परिस्थितियों में (आसरन्) = गति करता हुआ (मा उ क्रदत्) = व्याकुल नहीं हो जाता-रोने नहीं लगता। सभा व समिति के साथ मिलकर उस अस्थान से पार होने के उपाय सोचता है। २. (शक्तिकानना) = [कन् दीप्तौ] शक्ति को दीस करनेवाले हम सभ्य (स्वचम्) = [सु अञ्च]-उत्तम गति को (अशकम्) = करने में समर्थ हों तथा (सक्तु) = परस्पर समवाय को (पद्यम) = प्राप्त करें। सभ्य शक्तिशाली हों, उत्तम गतिवाले तथा परस्पर मेलवाले हों।
भावार्थ - राजा सभा व समिति के प्रति मधुर व्यवहारवाला हो। उनकी सम्मति से कठिन समस्याओं को भी हल करनेवाला हो। सभ्य शक्तिशाली, उत्तम गतिवाले व परस्पर मेलवाले हों।
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