अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 137/ मन्त्र 1
सूक्त - शिरिम्बिठिः
देवता - अलक्ष्मीनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त १३७
यद्ध॒ प्राची॒रज॑ग॒न्तोरो॑ मण्डूरधाणिकीः। ह॒ता इन्द्र॑स्य॒ शत्र॑वः॒ सर्वे॑ बुद्बु॒दया॑शवः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ह॒ । प्राची॑: । अज॑गन्त । उर॑: । म॒ण्डू॒र॒ऽधा॒णि॒की॒: ॥ ह्व॒ता: । इन्द्र॑स्य । शत्र॑व: । सर्वे॑ । बु॒द्बु॒दऽया॑शव: ॥१३७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्ध प्राचीरजगन्तोरो मण्डूरधाणिकीः। हता इन्द्रस्य शत्रवः सर्वे बुद्बुदयाशवः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ह । प्राची: । अजगन्त । उर: । मण्डूरऽधाणिकी: ॥ ह्वता: । इन्द्रस्य । शत्रव: । सर्वे । बुद्बुदऽयाशव: ॥१३७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 137; मन्त्र » 1
विषय - 'शिरिम्बिठि' का पवित्र जीवन
पदार्थ -
१. (यत्) = जब (ह) = निश्चय से लोग (प्राची: अजगन्त) = प्रकृष्ट गतिबाले होकर आगे और आगे चलते हैं तब (उरः) = [उर्वी हिंसायाम्]-वासनाओं का हिंसन करनेवाले होते हैं। ये (मण्डूरधाणिकी:) = [मन्दनस्य धनस्य धारयित्र्यः] आनन्दप्रद धनों का धारण करनेवाले होते है। प्रभु का भक्त 'शिरिम्बिठि' बनता है-यह कभी अनुचित उपायों से धनार्जन नहीं करता। २. (इन्द्रस्य) = इस जितेन्द्रिय पुरुष के (शत्रवः) = काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रु (हता:) = विनष्ट हो जाते हैं। (सर्वे) = ये सब शत्रु (बुद्बुदयाशवः) = [यान्ति, अश्नुवते]-बुलबुलों की भाँति नष्ट हो जानेवाले होते हैं और व्यापक रूप को धारण करते हैं। बुलबुला फटा और पानी में फैल गया [विलीन हो गया]। इसी प्रकार इस व्यक्ति के जीवन में 'काम' फटकर फैल जाता है और 'प्रेम' का रूप धारण कर लेता है। क्रोध' फटकर 'करुणा' के रूप में हो जाता है और 'लोभ' त्याग का रूप धारण कर लेता है।
भावार्थ - हम "काम, क्रोध, लोभ' आदि शत्रुओं को विनष्ट करके आगे बढ़नेवाले हों।
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